रावणत्व के खिलाफ
रावणत्व के खिलाफ
अधर्म पर धर्म की विजय कह कर हर साल की तरह इस बार भी हम सबने मार डाला नकली रावण और झाड़ लिए अपने हाथ।
न जाने कब से ढोए जा रहे हैं हम परंपराओं को आदतन, मजबूरन या तफरीहन।
साल भर जो कराता है अत्याचार, अनाचार और भ्रष्टाचार का रावण।
हमारे मानवीय मूल्यों को गाजर मूली की तरह चबाता हुआ।
दरअसल हमारी लापरवाही और निहित स्वार्थों के चलते अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी का फायदा उठाता हुआ हमारी आस्था और विश्वास के साथ मुँह जोरी करता हुआ अट्टहास करता है हमारे ही भीतर बैठा रावण। जिसे मारने की हिम्मत चूक चुकी है हममें भी तुममें भी।
वस्तुतः हम लड़ना ही नहीं चाहते हैं बल्कि नाटक करते हैं लड़ने का क्योंकि यह रावणत्वपोषक भी तो है हमारी सुख-सुविधाओं का।
इसलिए लाख मौखिक निंदा के बावजूद हम संजोए रखना चाहते हैं उसे अपने भीतर। जबकि- मर्यादा पुरुषोत्तम राम बने बग़ैर रावण को मारना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
इसलिए आइए संकल्पित हों कि हम पैदा करेंगे ऊर्जा अपने भीतर इस रावणत्व के ख़िलाफ़ जो दुश्मन है हमारी सांस्कृतिक धरोहर का।
सच तो यह है कि अब लड़ना ही होगा रावणत्व के ख़िलाफ़।
