पूर्वाग्रह
पूर्वाग्रह
नन्दिनी बहुत ही आत्मविश्वास से भरे कदमों से एयरपोर्ट से बाहर निकल कर आई। मानवेन्द्र को गाड़ी के पास खड़ा देखकर उस ओर बढ़ी।
"कैसा रहा सफर?" मानवेन्द्र ने गाडी मे बैठते ही पूछा।
"बहुत ही खूबसूरत..!" सुबह का समय था नन्दिनी कार के शीशे को नीचे करके बाहर के दृश्य देखती हुई उस दिन को याद करने लगी जब आज से 2 महीने पहले अमेरिका जाने के लिए मानवेन्द्र उसे एयरपोर्ट छोड़ने जा रहा था।
"माँ आपको हमारे पास अमेरिका आना होगा।"
"मैं और अमेरिका...नहीं बेटा..."
"लेकिन मैं कुछ नही सुनूंगा" कहते हुए जयेश ने फोन रख दिया। एक ही तो बेटा था जयेश। बचपन से ही पढ़ाई मे होशियार था। जल्द ही अपनी प्रतिभा के बल पर मल्टीनेशनल कम्पनी मे नौकरी मिली और अमेरिका चला गया। बच्चों का जब कैरियर सवंर जाए तो माता-पिता भी राहत महसूस करते है...बस अब जल्दी से सुशील बहू ले आऊ। ऐसे ही खयालों में खोई हुई नन्दिनी की फोन की घंटी से तन्द्रा टूटी।
"माँ आज मैं आपको जो बताने जा रहा हूँ उसे समझने की कोशिश करोगी। मैने जैनी से शादी कर ली है।"
क्या..?"
"हाँ, माँ मैं जैनी से बहुत प्यार करता हूँ लेकिन..." और नन्दिनी को लगा जैसे उसकी औलाद ने उसके वजूद के ना जाने कितने टुकड़े कर दिए। समय बीतता गया लेकिन वक्त... हाँ वक्त ही था जिसने धीरे धीरे ज़ख्मों को भरना शुरू कर दिया और जब मन को समझा कर बेटे के बुलाने पर अमेरिका की फ्लाइट पकड़ी, एयरपोर्ट से बाहर निकल रही थी तो मॉम...मॉम...कहती हुई सुन्दर सी लड़की सामने आ गई.....आए एम जैनी.....कहकर मेरा हाथ पकड़ लिया.....मैं उसके सुन्दर चेहरे को देखती ही रह गई लेकिन जब मैने आश्चर्य से इधर उधर देखा तो झट से जैनी बोली "मॉम जयेश की कोई मीटिंग थी इसलिए नहीं आया।" माँ से ज्यादा जरूरी मीटिंग! मन ही मन मे सोचते हुए नन्दिनी कार मे जैनी के साथ बैठ गई। कार जैसे ही घर के सामने रुकी तो घर की सजावट देखकर नन्दिनी हैरान हुए बिना नहीं रही। फ्रैश होकर नन्दिनी अभी सोफे पर बैठी ही थी कि जैनी नाश्ता लेकर सामने खड़ी थी।
"ये क्या...मिक्स वेज खिचड़ी! मेरा पसंदीदा नाश्ता" और मुँह में डालते ही इतना स्वाद लेकिन झूठे अहम ने प्रशंसा के लिए ज़ुबान रोक दी।
"मॉम मैने आपको घुमाने के लिए एक वीक की छुट्टी लेकर प्रोग्राम बनाया है।" नन्दिनी बे मन से मुस्कुराई। दोपहर मे जयेश के आँफिस से लौटते ही माँ की गोद मे सिर रखकर लेटा तो बस माँ पिघलती गई ओर जैसे कोई शिकवा शिकायत ही नहीं रहा। आज पूरे दो महीने बाद जब वापिस अपने देश लौटने की बात हुई तो नन्दिनी ने सोचा कि दो महीने तो इतनी जल्दी से ही बीत गए।
"क्या सोच रही हो?" मानवेन्द्र ने पूछा तो नन्दिनी ने कहा- "कुछ नहीं ..." मॉम...मॉम की आवाज़ अभी भी ज़हन मे गूँज रही थी। 'क्यो हम पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाते है। हम बिना किसी से मिले एक धारणा बना लेते है फिर उसी सोच मे बंध जाते है। अपने आप से ही नन्दिनी सवाल कर रही थी। मैने भी तो यही किया बिना जैनी से मिले एक धारणा बना ली कि विदेशी लड़की ऐसी होगी वैसी होगी ना जाने क्या क्या...किसी भी व्यक्ति की वेशभूषा ,रहन-सहन उसके व्यक्तित्व का आईना ज़रूर होती है लेकिन जीवन जीने की असल धुरी तो प्रेम ही है। अपनों का प्रेम..! इस प्रेम की ड़ोर से जैनी ने मुझे कब अपने से बांध लिया ...पता ही नहीं चला... और मैं अपने बेटे की पसन्द को नापसंद करने की धारणा मन मे बनाकर बैठी थी लेकिन जैनी और जयेश की खुशियों के आगे मैं अपनी सोच से शर्मिन्दा थी। लेकिन अभी भी देर नहीं हुई जब जागो तभी सवेरा' मन में ऐसे सोचकर नन्दिनी मुस्कुराई....सचमुच आज की सुबह कुछ ज्यादा रोशनी लेकर आई और दिलो को भी रोशन कर गई..!