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सारागढ़ी का युद्ध

सारागढ़ी का युद्ध

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घटना 1897 की है! नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट मेँ 12 हजार अफगानोँ ने हमला कर दिया! वे गुलिस्तान और लोखार्ट के किलोँ पर कब्जा करना चाहते थे! याद रहे इन किलो को महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था! इन किलो के पास सारागढी में एक सुरक्षा चौकी थी! जंहा पर 36 वीं सिख रेजिमेंट के 21 जवान तैनात थे! यह जानकर हमें सुख की अनुभूति होना चाहिए कि ये सभी जवान माझा क्षेत्र के रहने वाले थे और सभी केशधारी सिख थे! 36 वीं सिख रेजिमेंट में केवल केशधारी सिखों की ही भर्ती की जाती थी! यह पूरा का पूरा बटालियन ही केशधारी सिखों का था!

ग्रीक स्पार्टा और परसियन की लड़ाई पर अब तक 300 जैसी फिल्म भी बनी है, लेकिन सारागढ़ी के बारे में आप नहीं जानते होंगे! हमारी पीढ़ी को इसकी कोई जानकारी ही नहीं है क्योंकि हमारी पीढ़ी को इस बात की जानकारी दी ही नहीं गयी! हम इस महान युद्ध को इसलिए नहीं पढ़ते हैं कि वह हमारे स्वाभिमान को जगाती है और इस देश में स्वतंत्रता के बाद से बौद्धिक क्षेत्र में एक खास प्रकार का षड़यंत्र प्रारंभ कर दिया गया, जिससे देश का स्वाभिमान खड़ा नहीं हो पाया और हम इस प्रकार के इतिहास से परिचित नहीं हो पाये!

सरागढ़ी’ पश्चिमोत्तर भाग में स्थित हिंदुकुश पर्वतमाला की समान श्रृंखला पर स्थित एक छोटा सा गाँव है, लगभग 118 साल पहले हुई एक जंग में सिख सैनिकों के अतुल्य पराक्रम ने इस गाँव को दुनिया के नक़्शे में ‘महान भूमि’ के रूप में चिन्हित कर दिया! ब्रिटिश शासनकाल में 36 सिख रेजीमेंट जो की ‘वीरता का पर्याय’ मानी जाती थी,’सरगढ़ी’ चौकी पर तैनात थी! यह चौकी रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण गुलिस्तान और लाकहार्ट के किले के बीच में स्थित था! यह चौकी इन दोनों किलों के बीच एक कम्यूनिकेशन नेटवर्क का काम करती थी! ब्रिटिश इंटेलीजेंस स्थानीय कबीलायी विद्रोहियों की बगावत को भाँप न सके! सितम्बर 1897 में आफरीदी और अफगानों ने हाँथ मिला लिया!

अगस्त के अंतिम हफ्ते से 11 सितम्बर के बीच इन विद्रोहियों ने असंगठित रूप से किले पर दर्जनों हमले किये, परन्तु सिख वीरों ने उनके सारे आक्रमण विफल कर दिए! 12 सितम्बर की सुबह करीब 12 से 15 हजार पश्तूनों ने लाकहार्ट के किले को चारों और से घेर लिया! हमले की शुरुआत होते ही सिग्नल इंचार्ज ‘गुरुमुख सिंह’ ने ले. क. जॉन होफ्टन को हेलोग्राफ पर यथास्थिती का ब्योरा दिया, परन्तु किले तक तुरंत सहायता पहुँचाना काफी मुश्किल था!

मदद की उम्मीद लगभग टूट चुकी थी, लांस नायक लाभ सिंह और भगवान सिंह ने गोली चलाना शुरू कर दिया! हजारों की संख्या में आये पश्तूनों की गोली का पहला शिकार बनें भगवान सिंह, जो की मुख्य द्वार पर दुश्मन को रोक रहे थे! उधर सिखों के हौंसले से पश्तूनों के कैम्प में हड़कंप मचा था, उन्हें ऐसा लगा मानो कोई बड़ी सेना अभी भी किले के अन्दर है! उन्होंने किले पर कब्जा करने के लिए दीवार तोड़ने की दो असफल कोशिशें की! हवलदार इशर सिंह ने नेतृत्व संभालते हुए, अपनी टोली के साथ “जो बोले सो निहाल,सत श्री अकाल” का नारा लगाया और दुश्मन पर झपट पड़े हाथापाई मे 20 से अधिक पठानों को मौत के घात उतार दिया! गुरमुख सिंह ने अंग्रेज अधिकारी से कहा, "हम भले ही संख्या में कम हो रहे हैं, पर अब हमारी हाँथों में 2-2 बंदूकें हो गयी हैं हम आख़िरी साँस तक लड़ेंगे”, इतना कह कर वह भी जंग में कूद पड़े!
पश्तूनों से लड़ते-लड़ते सुबह से रात हो गयी और अंततोगत्वा सभी 21 रणबाँकुरे शहीद हो गए! जीते जी उन्होंने उस विशाल फ़ौज के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया!

12 सितम्बर 1897  को सिखलैंड़ की धरती पर हुआ यह युद्ध दुनिया की पांच महानतम लड़ाइयों में शामिल हो गया! एक तरफ 12 हजार अफगान थे तो दूसरी तरफ 21 सिख सरदार! यहां बड़ी भीषण लड़ाई हुयी और 1400 अफगानी सिपाही उस युद्ध में मारे गये! अफगानियों को भारी नुकसान सहना पड़ा लेकिन वे किले को फतह नहीं कर पाये! सिख जवान आखिरी सांस तक लड़े और इन किले को बचा लिया! वे सारे के सारे वीरगति को प्रप्त हुए! अफगानियों की हार हुई! जब ये खबर यूरोप पंहुची तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी! ब्रिटेन की संसद मेँ सभी ने खड़ा होकर इन 21 वीरों की बहादुरी को सलाम किया! इन सभी को मरणोपरांत इंड़ियन आर्ड़र ऑफ़ मेरिट दिया गया! जो आज के परमवीर चक्र के बराबर था! भारत के सैन्य इतिहास का ये युद्ध के दौरान सैनिकोँ द्वारा लिया गया सबसे विचित्र अंतिम फैसला था! इस लड़ाई को अपनी 8 महानतम लड़ाइयोँ मेँ शामिल किया! इस लड़ाई के आगे स्पार्टन्स की बहादुरी फीकी पड़ गयी! पर अफ़सोस होता है कि जो बात हर भारतीय को पता होनी चाहिए, उसके बारे में कम लोग ही जानते है! ये लड़ाई यूरोप के स्कूलोँ मेँ पढ़ाई जाती है पर हमारे यंहा लोग जानते तक नहीँ!


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