श्यामा या सुगंधा
श्यामा या सुगंधा
किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
" निकाल देते हैं दूसरों में ऐब,
जैसे हम नेकियों के नवाब हैं
गुनाहों पर अपने पर्दे डालकर
कहते हैं, जमाना बड़ा खराब है।"
सुगंधा के जन्म में खुशियां नहीं बरसी थी, कुछ सहमें और कुछ खुले शब्दों में तीरों के बाण चल रहे थे। अस्पताल में भी कानाफूसी शुरू हो गई, मां कपास सी, पिता दुग्ध सा फिर यह एक तो लड़की जात, फिर इतनी सांवली? कौन करेगा ब्याह इससे ?दर्द से कराहती उषा की आंखें भी लाडो को देख कहीं घोर तिमिर में खो जाती है ।सब कुछ तो किया था, काजू, नारियल, केले खाएं, केसर दूध में डालकर पिया, मक्खन खाया फिर प्रभु तुमने मेरी ही बेटी को इतनी सांवली बनाकर क्यों भेजा ?उषा बहुत हीन एवं आत्मग्लानि से भरी दिख रही थी। इस समाज में गौर वर्ण ही सुंदरता कहलाती है । सांवले से सांवले पुरुष को भी लड़की चंद्रमा के समान गोरी- निखरी चाहिए इन्हीं विचारों में उषा का धवल मुख फीका पड़ रहा था।
धीरे-धीरे सुगंधा बड़ी होती है । श्याम वर्णी किंतु धीर, गंभीर, मृदुभाषी पढ़ाई में अव्वल, खेलकूद में आगे हर प्रतिभा में धनी जैसे मां सरस्वती उसे अपने उज्जवल किरणों से प्रज्वलित कर रही हो।
सांवली मन की टीस उसे भी पीड़ा देते ।मां, दादी, दोस्त, शिक्षक, समाज उसे सांवली होने का एहसास कराते।कोई कहता काली तुम अशुभ हो, डरावनी हो, भूतनी हो, सहकर्मी उपहास उड़ाते ।कोयला खदान, काली तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता कोई राजकुमार नहीं आएगा इस सांवलापन को संजोनें…......।
सुगंधा सोचती क्या कोई मेरे गुणों का आकलन कर पाएगा ?रंग त्वचा से ऊपर उठकर मेरे निश्चल मन को छू पायेगा ?क्या मैं सांवली हूं, अशुभ हूं कलमुंही हूं, ............ हर पल उसके कुचलते आत्म सम्मान उसे विचलित करते । दादी कहती, कारी रे कारी रोज हल्दी कुमकुम लगाकर नहाया कर, जानती है खुद कृष्ण वर्ण कन्हैया ने भी गौर वर्ण राधा रानी को चुना था। बाबा फेयर लवली की पैकेट ला कर देते हैं- कहते तुम्हारी सांवलापन के कारण मुझे ज्यादा दहेज जुटाना होगा ।सुगंधा अंदर ही अंदर गंध -विहीन शून्य हो जाती। वह सोचती भला इस काले रंग में क्या बुराई है? हर भयावह चीज स्याह रंग से जोड़ दी जाती है बच्चे की सुंदरता हो या गोरी का सौंदर्य नजर से बचने के लिए काजल का टीका, आंखों का अंजन, टोना टोटका जादू -मंतर बुरी कुत्सित विचारे काले आवरण में ढककर चलाई जाती है। काली निशा के गहन तिमिर में असंख्य पाप, भयानक से भयानक काम अंजाम दिए जाते हैं, क्या उस समय गौर हस्त लज्जित नहीं होते?
होली का त्यौहार आता है, सुगंधा फ्रॉक लेने जाने से कतराती है। मां, दुकानदार फिर यही बोलेगा तुम हल्के रंग की पोशाक ही लेना तुम पर खिलेगा। होली के रंग भी चुन-चुन कर लगाना, ऐसे कटाक्ष, जैसे गहरी -नीली, रक्त लाल, भूरी रंगों ने उसके जीवन से मुंह मोड़ लिया हो। कहीं मां शादी में ले जाती तो मामी, मौसी, काकी सब शुरू हो जाती ।उषा तुम्हारी बड़ी बेटी तो इतनी गौर वर्ण है फिर यह किस पर चली गई और हिदायतों का बड़ा पहाड़ खड़ा कर देती, और ठहाका लगाते हुए सब हंस पड़ती, मैं अपने सांवलेपन से यूं ही मलिन मुख हूं और मेरे हृदय
पर और मलिनता पोत दी जाती। चाय मत पीना सुगंधा रंग और काला हो जाएगा।
मैं अपने मन को ढांढस देती -"मां मैं काली हूं तो क्या हुआ रंगोली के रंगों की मुस्कुराती खुशियां तुम्हारे दामन में ले आऊंगी ।बाबा तुम्हारे आंगन को उम्मीदों से सजाकर श्रृंगारित करूंगी। मां मैं निशा के समान काली हूं तो क्या हुआ चांदनी की शीतलता से सर्वत्र आनंद भर दूंगी अपनी गुणों की स्वामिनी बनकर सबको आकर्षित करूंगी।"
समय बीतता रहा सुगंधा जीवन के स्याह रंगों में सफलताओं के बेहतरीन रंग सजाती रही, फिर पिता जी को शादी की जल्दी थी । उनको मैं उनके अनकहे शब्दों में बोझ लगती थी, बड़े भारी कोयले की भांति, जो मैं खुद को कितना भी तपाती हीरा नहीं बन पाती थी । अनेकानेक लड़के वाले आए और मुझे ना पसंद करके चले गए । उनका आना जैसे पूरे घर में शोक और मातम, तनहाई और रूंवासी, जिंदगी फिर मुझे झकझोर कर रख देती।
मैं पहाड़ जैसी काली थी, तो मेरे आत्म बल भी उसकी ही तरह अडिग थे मैंने ठान लिया था मैं अंधेरे को चीर कर कुलदीपिका कहलाऊंगी, अपने आचरण से, चिंतन से, व्यवहार से सारी धरा में अनुपम पहचान बनाऊंगी। बाबा की पथराती आंखों में फिर स्वप्ने मधुर सजाऊंगी ।मैं सांवली हूं बाबा पर सलोनी हूं, तुम्हारी लाडली हूं, पढ़ी-लिखी सरिता बनकर श्वेत धवल विचार प्रवाह बहाऊंगी।
कहते हैं संकल्प से पुरुषार्थ किया जाए तो सब कुछ संभव हो जाता है ।जब समाज में उपेक्षित और हीन समझा जाने वाला व्यक्ति अपने आत्मसम्मान के लिए खड़ा होता है तो स्वयं विधाता विजय तिलक लेकर स्वागत के लिए तैयार रहते हैं।
आज सुगंधा प्रशासनिक अधिकारणी है, बेहद आकर्षक छवि, आत्मविश्वास की चमक से दमकती बेहद गरिमा पूर्ण ।बाबा अपनी बिटिया की ईमानदार, निष्ठावान, कर्मठ दबंग रंगो का बखान करते नहीं अघाते। आशा आज फिर श्वेत धवल किरणों से तरंगित, खुशियां बांटते -बांटते अपनी बिटिया को देख- देख चहकती है! आज उन्हें अपनी बेटी की पसंद गौरव पर नाज है जो अपने ही शहर के उप जिला अधिकारी के रूप में कार्यरत है ।सांवले- सलोने दूल्हे राजा की बड़ाई पूरा समाज करते हुए नहीं थकता है।
मनमोहक मुस्कान की स्वामिनी सुगंधा आज दुल्हन में सजी रति को भी लजा रही है। उसके मन के भाव कहते हैं -
"सांवला चेहरा हुआ तो क्या
आंखों में सपने प्रबल है,
काली-काली बीजों से कैसी शर्म
सुंदर उपवन वन समझाऊं, जीवन मर्म।।"
सुगंधा की सखियां आज लजाती है, समझती है रंग में कुछ भी नहीं रखा हम धवल से गौर थे, पर आज हमारी चमक सुगंधा के आगे फीकी है। सुगंधा सोचती है, यह समाज जहां मौत के बाद भी कफन सफेद और धवल पहनाई जाती है वहां कब तक काले रंग को बदनाम किया जाएगा।
शायद इस सोच को शिक्षा ही बदल सकती है ।काली से काली निशा के घोर तम को चीर कर, शिक्षा की किरणें पाकर कोई भी कारी, कोई भी सांवली, चमक कर सुगंधा बन सकती है।।
(प्रिय दोस्तों आशा है कहानी की किरदार सुगंधा को आप जिंदा महसूस करें ।उसके दिल का दर्द समझे, उसका संघर्ष, जुझारूपन यह उम्मीद जगाती है की दुनिया विकल्प हीन नहीं है रास्ते खुद बनाने पड़ते हैं बस जज्बा होना चाहिए।