परिंदे
परिंदे


डियर डायरी,
पता है कितनी सुन्दर यह सारी प्रकृति हो गई है। सुबह की नींद ही चहचहाते हुए पझियों की मधुर आवाज़ों के साथ होती है। बाहर आओ तो जैसे सब इंतज़ार में होते हैं। उनके कटोरे में जब तक दाना न डालो शोर मचा रहता है। फिर बारी बारी से सब कुछ चुगते हैं, कुछ गिराते हैं। अब तो मुझसे डरते भी नहीं, बैठे रहते हैं। मन कितना खुश होता है, एकदम तृप्त हो जाता है। माना हम इस समय कष्ट में हैं पर देखो न, कितना कुछ ऐसा हो रहा है जो हम सब के जीवन से जैसे गायब ही हो गया था।
मेरे आसपास भी बहुत लोग यही कर रहे हैं। हम सब फिर से प्रकृति से जुड़ रहे हैं। हम सब बेशक अपने घर में कैद हैं, पर देखो इन परिंदों को, कैसे खुले आम विचरण कर रहे हैं। शायद उन्हें सभी मार्ग साफ देख अचंभे के साथ साथ प्रसन्नता भी हो रही होगी, आखिर सदियों बाद उन्हें फिर से उन्मुक्त उड़ान का अवसर मिल रहा है।
काश, हम हमेशा अपने जीवन में इतने स्वार्थी फिर न बन जायें कि अपनी ज़रूरत को ही पूरा करने की होड़ में धरती के बाकी जीवों की ज़रूरतों की परवाह छोड़ दें।