Qazi Aaysha

Drama

3.6  

Qazi Aaysha

Drama

पश्चाताप

पश्चाताप

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यह बसंत के दिन थे। खेतों में सरसों लहलहा रही थी। गेहूं की बालें भी सुनहरी हो चली थी। प्रकृति की छटा सबका मन प्रसन्न कर देती। जो भी देखता मोहित हो जाता। सब कुछ खुशी से महक रहा था लेकिन भुवन का मन अभी भी उदास था।

वह सुबह को जल्दी उठकर खेत में काम करने जाता, फिर पूरा दिन खेत में काम करता। मेहनत से जी नहीं चुराता था। वह उदास इसलिए नहीं था कि वह और बच्चों की तरह स्कूल न जाकर खेत में काम करता था, बल्कि उसकी उदासी इस बात पर थी कि वह जब थककर घर पहुंचता था, उसका शराबी बाप मान सिंह उसे मारता, ताने देता। उसके ऊपर उसने कभी भी जरा सी दया नहीं दिखाई थी।

घर में उसकी बूढ़ी दादी थी। वह बेचारी उसे क्या बचा सकती थी। बस वो दिलासा दे सकती थी कि इसका बदला भगवान ही देगा, यह सब ठीक हो जाएगा, क्योंकि उसके बेटे का क्या भरोसा था शराब के नशे में क्या पता उस पर भी जोर दिखाएं। नशे में उसे कुछ नहीं दिखता था। इसलिए एक दिन भुवन की मां को भी उसने घायल कर दिया और कुछ दिनों बाद वो चल बसी।

जो मजदूरी भुवन लाता, मानसिंह सब अपने नशे पर खर्च कर देता। वह पूरे दिन घर पड़ा रहता, कभी तो उनके घर में खाने के लिए सूखी रोटी भी नहीं होती।

भुवन को अपने पिता से घृणा सी थी लेकिन वो उसका आदर करता था क्योंकि फिर भी वो उसका पिता था। अगर एक पुत्र अपने पिता का ना हुआ तो भला किसका हुआ ?

लेकिन अब उस सब्र के पहाड़ की नींव अब धीरे-धीरे कमजोर हो रही थी।

उस रात बर्दाश्त की हद पार हो गई जब उसके पिता ने उसे पीटकर घर से बाहर फेंक दिया। उसकी दादी अंदर बिलखती रह गई, लेकिन मानसिंह ने उसकी एक न सुनी और उसे घर बाहर निकालकर दरवाजे के सामने आकर लेट गया।

भुवन घर के सामने ही लेटा रहा। वह सोचता रहा कि आज मां होती तो ऐसा कभी नहीं होता। अब उसने भी निश्चय कर लिया था कि कुछ भी हो जाए, वह कभी अब घर वापस नहीं जाएगा। "मुझे जीवन मिला है, मैं इसे क्यों व्यर्थ करूं? मेहनत भी करू और कुछ सिला भी न मिले। " उसने कुछ नहीं सोचा कि कहां जाऊं। और चलता रहा, जहां दिखा रास्ता। अंधेरा बहुत था, चंदा हल्का सा दिख रहा था। पर वह डरा नहीं, गुस्से के जुनून ने उसे बेख़ौफ़ कर दिया था। लेकिन वह मासूम था, चांद भी उसे देख कर हंसता होगा," कैसा बेखौफ चला जा रहा है, मंजिल कोई नहीं - जैसे बेलगाम का घोड़ा।" चलता गया, चलता गया, जब तक गांव के दूसरे छोर पर ना पहुंचा। वहां प्रधान जी का तबेला था, दरवाजे पर कुछ पराली पड़ी थी। वहीं पर बैठ गया कि थोड़ा विश्राम कर ले। उसे पता नहीं चला कि कब सो गया।

सुबह हुई। सूर्य की रोशनी से उसके गाल चमक उठे। चिड़ियां चहक उठी। कलियां महक उठी। और कोकिला गाने लगी। उसने अपनी आंखें खोली तो देखा दूर चमन से मानसिंह चला आ रहा था। उसे देखा तो फूल उठा। उसके पास आया और बोला भुवन बेटा घर चलो। भुवन ने कुछ नहीं बोला। उसने फिर पुकारा तो बहुत उदास होकर बोला, "आप ने ही तो घर से बाहर निकाला था। तो जाइए खुद ही रहिये। आपको मेरी कोई चिंता नहीं। आप बहुत बुरे हो। "

यह बोलते हुए वह भागा। उसके पिता ने कहा बेटा, "मैं आखरी बार तुमसे बात कर रहा हूं। तुम्हारी अम्मा का रो-रोकर बुरा हाल है। हां, मैं बहुत बुरा हूं। लेकिन बेटा शराब के नशे ने मुझे बुरा बना दिया। तुम मेरे लिए नहीं, अपनी अम्मा के लिए चलो। क्या तुम एक बेसहारा बूढ़ी औरत को मुझ शराबी के हवाले छोड़ कर जा रहे हो? तुम तो मेरी तरह बुरे ना बनो। चलो, चलो बेटा घर चलो ।

इतना सुनते ही भुवन की आंखों में आंसू आ गए। मानसिंह ने उसे अपने गले से लगा लिया।

आज उसे अपने कर्मों का पछतावा हो गया था।


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