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Mehrin Ahmad

Action Inspirational

4  

Mehrin Ahmad

Action Inspirational

रानी लक्ष्मीबाई - जीवनी

रानी लक्ष्मीबाई - जीवनी

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सार

 रानी लक्ष्मीबाई बुद्धिमान, दयालु और मजबूत व्यक्तित्व की एक सक्षम शासक थी I वह अपने लोगों के लिए माँ जैसी और अपने दुश्मनों के लिए चंडी माँ जैसी थी I इन्हीं गुणों की वजह से वह झाँसी की रानी बनी और अपनी प्रजा के दिलो दिमाग में जगह बनाने में सक्षम रही I विधवा रानी के जीवन के रास्ते पर लगातार परेशानियों की दीवार आ खड़ी हुई जिनसे  वह घबरा के पीछे हटने की जगह उन दीवारों को अपनी वीरता और आत्मविश्वास से पार करती रही I अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई के राज्य पर कब्ज़ा कर लिया, उनके राजनितिक अधिकारों को छीन लिया और उन्हें अपमानित किया मगर उन्होंने बहादुरी से विदेशी शक्ति का मुकाबला किया और एक नायिका के रूप में धरती माँ के चरणों में अपनी प्राणों की आहुति दे गयी I  


चलिए मैं आपको इतिहास के उन पन्नों से रूबरू कराती हूँ जिस समय सोने की चिड़िया जैसा हमारा भारत, गुलामी के पिंजरे में कैद था I इसी पिंजरे को तोड़ आज़ादी के लिए प्राण की आहुति देने वाली वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई उर्फ़ उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका और प्यार से मनु पुकारे जाने वाली का जन्म 19 नवम्बर 1828 ई० वाराणसी के अस्सी घाट में एक गरीब ब्राह्मण पुजारी के यहाँ पेशवा बाजी राव द्वितीय की सेवा में हुआ I इनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और माता का नाम भागीरथी साप्रे था जिनका देहांत दुर्भाग्यवश हो गया और तीन या चार साल की मणिकर्णिका के सर से माँ के आचँल का साया छिन गया I माँ की मृत्यु के बाद मनु पिता के साथ बिठूर आ गयी I वह बड़ी हुई एक अपदस्थ धनि शासक बाजी राव II के महल में जो ब्रह्मावार्ता में स्थ्ति था I बालिग़ मणिकर्णिका बहुत ही आकर्षक और काफी सक्षम थी अपनी मनमोहक छवि उन पर छोड़ने पर जिस किसी से भी वह मिला करती थी I होशियार, जिंदादिल, ज़हीन और बेमिसाल खूबसूरती की, जिंदादिली उनके लहू में मिश्री की तरह घुलकर इस कदर बहती थी की बजी राव II प्यार से उन्हें छबीली पुकारा करते थे I कद उचा, शारीर पतला, रंग दूध जैसा सफ़ेद, चेहरा गोल, पेशानी चौरी और सूरज का एक चौकोर टुकड़ा था जो बहुत चमकता था, आँखें बड़ी और कमल के पत्तो की तरह गोल, नाक लम्बी और नाज़ुक, उनके कान उनके चेहरे की खूबसूरती बढ़ाते थे, आवाज़ बहुत तीखी और उनके आकर्षक व्यक्तित्व से काफी अलग थी I बाजी राव II की कोई अपनी वारिस न होने के कारण उन्होंने तीन पुत्र एवं तीन पुत्रियाँ अपने भट परिवार के रिश्तेदारों से गोद लिया परन्तु मनु उनकी सबसे पसंदीदा और उनके आँखों का तारा थी और वह उन्हें अपनी बेटी की तरह समझते थे I जिस तरह की तालीम बाजी राव के गोद लिए बच्चों को मिली, मणिकर्णिका को भी उसकी प्राप्ति हुई I उनके साथ उन्होंने पढ़ना, लिखना और मार्शल आर्ट्स के ज्ञान में महारत हासिल की I जब बाजी राव II पुणे से ब्रह्मवार्ता आए तब काफी अदालत के अधिकारी, विभिन्न कलाकार और पुरुष भी आए I ब्रह्मवार्ता में इन लोगों ने बच्चों को कई कला और विज्ञान पढ़ाया जैसे घुड़सवारी, तलवारबाजी, बंदूके, पिस्तौल और खंज़र का उपयोग करना भी सिखाया I इन छेत्रों में निपुर्णता हासिल कि और बालकों से भी अधिक सामर्थ दिखाया I उस समय पुरे भारत में ये मशहूर था कि दक्षिण भारत में केवल तीन लोग घोड़े का मूल्यांकन करना जानते थे – नाना साहेब, जयाजी महाराज सिंधिया और रानी लक्ष्मीबाई I एक बार की बात है जब एक व्यापारी अपने दो घोड़ो को बेचने के सिलसिले में झाँसी आया तब रानी ने दोनों घोड़े की सवारी की और एक घोड़े के लिए बारह सौ और दूसरे के लिए पचास रुपये देने की बात की क्यूंकि बाद वाले के फेफड़ों में परेशानी थी I इस घटना को देख व्यापारी अचंभित हुआ कि आखिरकार रानी ने यह कैसे जाना कि दूसरे घोड़े के फेफड़े इतने मजबूत नहीं है और वह तेज़ दौड़ने में असमर्थ है I उन्होंने मल्लाखाम्बा में भी तालीम हासिल की जो भारतीय शैली की एक कसरत है जिसे खड़ी लकड़ी के खम्बे पर प्रदर्शित किया जाता है I हालाँकि गुड़ियों के साथ खेलने या घरेलू कौशल सीखने के बजाय उन्होंने व्यायामशाला में व्यायाम किया और मार्शल आर्ट सीखी I इसके अलावा उन्होंने इन छेत्रों में काफी काबिलीयत दिखाई I वह साफ़ तौर पर गैर मामूली और हिम्मत व कूवत से कूट कूट कर भरी हुई थी I एक बार की बात है नाना साहेब शहर की भ्रमण के लिए हाथी से निकलने वाले थे और मनु भी उनके साथ आना चाहती थी I नाना साहेब ने उन्हें मना कर दिया लेकिन मनु ने जिद पकड़ ली I मोरोपंत दो बच्चों के बीच की लड़ाई से थक गए और उन्होंने मनु को डांट लगायी I मोरोपंत नाना साहेब से कुछ भी कहने में असमर्थ थे क्यूंकि वह ना केवल पेशवा के पुत्र थे बल्कि मनु से बड़े भी थे I मोरोपंत ने मनु को डांट लगाते हुआ बोला की जिद मत करो, हाथी की सवारी करना आपका भाग्य नहीं है I समाज के बंधनों से बंधी फिर भी विचारों से आज़ाद मनु ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, बाबा एक हाथी तो क्या हमारे किस्मत में तो दस - दस हाथियाँ है I

साल गुजरे और मणिकर्णिका किशोरावस्था में दाखिल हो गयी, उस समय लड़कियों की शादी आठ या दस साल की आयु में होने की रीती रिवाज़ थी और लोगों का मानना था कि यौवन से पहले अगर किसी लड़की की शादी नहीं हुई तो उसके पूर्वजों की बयालीस पीढ़ी नर्क में जाएगी I इसी बात की चिंता मोरोपंत को भीतर ही भीतर काट खा रही थी I आख़िरकार मोरोपंत के सर से परेशानियों के काले घने बादल हट गए और सूरज की रौशनी के तरह बाजी राव II ने गंगाधर राव नेवालकर का रिश्ता अपनी छबीली के लिए लाया I गंगाधर राव, उत्तर भारत में स्तिथ झाँसी जो पुष्पावती और वेत्रावती नदियों के बीच बसा है, उसके राजा थे I झाँसी में बनी धातु की मूर्तियाँ, बुंदेलखंड शैली में चित्र, रेशमी कपड़े और कालीन भी मशहूर थे I गंगाधर राव शिव राव भाऊ के पुत्र और रघुनाथ हरी नेवालकर (जो मराठा शासन के तहत झाँसी के पहले राज्यपाल थे) के वंशज थे I जिस छन गंगाधर राव ने सत्ता की बागडोर संभाली, इन्होन पुस्तकालय के संग साहित्य और कला के विभिन्न रूपों को बढ़ाया, यह अफवाह थी कि वह अक्सर एक महिला के रूप में तैयार होकर खुद को महंगी और रंग - बिरंगे साड़ियों में लपेटते और शाही घराने की महिलाओं के जेवर पहना करते थे I अपने बालों को बांधते और गुलाब से सजाते थे I वह महिलओं द्वारा निभाए जाने वाली सारी रस्में समेत तीन दिन एकांत रहने के रस्म ( यह हिन्दुओं के बीच एक सदियों पुरानी प्रथा है कि महिलाएँ मासिक धर्म के वक़्त तीन दिनों तक दूर रहती है और चौथें दिन स्नान करती है, आज के समय में ये प्रथा कई परिवारों से विलुप्त हो चुकी है ) को निभाते थे I वर और वधु के बीच उम्र का बड़ा अंतर था, मनु लगभग तेरह या चौदह वर्ष की थी और गंगाधर राव की उम्र चालीस से बयालीस वर्ष की थी I मनु ने शादी के काबिल उम्र की देहलीज़ पार कर ली थी और गंगाधर राव एक दागी प्रतिष्ट विधुर थे I हालाँकि दोनों एक ही जाती के थे लेकिन उनकी सामाजिक स्तिथि में काफी फर्क था फिर भी, दोनों के पास इस तरह के विवाह प्रस्ताव को स्वीकार करने के कारण थे I सन 1842 में मणिकर्णिका ताम्बे की शादी झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से हुई और काशी की कन्या झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गयी I शादी काफी धूम धाम से मनाई गयी, फेरों के वक़्त जब गठबंधन किया गया तब मनु ने पुजारी से गाठ को लोहे जैसी मजबूती से बाँधने की इच्छा ज़ाहिर की, तौफे के तौर पे गंगाधर राव ने अपनी पत्नी को पूर्ण रूप से जेवर से सजे दस हाथी दिए, मनु के मुख से अपने पिता को निकले हुए शब्द मानो सुनहरे सियाही के कलम से उनके किस्मत के लकीरों पर लिखा गए थेI परंपरा का पालन करते हुए लक्ष्मीबाई ने संक्रांति और जात्रा गौरी के महिलाओं के त्योहारों को धूमधाम और समारोह के साथ मनाना शुरू कर दिया I झांसी में सभी महिलओं को बिना भेद - भाव किये उत्सव के लिए आमंत्रित किया जाता था I वह हर मंगलवार और शुक्रवार को पालकी से महालक्ष्मी मंदिर जाती थी I राज्य में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगी और इस वजह से लोग काफी आनंदित हो उठे I झाँसी में मृत्युदंड को समाप्त करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी और उनके दयालू स्वभाव ने गंगाधर राव के पत्थर दिल को पिघला दिया I उनकी उपस्थिति से झांसी की शोभा बढ़ गयी I शादी के बाद लक्ष्मीबाई ने नियमित रूप से घुड़सवारी और तलवारबाजी का अभ्यास ज़ारी रखा जो उन्होंने घर पर सीखा था और रोजाना आमोद बाग में अभ्यास करती थी जो किले के पीछे था I उन्होंने स्त्रियों की सेना का भी संगठन किया, यह देख गंगाधर राव काफी प्रसन्न हुए I वह झाँसी दरबार में परदे के पीछे बैठती और दैनिक प्रशासन की कार्यवाही का पालन करती लेकिन गंगाधर राव को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने अदालत में आना बंद कर दिया I सन 1851 में लक्ष्मीबाई ने पुत्र को जन्म दिया, ख़ुशी इतर की खुशबू की तरह पूरे झाँसी में बहने लगी और सम्पूर्ण झाँसी आनंदित हो उठा I लोगों को रानी के लिए अधिक स्नेह महसूस हुआ क्यूंकि उन्होंने उन्हें भविष्य का राजा दिया था I हालाँकि किस्मत ने कुछ और तैय कर रखा था, जब बच्चा सिर्फ तीन महीनों का था तब उसकी मृत्यु हो जाती हैं I रानी लक्ष्मीबाई के सर पर मानो पूरा का पूरा पहाड़ टूट पड़ा हो, वह शीशे की तरह कई टुकड़ों में टूट सी गयी, गंगाधर राव भी इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके, पूरी झाँसी शोक के सागर में डूब गयी I इस सदमे के कारण गंगाधर राव बीमार रहने लगे, रानी लक्ष्मीबाई ने उपवास शुरू किया और अपने पति की देखभाल करने लगी I बलिदान, प्रार्थना और अनुष्ठान किये गए लेकिन राजा के स्वास्थ्य पर कोई फर्क नहीं पड़ा बल्कि यह और भी ख़राब हो गया I अब चिंता उन्हें दीमक की तरह अन्दर से खोखला करने लगा, उत्तराधिकारी के बिना राज्य उनके लिए एक भयानक स्वप्न की तरह था I इसी चिंता से मुक्त होने के लिए उन्होंने अपने प्रशासक को बुलाया और हिन्दू धर्मशास्त्र के तहत एक पुत्र को गोद लेने के अपने निर्णय की घोषणा की, सभी आमंत्रित अतिथियों और दो ब्रिटिश अधिकारियों ( मेजर एलिस और मेजर मार्टिन ) की उपस्थिति में उन्होंने ने अपने ही परिवार के पांच साल के एक बालक को गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया I

इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया I पुत्र गोद लेने के बाद दूसरे ही दिन, 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी I इनकी मृत्यु के बाद रानी लक्ष्मी बाई और सम्पूर्ण झाँसी दुःख के सागर में डूब गए और हर तरफ मौत का साया छा गया I क्या वह अपने पति की मृत्यु के बाद हिन्दू रीती- रिवाजों के अनुसार मुंडन करवाएगी और सभी अनुष्ठानों का पालन करेगी या अपना भाग्य खुद तय कर पायेगी ? उन्होंने फैसला किया कि वह अपना भाग्य खुद तय करेगी I गंगाधर राव की मृत्यु के तुरंत बाद रानी लक्ष्मीबाई ने किसी भी अनुष्ठान का पालन नहीं किया I उन्होंने दत्तक पुत्र के साथ राज पाट देखने का फैसला किया लेकिन अंग्रेज़ उनका राज्य छीन लेना चाहते थे I हालाँकि रानी ने जितने दिन भी शासन किया काफी सूझ बूझ के साथ किया और प्रजा के कल्याण के लिए काम करती रही और लोगों में खासी लोकप्रिय हो गयी I उनमे सहानुभूति और दया की भावना अपने लोगों के प्रति इस कदर थी कि वह हर रोज़ दान दिया करती और अपनी प्रजा का ठीक वैसा ख्याल रखती जैसे वो अपने बच्चे का रखती थी I इस बीच अंग्रेजों ने नागपुर, तंजावुर और सतारा जैसे मराठों के रियासतों को नष्ट कर दिया और ब्रिटिश कंपनी का हिस्सा बना लिया I अब उनकी नज़रें झाँसी पर थी I गंगाधर राव की मृत्यु के बाद झाँसी को भी निस्तोनाबुद करने के लिए लार्ड डलहौज़ी ( ब्रिटिश गवर्नर जनरल ऑफ़ इंडिया ) ने षडयंत्र रचा, डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स (अंग्रेजों की उस समय की नीति जिसके तहत जिस किसी भी राजा का उत्तराधिकारी नहीं होगा उसके राज्य को अंग्रेजों के अधीन कर दिया जायेगा ) का ऐसा जाल फेंका कि झाँसी उनके चंगुल में फस जाए I अंग्रेजों ने हड़प नीति के तहत दामोदर राव को झाँसी का वारिस मानने से इनकार कर दिया और राज्य – हरण का आदेश जारी किया I आदेश के मुताबिक झाँसी का शासक मेजर एलिस के अधीन कर दिया गया I 13 मार्च 1854 को रानी लक्ष्मीबाई को ये आदेश मिला, जिसको सुनने के बाद गुस्से और मायूसी का तूफ़ान उनके दिलो दिमाग में बहने लगा I उनके गुस्से की ज्वाला फट गयी और उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया “ में अपनी झाँसी नहीं दूंगी “ I रानी लक्ष्मीबाई और झाँसी के लोगों को उम्मीद थी कि अंग्रेज़ समय – समय पर मैत्री संधि के मुताबिक झाँसी द्वारा दी जाने वाली मदद को ध्यान में रखेंगे और दामोदर राव के गोद लेने को मान्यता देंगे I हालाँकि झाँसी के विलय की घोषणा होने पर लोगों को काफी दुःख हुआ और महसूस किया कि कंपनी ने उन्हें धोखा दिया है I शुरुआती दौर में लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के साथ बातचीत से मसला सुलझाने की कोशिश की लेकिन ऐसा करने में जब वह असमर्थ रही तो इस दलदल जैसे हालात से निकलने के लिए उन्होंने ने ऑस्ट्रेलियाई बैरिस्टर जॉन लैंग से सलाह मांगी I लैंग ने सलाह दी कि वह सीधे लन्दन में ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल में अपील करे और वह पेंशन लेना शुरू कर दे जिसे उन्होंने अब तक मना कर दिया था I हालाँकि कंपनी ने अपने वादों, संधियों, दोस्ती और कानून का सम्मान नहीं रखा I अंग्रेजों ने झाँसी को विलय करने का फैसला मजबूती से लागू किया और रानी को किले में अपना महल छोड़कर सिटी पैलेस रानी महल में जाना पड़ा I महल से विदा होते वक़्त उनके आत्मसम्मान को ऐसी चोट लगी और दर्द ऐसा महसूस हुआ जैसे हज़ारों खंजर उनके जिस्म के आर पार कर दिए गए हों I वह अपने महल से किले को हर रोज़ सुबह व शाम सूरज की किरणों से रोशन होते देखती और गुस्से का घोंट पीकर ये सोचा करती कि कुछ समय पहले वह उस किले के महल की रानी थी मगर अब विदेशियों ने उस पर कब्ज़ा कर लिया था और रानी को पेंशनभोगी की स्थिति में ला दिया था I वह अपने राज्य को फिर से हासिल करने की आग को हवा देती रही और एक हिन्दू ब्राह्मण की विधवा के रूप में रहने लगी I उनका दिन पूजा, प्रार्थना और दामोदर राव के पालन – पोषण और शिक्षा में व्यस्त होता था I रानी महल में जीवन बहुत दर्दनाक रहा I अंग्रेजों ने सभी सैनिकों और दरबारियों को सेवा से हटा दिया और मुट्ठी भर सैनिकों ने रानी महल की रखवाली की और रानी की सेवा में कुछ नौकर थे I वह इस उम्मीद को बरकरार रखती थी कि किसी दिन ब्रिटिश उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी के रूप में पहचान देंगे और वह दामोदर राव के बड़े होने तक झाँसी की शासक बनना चाहती थी I तब से तीन साल बीत चुके थे और रानी को ब्रिटिश नीति से अपमानित होना पड़ा, उन्हें लगा कि उनके मृत पति, उनके परिवार का अपमान किया गया और वह दर्द उनके साथ रहा I इसी मसले को हल करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने 1 अप्रैल 1857, विद्रोह के ठीक एक महीने और दस दिन पहले बानपुर के राजा मरदान सिंह को ख़त लिखकर अपनी ख्वाइश ज़ाहिर की, उन्होंने लिखा कि “ भारत हमारा देश है और विदेशियों के अधीन गुलामी में रहना सही नहीं है I हमें उनसे लड़ना चाहिए I मेरा मानना है की भारत पर विदेशियों का शासन नहीं होना चाहिए और मुझे खुद पर विश्वास है और अंग्रेजों से लड़ने के लिए एक बड़ी सेना तैयार कर रही हूँ “ I जब 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम के लिये सिपाहियों द्वारा विद्रोह की आग फैली तब रानी लक्ष्मीबाई अपने दुःख और बदले के आग की भावना में डूबी हुई थी I इसके बावजूद रानी ने अपने बदले की आग को शांत करने के लिए सिपाहियों के संग विद्रोह में हिस्सा नहीं लिया I इस विद्रोह के कई धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, और सैन्य कारण थे लेकिन जंगल की आग की तरह फैलने का तात्कालिक कारण धर्म था I सिपाहियों को गाय और सूअर की चर्बी से बनी चर्बी वाले कारतूस दिए गए और उस कारतूस को बन्दुक में लोड करने से पहले उसके आवरण को काटकर निकालना पड़ता था जो हिन्दू और इस्लाम धर्म के खिलाफ था I 10 मई को विद्रोह मेरठ से शुरू हुआ और पूरे उत्तर में फ़ैल गया, दक्षिण भारत भी इस आग में झुलसा I मेरठ में विद्रोहियों ने सारे अंग्रेजों को मार दिया और दुसरे ही दिन दिल्ली को रवाना हुए और 13 मई को बहादुर शाह ज़फर को बादशाह के रूप में बहाल किया I मई से जून के बीच में विद्रोह आगरा, लखनऊ, रोहिल्खंड, कानपूर, इलाहाबाद और उत्तर के अन्य जगहों में फ़ैल गयी I हालाँकि इस समय झाँसी में संतुलन बरकरार था लेकिन यह संतुलन ज्यादा समय तक टिक न सका और 5 जून 1857 को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई झाँसी में शुरू हो गयी I विद्रोहियों ने बीच दोपहर में चमकते हुए सूरज के नीचे स्टार किले पे हमला बोल दिया I हालाँकि उनके बीच लड़ाई नहीं हुई क्यूंकि अंग्रेजों ने विरोध करना सही नहीं समझा I सिपाहियों ने काफी नुकसान किया और किले के खजाने से टोप, हथियार और गोला - बारूद और पांच लाख रुपये ज़ब्त किये और ब्रिटिश पुरुषों, महिलाओ और बच्चों को स्टार किले से निकाल बहार किया I उसी रात को कप्तान जॉर्डन रानी महल पहुँचकर रानी लक्ष्मीबाई से मदद के लिए आग्रह करते है I किस्मत ने भी क्या खूब खेला, दो साल से जिन अंग्रेजों को मनवाने की कोशिश में जुटी थी कि झाँसी को विलय करके उनके साथ ना इंसाफी की और अपने राज्य को वापिस पाने के लिए संघर्ष कर रही थी I आज वही अँगरेज़ उनसे सुरक्षा के लिए मदद मांग रहे थे I रानी ने भी सूझ बुझ से इस मौके का फायदा उठाया और उन्होंने उनकी और खुद की सुरक्षा के लिए सेना बढाने की अनुमति मांगी, जॉर्डन के पास कोई विकल्प न बचा और उन्होंने अनुमति दे दी I रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की पत्नियों और बच्चों को बड़े से एक हाल में पनाह दी I लेकिन खतरा अभी उनके सर से टला नहीं था, सिपाहियों ने अंग्रेजों के घरों और बंगलो को आग लगाना शुरू कर दिया I यह देख अंग्रेजों का यह समझ आ गया कि अब वह झाँसी में सुरक्षित नहीं है और फ़ौरन ही सभी महिलाओ और बच्चों को शहर से निकाल दिया जिसमे रानी महल भी शामिल था और उन्हें किले में ले गए I लक्ष्मीबाई ने अपनी बात रखी और किले को आपूर्ति भेजी I सिपाहियों ने घरों में आग लगाने के बाद कैंटोनमेंट की ओर रुख किया और रास्ते में आने वाले किसी भी गोरे को मौत के घाट उतार दिया I उन्होंने किले पे हमला किया और कप्तान जॉर्डन को मार गिराया I इस पर किले में अंग्रेजों ने अपना आपा खो दिया उन्होंने विरोधियों के खिलाफ विरोध किया लेकिन आखिर में उन्हें घुटने टेकने पड़े और कप्तान स्कीन ने एक प्रस्ताव रखा कि वह लोग झाँसी छोड़कर सागर चले जायेंगे अगर वह उन्हें कोई नुक्सान नहीं पहुचाएंगे और उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उठाएंगे I उनका कहना था कि अगर अंग्रेज़ सभी हथियार डाल देंगे तो सिपाही उनका एक बाल भी बाका नहीं करेंगे I अंग्रेजों ने सारे हथियार डालकर किले से बहार निकलने लगे और विरोधियों ने दीन – दीन के नारे लगाते हुए अंग्रेजों को झाँसी शहर के बाहार जोगन बाग में लाया और उन्हें एक लाइन में खड़ा करके सभी को मौत की नींद सुला दिया I इस घटना के तुरंत बाद विरोधियों ने रानी महल की ओर रुख किया और रानी को संदेश भेजा कि झाँसी में सभी अंग्रेज़ मारे गए हैं और सिपाही दिल्ली में सम्राट के पास जा रहे है और यात्रा के लिए तीन लाख रुपये की ज़रुरत है I रानी ने उनकी मांग पूरी करने से मना कर दिया, यह सुनकर सिपाहियों ने उनको धमकाया और कहा कि अगर उनकी मांगे पूरी नहीं की तो वे महल को आग लगा देंगे और सदाशिव राव भाव नेवालकर को झाँसी के गद्दी पर बैठा देंगे I रानी लक्ष्मीबाई को मजबूरन उनकी मांगे पूरी करनी पड़ी I इस समय झाँसी का राज्य किसी भी शासक के अधीन नहीं था और इस कारण से ठाकुर और आसपास के छेत्रों के छोटे राजा और जमींदार झाँसी के अपने हिस्से पर कब्ज़ा करने की कोशिश में थे I इसी मसले को हल करने के लिए वह 12 जून 1857 को सागर के कमिश्नर मेजर इर्कसन को लिखती है कि देशी सिपाहियों ने झाँसी को धोका दिया है और वह सेना या गोली – बारूद के बिना असहाय है I मेजर इर्कसन ने 2 जुलाई 1857 को रानी को जवाब दिया कि ब्रिटिश अधिकारियों के साथ एक सेना भेजी जाएगी और उन्हें कुछ समय के लिए प्रशासन सँभालने के लिए कहा I यह सुनकर रानी चाँद जैसी मुस्कराहट मुख पर लिए नगर महल को छोड़कर उचित समारोह के साथ किले पर लौट आई I किले पे लौटते ही उन्होंने तोप के गोले की उत्पादन के लिए शाही चांदी के बर्तन और ढले हुए सिक्को को पिघलाने का आदेश दिया I किले के प्राचीर पर तोपे रखवाई I रानी के किले के प्राचीर पर जो तोपे थी उसमें धन्गर्जन, भवानीशंकर, और कड़क बिजली प्रमुख थी I इन सब चीज़ों में जब वह व्यस्त थी तो सदाशिव राव झाँसी की गद्दी पे कब्ज़ा करने की षड्यंत्र रच रहा था I जैसे ही रानी को इस बात की भनक लगी उन्होंने अपनी सेना भेज कर उसे गिरफ्त्तार कर लिया और झाँसी के जेल में डलवा दिया I एक परेशानी खत्म नहीं हुई कि दूसरे ने दरवाज़े पे दस्तक दे दी I नथे खान जो की ओर्च्चा का दीवान था, उसने एक पुरानी दुश्मनी के तहत रानी के किले पे हमला बोल दिया I रानी ने सूझ बूझ से नथे खान नाम के कांटे को अपने रास्ते से हटाया I

इस घटना के बाद रानी ने आत्मविशवास हासिल किया और सैनिकों ने भी आत्मविशवास और उर्जा महसूस की और अब झाँसी के लोगों को रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व पर पूरा विश्वास था I पूरा झाँसी रानी की वापसी से आनंदित हो उठा और उत्सव मनाया गया लेकिन यह ख़ुशी चंद दिनों की थी I अंग्रेजों को इस बात का शक था कि जोगन बाघ कि घटना के पीछे रानी लक्ष्मीबाई का हाथ है और कुछ ही दिनों बाद रानी को यह संदेश मिला कि सर हयूग रोज अपनी बड़ी सेना दल के साथ झाँसी की ओर बढ़ रहे है I अंग्रेजों को लगा रानी लक्ष्मीबाई एक स्त्री है और वह प्रतिरोध नहीं करेगी लेकिन रानी के कदम से तिलमिला उठे I यह संदेश मिलते ही रानी ने इस बार आत्मसमर्पण न करके आजादी के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने का फैसला किया I अंग्रेजों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नए सिरे से सेना का संगठन किया और किले की मज़बूत किलाबंदी करवाई I रानी लक्ष्मीबाई जंग के लिए तैयार थी और झाँसी के आगे लोहे की दीवार बनकर खड़ी थी I उनके पास दस हज़ार बुंदेले सैनिक, अफगानों की एक सेना, पंद्रह सौ पैदल सेना और चार सौ घुड़सवार जिन्हें उन्होंने महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया था I गौस खान, खुदाबक्ष और मोतीबाई तोपों के प्रभारी थे ( धन्गर्जन, भवानीशंकर और कड़क बिजली ) I मार्च 1858 में हयूग रोज की सेना झाँसी पहुँच गयी और किले को चारों ओर से घेरकर आक्रमण किया, आठ दिनों तक अंग्रेज़ किले पे गोले बरसाते रहे मगर किले को हासिल न कर पाए I हयूग रोज को समझ आ गया की सैन्य बल से किला जीतना आसान नहीं इसलिए कूटनीति अपनाई और झाँसी के ही एक विश्वासघात सरदार को मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया और अंग्रेजी सेना किले में घुस गयी और लूट पाट हिंसा करने लगी I रानी लक्ष्मीबाई घोड़े पे सवार, दाहिने हाथ में नंगी चमकती हुई तलवार लिए पुत्र को पीठ पे बांधकर महाकाली का रूप लिए शत्रु दल का संघार करने लगी I हयूग रोज रानी और उनकी सेना दल की औरतों की कुशलता को देख हैरान हुए और अपनी आँखों पे विश्वास न कर सके I दोनों ही दलों के बीच बराबर का मुकाबला हुआ मगर फिरंगी सेना बड़ी होने के कारण झाँसी के किले पे फ़तेह हासिल किया I अँधेरा जब आफ़ताब के गोले को निगलकर छा गया तब रानी लक्ष्मीबाई अपने प्रिय घोड़े बादल पे सवार और पीठ पे अपने पुत्र को बांधकर कुछ विश्वासपात्रों की मदद से कलपी की ओर बढ़ चली I सात दिनों में सम्पूर्ण झाँसी खून के सैलाब से डूब गयी, सड़क पे लाशों के ढेर जम गए और कुत्ते व सूअर उन लाशों की ढेर को अपने नोखिले दांतों से कुतर रहे थे I सड़े हुए शवों की गंध हवा के संग शहर में घूम रही थी I लगातार चौबीस घंटे और एक सौ दो किलोमीटर तक सफ़र तय करने के बाद रानी लक्ष्मीबाई कलपी पहुँची I कलपी में स्थिति को देखते हुए लक्ष्मीबाई की मदद के लिए पेशवा ने अपने दो सौ पचास घुड़सवार और ज़रूरत के मुताबिक हथियार देने का फैसला किया I हयूग रोज ने कलपी पर आक्रमण कर दिया जिसका रानी लक्ष्मीबाई ने काफी निडरता से सामना किया I वह उन पर इस क़दर बिजली बनकर गिरी कि ब्रिटिश तोपे खामोश हो गयी I वह उनके आक्रमण से काफी घबरा गए और उनके चेहरे का रंग ज़र्द हो गया I हयूग रोज ने घटनाओं के इस मोड़ को देखा और ऊटों की बटालियन को आगे बढाया और खुद हमले का नेतृत्व किया I पेशवा सेना उलझन में आ गयी और ऊंट की पीठ के ऊपर सवार सैनिकों से लड़ने में असमर्थ रही I रानी उन्हें ऊंट के पैरो पर हमला करने का आदेश दे रही थी लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी I पेशवा सैनिकों की अनुशासनहीनता और अक्षमता की वजह से हयूग रोज ने कलपी पर कब्ज़ा कर लिया I जब कलपी छिन गयी तब रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या तोपे की मदद से सिंधिया की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोला जो अपनी फौज के साथ कंपनी का वफादार बना हुआ था I लक्ष्मीबाई ने युद्ध कर सिंधिया की सेना को हरा दिया और अपने सहयोगियों के साथ नाना साहेब को पेशवा घोषित कर दिया I जब अंग्रेजों को इस बात की खबर लगी तो वह ग्वालियर के लिए निकल पड़े I रानी लक्ष्मीबाई हमेशा की तरह 17 जून 1858 को सैनिकों के कपड़े ( सफ़ेद कमीज़ और पायजामा, लाल रंग का जैकेट और एक पगड़ी I ) पहने युद्ध के लिए तैयार थी I उन्हें पता था कि अँग्रेज़ आ रहे है I वह फूलबाग में अपने कैंप में शर्बत पी रही थी तब ही उन्हें सूचना मिली कि कोटाकी सराय से अंग्रेज़ आक्रमण करने आ रहे है I उनके सहयोगी मुंदर और काशी तैयार थे लेकिन उनका पसंदीदा घोड़ा लगातार चलने से थक गया था इसलिए सिंधिया के अस्तबल से एक घोड़ा उनके पास लाया गया I रानी और उनके घुड़सवारों ने प्रतिज्ञा ली कि वह अपनी आखरी सांस तक लड़ेंगे और उनके साथ कैंप से तेज़ी से बहार निकली I उन्होंने दुश्मन का बहादुरी से सामना किया, हर हर महादेव और जय भवानी के उद्घोष से रणभूमि गूंज उठी I रानी ने घोड़े की लगाम अपने दांतों में थामी और दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए अपने रास्ते में आए सभी दुश्मनों को कटती चली गयी I तब ही रानी और उनकी छोटी सी सेना को अंग्रेजों ने तीन तरफ से घेर लिया I क्यूंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था इसलिए उन्हें बिखरना पड़ा और रानी लक्ष्मीबाई ने अपने घोड़े को पीछे खींचा और पलट गयी I रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया लेकिन दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया, घोड़ा नाला पार ना कर सका और अंग्रेज़ सैनिक वहां आ गए I एक सिपाही ने उनके सर पर पीछे से ज़ोरदार प्रहार किया और उनका दाहिना आँख बहार निकलकर उनके चेहरे पर लटक गया फिर दूसरे सैनिक ने उनकी बाई ओर तलवार चला दी I रानी अपने घोड़े से गिर गयी I उन आदमियों को नहीं पता था कि उन्होंने जिसे घातक रूप से घायल किया था वो रानी लक्ष्मीबाई थी I सैनिकों के कपड़ों के कारण उन्हें पहचान ना पाए I सिपाहियों ने उनके गले से कीमती मोती का हार निकाला और भाग गए I रानी ने लगातार अपनी इच्छा व्यक्त की थी कि उन्हें मृत या जीवित ब्रिटिश द्वारा कब्ज़ा नहीं किया जाना चाहिए I उन्हें डर था कि ब्रिटिश उन्हें अपमानित करेंगे इसलिए उनके आदमियों ने अपना वादा निभाया I रामचंद्र राव देशमुख खून से लिपटी हुई रानी लक्ष्मीबाई को पास में रहने वाले एक साधू गंगादास बाबा की कुटिया में पहुँचाया, उन्हें सूखी घास की एक गठरी पर रख दिया और अग्नि को समर्पित कर दिया I इस तरह रानी लक्ष्मीबाई ने धरती माँ की चरणों में अपने प्राणों को अर्पण कर दिया और देश भर में क्रान्ति की ज्वाला जला गयी I

1857 का विद्रोह जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, इसमें प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का नाम ऊपर माना जाता है I भारत के सबसे महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक माना जाता है और उत्कृष्ट बहादुरी के लिए जाना जाता है I उनके साहस का अंदाजा जेनरल हयूग रोज के इस कथन से लगाया जा सकता है कि अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं रानी लक्ष्मीबाई की तरह आजादी की दीवानी हो गयी तो हम सबको ये देश छोड़ के भागना पड़ेगा I अकेले होने के कारण अपनी झाँसी नहीं बचा पाई लेकिन देश को बचाने की बुनियाद खड़ी कर गयी I निडरता और अपनी हक की लड़ाई का पाठ पढ़ा गयी इसलिए वो आज भी जिंदा है और हमेशा जिंदा रहेगी I वो न केवल भारत वासियों के दिलो में ज़िंदा है बल्कि वो जिंदा है उन विरोधियों के दिल ओ दिमाग में जिनसे उन्होंने लोहा लिया था I



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