Shivani Yaduvanshi

Tragedy

3.7  

Shivani Yaduvanshi

Tragedy

रैन बसेरा

रैन बसेरा

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आज वही शाम थी, मौसम में वैसी ही हल्की तपन, हल्की छांव के साथ काले बादल | मिटटी में आज वैसी ही खुशबू आ रही थी, जैसे वो बस यहीं, यहीं कहीं आस पास हो। कुछ पुरानी यादों को सोचते हुए रुद्रप्रताप की आँखे नम सी थीं | वो सोच रहा था हर उस लम्हे के बारे में जब वो बस आज की तरह कोई बड़ा ठाकुर, गांव का मुखिया नहीं बनना चाहता था, वो तो बस एक कलाप्रेमी था, रंगीन रंगो से वो बस अपनी ही दुनिया में खोया रहता था ।अपनी कलम से जैसे वो बदल देना चाहता था अपनी ही पहचान"रुद्रप्रताप सिंह ठाकुर" उर्फ छोटे ठाकुर ।


अचानक से बहार से किसी के चिल्लाने की आवाज आई, छोटे ठाकुर छोटे ठाकुर, जल्दी चलिये वह रामफल माली अपनी नवजात लड़की को मारने के लिए नदी किनारे भागा जा रहा है । ये सुन कर छोटे ठाकुर गुस्से से तिलमिलाए और अपनी छड़ी और गमछा लेकर नदी की ओर चल पड़े । वहां रामफल अपनी पाँचवी नवजात लड़की को भगवान् के पास पहुँचने की तयारी में था ।


छोटे ठाकुर गुस्से से चिल्लाये - "रामफल, तुम्हें ये घिनौना काम करने में ज़रा भी शर्म नही आई अगर औलाद पालना नही हैं तो पैदा ही क्यों करते हो ।" राम फल गिड़गिड़ाते हुए बोला "मलिक मैं तो बस अपना वंश आगे बढ़ाना चाहता था | बस एक छोरा पैदा हो जाये तो मुझे मोक्ष मिल जाये ।छोटे ठाकुर ने बच्ची को हाथ से छीनते हुए कहा अगर हर लड़का पैदा करने वाले को मोक्ष मिल जाता और वो सारे पापों से गंगा नहा लेता तो क्या बात थी ।

अगर ये बेटियां, देवी इस धरती पर न होतीं तो बेटा कहाँ से लाते रामफल | ये धरती बंजर हो जाती, बिलकुल वैसे जैसे बारिश न होने से होती है।" अब छोटे ठाकुर की आवाज में गुस्से के साथ साथ हताशा और परेशानी ज्यादा थी।

"मैं कितना समझाऊ तुम लोगों को, कि हमारे कर्म ही पुण्य और पाप सिखाते हैं, और ये मासूम बच्चियां देवी माँ का रूप होती हैं इनकी इज्जत करना सीखो।" ये कहते हुए उन्होंने उस बच्ची की आँखों को देखा, वो बिलकुल वैसी ही थी जैसे बरसों पहले उन्होंने अपने ख्वाबों में देखी थीं, वो ख़्वाब जो कभी सच तो नहीं हुआ पर, छोटे ठाकुर को आज भी ज़िंदा रखा हुआ है | इस उम्मीद के साथ की एक दिन वो सच जरूर होगा |


छोटे ठाकुर ने उस बच्ची के माथे को चूमा और उसे अपने साथ अपने आश्रम ले आये |"रैन बसैरा" ।


ये उनकी हवेली के पीछे खाली पड़े बागान में बनाया हुआ एक घर था जो बेसहारा लड़कियों के लिए आशियाना था । पेशे से वकील और आत्मा से एक चित्रकार थे छोटे ठाकुर। उम्र के साथ साथ माथे पर कुछ झुर्रियां आ गई थी, चश्मे में आँखों की चमक दिखाई नहीं देती थी पर हाँ आवाज में आज भी वही आत्मविश्वाश था दुनिया से लड़ने का और उसे बदलने का ।


ये सारी बातें उस समय की है जब हमारा देश बस अंग्रेज़ो से आज़ाद हुआ ही था पर गाँव,कस्बो में आज भी ठाकुरों का बोलबाला था । उन्हीं के नाम पर पूरा गाँव चलता था।लड़कियाँ चूल्हा चौका करने और बच्चे पैदा करने की मशीनें समझी जाती थी, और अगर किसी गरीब के घर पैदा हुई हो तो मनोरंजन का साधन। इन सब में छोटे ठाकुर कुछ अलग सोचते थे और उनकी ये सोच न उनके पिताजी को समझ आती थी न उनके बड़े भाइयों को। और इसी के चलते १३ साल की उम्र में ही उन्हें शहर भेज दिया गया. कितना रोये थे वो, माँ को छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे,कितना मजाक बनाया था उनके बड़े भाइयो ने उनका।


अचानक उस बच्ची के रोने की आवाज से छोटे ठाकुर पुरानी यादों से बाहर निकल आये,उस बच्ची को गोद में उठाया और उससे बातें करने लगे। वो कब उनकी गोद में सो गई उन्हें पता ही नहीं चला और आज उन्हें अपने अकेले होने का अहसास और ज्यादा होने लाग।इन्ही सब को सोचते हुए वो ३० साल पुरानी यादो में फिर से डूब गए । अपने बापूजी की हवेली जहाँ वो पैदा हुए बड़े हुए,दाई माँ की कहानियां, माँ का प्यार,सब कुछ, और वो दिन जब वो अपने ख्वाब से मिले थे ।यहीं बड़ी नदी के तट पर, बड़ी बड़ी मृगनयनी जैसी आँखे, माथे पर काली बिंदी शायद बचपन में ही गुदवादी गई थी, सफ़ेद सालवार कमीज, हाथों में पूजा के फूल और सफ़ेद चाँदनी जैसी चमक वाला चेहरा। कोई साज श्रृंगार नहीं फिर भी मनमोहनी थी वो ।


सुबह का पहला पहर था, और वो नदी के तट पर आंखें बंद किए कुछ मांग रही थी। छोटे ठाकुर जैसे मोह लिए हों,उनकी आंखें उसे ही देखे जा रही थी और अपनी कलम से वह उसकी तस्वीर बना रहे थे. वो सपनों में आने वाली बिल्कुल परी जैसी थी। अपनी पेंटिंग पूरी करके जैसे ही छोटे ठाकुर ने सर ऊपर किया वो वहाँ नहीं थी। उन्होंने चारों तरफ नजरें दौड़ाई पर वो वहां नहीं दिखी |


दिनभर उसी के बारे में सोचते रहे वो। दूसरे दिन ठीक उसी समय फिर नदी किनारे जाकर बैठ गए, इस बार भी वो वहां आई। ऐसा सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। एक दिन सोमवार का दिन था, वह पूरी हिम्मत जुटाकर उसे पुकार बैठे- "सुनो - सुनो",उसने पलट कर देखा, तो रुद्र बोल पड़ा, "हाँ तुम, तुम्हीं से बात कर रहा हूं", घबराहट इतनी हो रही थी जैसे दिल सीने से भागकर आज ही बाहर निकल जाएगा,उसने धीरे से स्वर में कहा-"जी बोलिए"। रूद्र फिर बोला, "मैं.. मैं.. मैं..", वह बोल पड़ी, "क्या मैं मैं मैं...", और खिलखिला कर हंस पड़ी, मैं भी हंस दिया और बोला, "मैंने आप की कुछ तस्वीरें बनाई है"| वो पहले थोड़ा चौकीं,और फिर खुश होकर बोली- "क्या ! मेरी तस्वीरें, दिखाइए दिखाइए मुझे देखनी है"| मैंने वो तस्वीरें उसके हाथों में रख दे वो खुशी से उन्हें अलट पलट कर देखने लगी उसका चेहरा लाल हुआ जा रहा था, आंखें बड़ी बड़ी हो गई थीं ।


उसने उत्सुकता से पूछा - "आप कौन हैं ? मैंने आपको पहले यहां नहीं देखा", मैंने कहा, "क्या हम यहीं बैठ सकते हैं, मैं आपको अपने बारे में सब बता दूंगा" | पहले वो थोड़ी चौंकी फिर कहा, "हाँ, एक शर्त पर कि आपको यह सारी तस्वीरें मुझे देनी होंगी" | उसके मासूम चेहरे पर मुझे प्यार आया और मैंने मुस्कुराते हुए कहा, "हां हां क्यों नहीं"।

वो वहीं बैठ गई और बोली "अब बताइए आप कौन हैं?", मैंने कहा मेरा नाम रुद्र है, मैं यहां छुट्टियां मनाने आया हूँ, शहर में पढ़ता हूँ |

और इससे पहले मैं कुछ और कहता वह बोल पड़ी, "शहर ! वो तो बहुत बड़ा होगा, बड़ी-बड़ी इमारतें, मोटर गाड़ियां होती है वहां,बहुत रंगीन कपड़े, चूड़ियां और सब कुछ मिलता है। एक दिन मैं भी शहर जाऊंगी, बचपन का सपना है मेरा शहर जाकर लाल रंग की बिंदिया, चूड़ियां, गहने और साड़ियां लाऊंगी”, और फिर इधर-उधर की बातें,समय पंख लगा कर उड़ गया। वह अचानक बोली, "अच्छा अब मुझे जाना होगा, दादा ठाकुर की लकड़ी की खदान पर काम करती हूँ, वो लोग बड़े लोग हैं, देरी से गए तो नौकरी से निकाल देंगे" कहते हुए वह दौड़ गई।


दूसरी सुबह हम फिर से मिले और ऐसे ही मिलते रहे,उससे बातें करना उसके साथ वक्त बिताना मुझे अच्छा लगता था। पसंद तो वो मुझे पहले से ही थी पर अब शायद मैं उससे प्यार करने लगा था ।प्यार,प्रेम, इश्क कितने ही रूप और नाम होते हैं इसके, पर मतलब सिर्फ एक, वो है किसी की खुशी और उसकी खुशियों के लिए सब कुछ कर देना। वक्त बीता रहा था ,एक दिन वह नीले रंग के सलवार कमीज में आई, कुछ अनोखा था आज, उसने अपनी आंखों में काजल लगा रखा था, बाल खुले हुए थे, उफ़ कयामत की खूबसूरत लग रही थी,


मैंने कहा - "हम इतने दिन से मिलते रहे पर तुमने कभी अपना नाम नहीं बताया?"


,उसने इशारे से चुप होने को कहा आंखें बंद की और रोज की तरह फूलों को नदी में बहा दिया। फिर हंसते हुए बोली, "रूद्र बाबू, रैना नाम है मेरा रैना - रात ख्वाबों वाली रात " ये सुनकर वो हँस दी, फिर मैंने पूछा, "आज क्या है?" तो उसने कहा, "आज शिवरात्रि है, शिव जी का दिन"।


मैंने फिर पूछा, "तुम मानती हो उन्हें ?",

"बहुत ! " उसने अपने बाल सवार हुए कहा, "माँ कहती हैं कि उनकी पूजा करने से उन्हीं के रूप वाला पति मुझे मिलेगा"।

मैं मुस्कुराया और बोला, "अच्छा, तो मेरा नाम भी तो रुद्र है शिवजी का पर्यायवाची",और हँस दिया। आज बातों बातों में जैसे मैंने अपनी मन की बात कह दी उससे। वो थोड़ी सकपकाई, फिर शरमा कर बोली - "हूँ, इसलिए ही तो आज इतना सज कर आई हूँ", और शरमा कर भाग गई वहाँ से।


वो रात काटे से भी नहीं कट रही थी, रात भर मैं उसके बारे में सोचता रहा। सुबह जल्दी उठकर नदी किनारे गया पर वो आज वहां नहीं आई। आज मैं उससे अपने प्यार का इजहार करने वाला था, और उसे बताने वाला था मैं कौन हूँ।दूसरे दिन भी वो नहीं आई, तीसरे दिन भी नहीं आई,ऐसे करते करते 2 सप्ताह बीत गए।


एक दिन दोपहर को अचानक पिताजी के चिल्लाने की आवाज आई, "सुलेखा - सुलेखा",मां और मैं नीचे आए तो पिताजी बोले - "लो, एक नई काम करने वाली लेकर आया हूं, अब से ये यहीं रहेगी पूरी उम्र, गुलाम है हमारी, इसके भाई और बाप ने हमसे २००० रुपए नगद लिए थे, 7 साल से चुकाए नहीं हैं, इसलिए हम इसे ले आए हैं। तुम हमेशा कहती हो ना कि काम करने वाला कोई नहीं है, अब इससे करवा लेना", कहकर पिता जी अपनी कुर्सी पर बैठ गए। मेरे पांव तले जमीन खिसक गई, सर पर आसमान गिर पड़ा, लगा जैसे मेरे हाथों से मेरा ही दिल टूट कर गिर गया हो । सामने रैना खड़ी थी, सूजी आंखें, डरी हुई। दाई माँ उसे अपने कमरे में ले कर चली गई और माँ गुस्से से बुदबुदाती हुई रसोई घर में चली गई।

मैं हमेशा ही पिताजी से डरता था, उनसे कभी कुछ पूछने की हिम्मत मेरी नहीं हुई, इसलिए आज भी कुछ नहीं पूछ पाया, पर मां से जाकर बोला - "ये सब क्या है माँ ", माँ आंखों से आंसू पहुंचते हुए बोली - "तेरे बाप की नई रखैल है"।मैं गुस्से से तमतमाया और चिल्लाया -"कुछ भी मत कहो" और मैं जाकर बापू जी के सामने खड़ा हो गया। "यह सब क्या है पिताजी, क्यों लाए हैं इसे आप, अभी इसी वक्त इसे जाने दीजिए, मैं इस घर में यह सब कुछ नहीं होने दूंगा",


पिताजी ने हँसकर कहा, "छोटे बबुआ, ज़बान उतनी ही खोलो, जितनी जरूरत है, वरना तुम्हें पता है न, कि तुम्हारा खाल शरीर से उतारते हुए हमें देर नहीं लगेगी"। मैं अभी भी वहीं खड़ा था हमारे बीच शब्दों का युद्ध होता रहा,तभी अचानक माँ आई और खींच कर तमाचा मेरे मुंह पर रख दिया। मैं गुस्से में चिल्लाता हुआ अंदर चला गया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि एक पल में मेरा ख्वाब कैसे टूट गया।

पर घर में सब कुछ शांत सा था, एक दिन मैंने बरामदे में काम करते हुए रैना से पूछा और इस बार उसने अपने सर पर दुपट्टा रखते हुए कहा - "हाँ ! बोलिए छोटे ठाकुर साहब", बस लगा जैसे जवाब मिल गया मुझे, आज उसने मुझे रुद्र नहीं छोटे ठाकुर बना दिया।


वक्त बीत रहा था और उसकी आंखों में मेरे लिए अजनबीपन। उसके आए हुए कुछ महीने बीत गए। एक रात अचानक चीखने और चिल्लाने की आवाजें आने लगी।

मैं जल्दी से नीचे उतरा तो रैना अपने कमरे से भाग कर बरामदे में आ गई थी। बेहाल फटे कपड़े, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, मैं अपने कमरे से बरामदे तक आता। तब तक मां ने पिता जी के डर से बरामदे में आने का दरवाजा बंद कर दिया। मैं चिल्लाता रहा और पिताजी अपने साथ रैना को खींचकर ले गए।

मैं अभी भी कमरे में चिल्लाता ही रहा था, और बाहरर रैना चिल्ला रही थी - "रुद्र,रुद्र बचा लो मुझे", और फिर ये आवाजें थप्प से बंद हो गई। मैं कमरे के दरवाजे तोड़ने लगा,मेरा खून खौल गया था। बाहर आते ही मैंने बरामदे में पड़ी कुल्हाड़ी उठाई और बंद दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ा। जब वहां पहुंचा तो मेरा सपना, मेरा ख्वाब टूट चुका था। मैं वहीं थक कर बैठ गया, मेरा ख्वाब मेरे ही अपनों ने मुझ से छीन लिया था। मैंने गुस्से में कुल्हाड़ी पिताजी की ओर उठाई पर बीच में माँ आ गई।


मैंने रैना को उठाया, हाथ पकड़ा और वहां से निकल गया। वह रात अमावस की रात बन गई, वो कुछ ना बोली और मैं भी खामोश रहा। सुबह होने तक दोनों उसी नदी पर बैठे रहे,आधे बेहोश आधे होश में।

मैंने रैना से कहा - "चलो शहर चलते हैं",

वो बोली, "आज मैं क्या कहूं आपको, छोटे ठाकुर या 'रूद्र ' ", उसकी आंखों में मेरे लिए लाखों सवाल थे और मेरे पास सिर्फ एक जगह जवाब, "मैं बहुत मोहब्बत करता हूं तुमसे रैना " वो मुस्कुराई, आंखों की कोर में आंसू थे उसके, फिर बोली - "जब इस प्यार की जरूरत थी मुझे,तब तुम छोटे ठाकुर थे रुद्र, और आज मेरे पास कुछ नहीं है" ।

मैंने कहा- " मैं सब कुछ लाकर दूंगा तुम्हें", वो फिर हंसी और बोली - "देना चाहते हो, तो एक नई जिंदगी दे दो इस गांव को,यहां की लड़कियों को,मैं सोच लूंगी तुमने मुझे जिंदगी दे दी,दूसरी जिंदगी " ।


फिर उसने अकेले ही इस गांव से चले जाने की बात कही मुझसे, मैंने अपने पास से चंद रुपए और शहर जाने की रेलगाड़ी का टिकट उसके हाथ में थमा दिया,अपने एक दोस्त का पता भी दे दिया। आज पहली बार मैंने उसके हाथ को थामा था, एक वादे के साथ कि इस गांव की शक्ल बदल दूंगा मैं। और जब तक उसका खत ना आएगा तब तक उसे कभी नहीं मिलूंगा।


गाड़ी जाते जाते उसके हाथों से मेरा हाथ छूटने लगा,मैं उसे जाते हुए देख रहा था, अपने ही ख़्वाब को जाते हुए देख रहा था। आज 30 साल बाद भी उसकी वह छुअन, खुशबू मेरे हाथों में है, एक वादे के साथ।


आज इस गांव में लड़कियों के लिए एक आश्रम हैं जो उनका घर हैं, जहाँ उन्हें पढ़ाया जाता है, सहारा दिया जाता है और हां ! मैं "छोटे ठाकुर - रैन बसेरा वाला" जो गांव की रैना के लिए एक नई सवेरा लेकर आएगा ।


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