सात हजार की इज्जत
सात हजार की इज्जत
"अरी ओ, धीरेन की दुल्हनियां, घर पे हो क्या ?"
ये कहते हुए प्रताप उसके आंगन में दाखिल हो गया, बिना धीरेन की बेगम के जवाब का इन्तज़ार किए। शायद उसने छोटे छोटे खिड़कियों से रसोई में उसे काम करता देख लिया था।
प्रताप उसी गांव का एक ३०-३२ वर्ष का युवक था। कुछ साढ़े पांच की कड़ काठी का, सांवला रंग और चेहरे पे घनी मूँछ।
समाज में उसकी हैसियत तो कुछ खास नहीं थी लेकिन ये गांव उच्च जाति के वर्चस्व वाला था, और ऊपर वाले की असीम कृपा थी कि उसका जन्म इसी जाति में हुआ था।
काम के नाम पे गांव में एक छोटी सी राशन की दुकान थी और इससे उसका घर बार चल जाता था। परिवार में एक भर पूरी बदन कि बीवी थी और तीन बेटे।कमी किसी चीज की नहीं थी। जोतने को कुछ खेत और उच्च समुदाय होने का घमंड। गुज़र बसर हो ही रही थी।
धीरेन उसी गांव का एक हरिजन था। परिवार में एक छोटी बहन और दो छोटे भाई,और उससे बड़ा एक भाई।
पिता जी थे जिनका कुछ अधिकार ऐसे ही नहीं था परिवार पे और जब से धीरेन की मां गुज़री थी, और भी औचित्य रहा नहीं की अधिकार की बात करे। धीरेन की मां बड़ी भली सी औरत थी। हरिजन होने के बावजूद उसने एक इज़्ज़त कमाई थी पूरे गांव में।
उधर धीरेन के सयाने होने के बाद उसकी शादी भी कर दी गई।
बहू इतनी सुन्दर होगी ये तो किसी को भी नहीं पच रही थी। ये कहीं ना कहीं उस मां का करम था, जाते जाते बेटे के लिए बड़ी सुंदर सी बहू लाके दी।
अब बहुरिया के क्या कहने, बला सी खूबसूरत थी।
जैसे अभी अभी पूर्ण पुष्प का रूप धारण किया हो, जैसे कोई ईद का चांद हो।
चेहरे से सुंदरता टपकती थी। छरहरे बदन की मालकिन और चले तो लगे जैसे हिरनी चल रही हो। ये बात तो गांव में फैल गई की "देखो उस हरिजनवा के घर की बहु कितनी सुंदर है"।
धीरेन का घर था भी ऐसे जगह, पास से एक सड़क और दोनों तरफ कीचड़ से सने छोटे-छोटे तालाब।
और उसकी बीवी जैसे उस कीचड़ की कमल बन के आयी हो उसके आंगन में।
गांव की महिलाएं में जलन और गांव में कुछ पाखंडी लोगों में हवस अब दिखने लगी थी।
ससुराल आते ही उसे अपने पारंपरिक काम में लगना पड़ा। जमींदारों के यहां गोबर उठाना, वहां के कपड़े धूलना ,ये उसके रोजमर्रा के काम थे। ग़रीबी का आलम ये था कि बहुरिया के कपड़े भी फटे होते थे, और मर्दों कि हवस ग़रीबी कहां देखती है, जिस्म निहारना उनका काम था।
और उसके काम करते करते उसी घर के महिलाओं को उसके बारे में अनाप शनाप कहना और पुरुषों का अपनी पत्नियों से छिप के उसे निहारना रोज का काम था।
प्रताप उन परिवारों में से एक नहीं था जहां धीरेन की बहुरिया रोज काम करने जाए, लेकिन सुंदरता से कौन अनभिज्ञ रहता है। गांव के बच्चे, जवान ,प्रोढ़ सब दीवाने थे, भले ही जात हरिजन की थी।
उधर धीरेन के घर का बसर उसी बड़े लोगों की कृपा से होता आ रहा था। हर रोज पैसे की तंगी,घर में किल्लत। बीमार होने पे दवाई की किल्लत, त्योहारों में कपड़ों कि किल्लत।
"हां प्रताप चाचा, घरे पे हैं" ये कहती हुई बहुरिया बैठने को चटाई आगे की।
"बाबाधाम गए थे, तो सोचे कि तुमको भी प्रसाद दे दे" ये कहते हुए प्रताप ने एक गन्दी सी नज़र से बहुरिया के जिस्म को देख लिए। फटे कपड़े एक बार फिर बहुरिया की आबरू बचाने में विफल थी।
बात बात पे पता चला कि बहुरिया की जेठानी घर पे नहीं है, और ननद सो गई है। प्रताप के अंदर का पाखंड जागा और उसकी हवस तृष्णा बहुत बढ़ गई।
जैसे ही बहुरिया चूल्हे कि तरफ मुड़ी, प्रताप ने हाथ पकड़ा और दबोच लिया।
पंखुरी सी बहुरिया अब उसके जिस्म के अंदर थी। स्थिति ऐसी थी कि मुंह से आवाज नहीं निकली, उस पल को वो समझ नहीं पाई कि कुछ क्षणों के अंदर ये क्या हो गया। लेकिन मति का साथ मिला और जोड़ से चीख निकली, भगवान का शुक्र है कि उसकी ननद उठ गई और प्रताप को वहां से भागना पड़ा।
ये बात गांव में आग की तरह फैली। बात पंचायती तक आयी और पांचों पंचों और पूरे उच्च समुदाय को अब बहुरिया की इज़्ज़त से ज्यादा प्रताप की बदनामी का डर सताने लगा।
लगा ये तो हरिजन है, कोर्ट कचहरी तक बात गई तो बड़ी थू थू हो जानी है। इन्साफ फिर से पंचों के सामने ही दम घोट रहा था।
बहुरिया वही पे अपने आंखों में आंसू लिए खड़ी थी ।
फैसला ये हुआ कि ७००० रूपए में बात निपटेगी और ये हरिजन लोग कोर्ट नहीं जाएंगे। प्रताप ने भरी सभा में माफी मांगी और ७००० रूपए बहुरिया के हाथ में दिए, लेकिन उसे तो इन्साफ चाहिए था, फिर उसकी नजर अपने ही पति पर गई, जिसे ७००० ज्यादा प्यारे थे।
एक बार फिर पैसे से इज़्ज़त हार गया।