प्रथम अवतार सनकादि आदि
प्रथम अवतार सनकादि आदि
सभी श्रोता मंत्रमुग्ध होकर श्रीमद्भागवत महापुराण कथा सुन रहे थे । इस कथा में जो आनंद आता है वह अनिर्वचनीय है । पंडित चक्रपाणि महाराज भगवान के 24 अवतारों की बात कहकर चुप हो गए । श्रोता गण बहुत विद्वान थे । इतनी सुन्दर कथा सुनने के पश्चात उनकी कथामृत रूपी प्यास और बढ़ गई थी । एक श्रोता खड़ा होकर बोलने लगा
"महाराज, आपकी कथा बहुत अद्भुत है । कहने का अंदाज निराला है और वाणी में माता सरस्वती का वास है । आवाज सुमधुर है और आपका ज्ञान महासागर से भी अधिक गहरा है । हम श्रोतागण चाहते हैं कि आप प्रत्येक अवतार का विस्तृत वर्णन करें जिससे हमें उस अवतार के बारे में पूरी जानकारी हो सके । अतः: आपसे निवेदन है कि आप भगवान नारायण के प्रथम अवतार का विशद वर्णन करें" ।
पंडित चक्रपाणि महाराज प्रसन्न होकर बोले
"जब श्रोता सुधीगण हों तो कथा कहने का आनंद ही अलग होता है । आप जैसे श्रोता मिलना भी ईश्वर कृपा के अधीन ही है । मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूं जो आप जैसे श्रोताओं को यह अमृत तुल्य कथा सुना रहा हूं । आप लोगों को भगवान के प्रत्येक अवतार की विशद कथा सुनाकर आपकी समस्त जिज्ञासाएं समाप्त करूंगा" ।
भगवान नारायण ने जब अपनी नाभि से कमल की उत्पत्ति की और उससे ब्रह्मा जी को प्रकट किया तब चारों ओर जल ही जल था । ब्रह्मा जी अपने चारों ओर जल ही जल देखकर सोच में पड़ गए कि वे कौन हैं और भगवान नारायण कहां हैं ? जब उन्हें कुछ नहीं सूझा तो वे भगवान नारायण की तपस्या करने बैठ गये । सौ वर्षों तक तपस्या करने के बाद भगवान नारायण उन पर प्रसन्न हुए और उन्हें सृष्टि निर्माण करने की आज्ञा दे दी । सृष्टि निर्माण करने के लिए ब्रह्मा जी ने पहले चौदह लोक बनाये जो निम्न प्रकार हैं ।
1. भूलोक .
इसे मृत्युलोक भी कहते हैं । इस लोक में हम सभी प्राणी आते हैं जिनकी मृत्यु अवश्यंभावी है । इसी लोक में 84 लाख योनियां हैं जिनमें कोई प्राणी जन्म लेता है और वह इन्हीं योनियों में तब तक भटकता रहता है जब तक उसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता ।
2. भुवर्लोक
पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं । सामान्य भाषा में इसे देव लोक भी कहते हैं । इस लोक में देवता निवास करते हैं ।
3. स्वर्लोक
इसे सामान्य बोलचाल की भाषा में स्वर्ग लोक भी कहते हैं । इसमें इन्द्र आदि अनेक देवता निवास करते हैं । अप्सराऐं भी यहीं रहती हैं । इस लोक में सुख ही सुख है, दुख नहीं है । मरने के पश्चात मनुष्य इस लोक तक आ सकते हैं । अगर पुण्य बहुत ज्यादा हों तो सत्य लोक यानि कि ब्रह्म लोक तक जा सकते हैं लेकिन पुण्यों की समाप्ति पर उसे भूलोक पर ही आना पड़ेगा जब तक कि उसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाए । उपर्युक्त तीनों लोक "त्रैलोक्य" के नाम से जाने जाते हैं और देवताओं के प्रभाव क्षेत्र वाले यही तीन लोक हैं ।
4. महर लोक
यह लोक ध्रुव से 1 करोड़ योजन दूर है । इस लोक में भृगु आदि ऋषि एवं सिद्धगण रहते हैं ।
5. जनलोक
यह महर लोक से भी एक करोड़ योजन और ऊपर है । इस लोक में सनकादिक आदि श्रषि मुनि रहते हैं ।
6. तप लोक
यह लोक तप लोक से 12 करोड़ योजन दूर है । इस लोक में विराज आदि देवता रहते हैं ।
7. सत्य लोक
यह लोक तप लोक से 12 करोड़ योजन ऊपर तक है । इस लोक में ब्रह्मा जी निवास करते हैं इसलिए इसे "ब्रह्म लोक" भी कहते हैं । इस लोक में ब्रह्मा जी के अतिरिक्त परम तपस्वी ऋषि, मुनि रहते हैं । मृत्यु के उपरांत मनुष्य इस लोक तक आ सकता है लेकिन उसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है । मोक्ष प्राप्त करने के लिए उसे भूलोक या मृत्युलोक आना ही पड़ेगा । प्रलय काल में मृत्यु लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक नष्ट हो जाते हैं लेकिन सत्य लोक, तप लोक और जन लोक नष्ट नहीं होते हैं । महर लोक प्रलय के दौरान यद्यपि नष्ट नहीं होता है किन्तु रहने योग्य भी नहीं रहता है । उस समय महर लोक के प्राणी जन लोक चले जाते हैं । प्रलय काल में नष्ट होने के कारण भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक को "कृंतक" और नष्ट नहीं होने के कारण जन लोक, तप लोक और सत्य लोक को "अकृतक" तथा महर लोक को कृतकाकृतक कहते हैं ।
इस प्रकार ये सात लोक ऊर्ध्व लोक कहलाते हैं जो पृथ्वी पर या पृथ्वी से ऊपर की ओर हैं ।
अब सात लोक और हैं जो पृथ्वी से नीचे की ओर हैं को जानने का प्रयास करते हैं । इन्हें अधोलोक या पाताल लोक भी कहते हैं।
8. अतल
यह पृथ्वी से 10000 योजन तक नीचे है । इसका राजा मय दानव का पुत्र असुर बल है । इसकी भूमि सफेद है
9. वितल
अतल से भी 10000 योजन नीचे तक यह लोक है । इसकी भूमि काली है । इस लोक के राजा भगवान हाटकेश्वर महादेव हैं जो अपनी पत्नी भवानी और अपने भूत प्रेतों के साथ निवास करते हैं ।
10. नितल
वितल लोक से 10000 योजन नीचे नितल लोक है । इस लोक के राजा बलि हैं जिनसे भगवान वामन ने तीन पग भूमि मांगी थी । इसकी भूमि अरुण रंग की है ।
11. गभस्तिमान
यह नितल से 10000 योजन नीचे है । इसकी मिट्टी पीली है और इस लोक के राजा मय दानव है ।
12. महातल
यह लोक गभस्तिमान से 10000 योजन नीचे है । इस लोक में कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उत्पन्न अनेक प्रकार के नाग रहते हैं ।
13. सुतल
महातल से 10000 योजन नीचे तक यह लोक है । यहां पर निवातकवच, हिरण्यपुर वासी और कालेय निवास करते हैं ।
14. पाताल लोक
यह लोक सुतल लोक से भी 10000 योजन तक है । इसकी भूमि स्वर्णमयी है । यहां पर अनेक सिर वाले विशाल दैत्याकार नाग रहते हैं जिनके सिर पर बड़ी बड़ी मणियां हैं जिनके प्रकाश से यह लोक देदीप्यमान रहता है ।
इस प्रकार ब्रह्मा जी ने 14 लोकों की स्थापना करके निम्न प्राकृतिक सर्गों की उत्पत्ति की ।
1. महत्तत्व
2. अहंकार
3. तन्मात्राऐं
4. इन्द्रियां
5.इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता
6. पञ्च पर्व , अविद्या ( तम, मोह, महा मोह, तामिस्र, अन्ध तामिस्र)
7. तीन वैकृतिक सर्ग
8.स्थावर
9. तिर्यक्
10. मनुष्य
इसके पश्चात ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए भगवान से अवतार लेने का अनुरोध किया । तब भगवान नारायण ने सनकादि ऋषियों के रूप में प्रथम अवतार लिया । अवतार लेने का अर्थ होता है सशरीर प्रकट होना । भगवान कभी जन्म नहीं लेते, अवतार लेते हैं । इसका मतलब है कि भगवान अजन्मा हैं, अयोनिजा हैं, मतलब किसी कोख से जन्म नहीं लेते हैं ।
तो भगवान नारायण ने पहला अवतार ब्रह्मा जी के चार मानस पुत्र सनक , सनंदन , सनातन और सनत्कुमार के रूप में लिया । ये चारों मिलकर "सनकादि" कहलाते हैं । ये चारों ब्रह्म रूप होने के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं जो सदैव "दिगंबर" रहते हैं और उनकी आयु सदैव 5 वर्ष ही रहती है । ब्रह्मा जी ने इन चारों कुमारों की उत्पत्ति सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए की लेकिन इन चारों ने सृष्टि के चक्कर में पड़ने से मन कर दिया और भगवान नारायण का जाप करने लगे । सृष्टि की रचना में उदासीन रहने के कारण इन चारों ने भक्ति, ज्ञान और विवेक का मार्ग शुरू किया । ये चारों ब्रह्मज्ञानी हैं अर्थात निर्गुण निराकार के उपासक हैं । इन्हीं चारों को चार वेद भी कहा जाता है । इन्होंने सबसे पहले नारद मुनि को ज्ञान दिया था ।
