राखी
राखी


रंग-बिरंगी राखियों से पूरा बाजार भरा पड़ा था। सुरभि हसरत भरी निगाहों से राखियों को देखती और फिर उसकी आँखें नम हो जातीं। रक्षाबंधन का त्योहार सुरभि के लिए हमेशा उदासी का सबब बन के आता। वह अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थी। बचपन में उसकी सारी सहेलियाँ रंग-बिरंगी राखियाँ खरीदतीं और वह मन मसोस कर रह जाती।
सुरभि की मम्मी उसकी उदासी दूर करने के लिए अक्सर उससे पड़ोस के राहुल को जाकर राखी बाँध देने को कहा करती, पर सुरभि को यह नहीं अच्छा लगता था कि साल भर जो लड़का कोई बात नहीं करता... दूसरे लड़कों द्वारा सताए जाने पर भी मदद को आगे नहीं आता था, उसे वह क्यों राखी बाँधे?
इस साल सुरभि को एक नया तरीका सुझा कि क्यों न वह खुद को ही राखी बाँधे... और बदले में खुद ही खुद की रक्षा करने का वचन दे। ऐसा विचार दिमाग में आते ही वह दौड़ पड़ी बाजार के लिए... वह तो सबसे सुंदर वाली राखी खरीदेगी और अपनी कलाई को सजाएगी तथा उपहार के रूप में खुद को अन्याय से लड़ने का वचन देगी।
अब रक्षाबंधन उसके लिए ख़ुशियों का सबब बन गया ..।