पिता
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"तुम सही कहती हो सरला, अब मुझे गाड़ी ले ही लेनी चाहिए। उमर भी हो गई है, रोज-रोज दफ्तर साइकिल से जाने की हिम्मत भी नहीं बची अब। दफ्तर पंहुच कर आधा घंटा तो साईकिल चलाने से होने वाली थकान उतारने में ही चला जाता है। घर की किश्तें भी पट ही गई हैं। और फिर ये राजू के कॉलेज का आखरी साल है, कुछ दिनों में उसे भी नौकरी मिल ही जाएगी।" आज घर आते ही रमेश बाबू ने अपनी पत्नी सरला से कहा। "चलिए, कुछ तो सोचा आपने अपने लिए, सारी उम्र तो घर-गृहस्थी के लिए खपा दी। कभी त्यौहार पर भी अपने लिए नया कपड़ा नहीं लिया, जब से राजू बराबर का हुआ है उसके ही पुराने कपड़े ठीक करवाकर पहन रहे हैं।"
"अरे कोई बात नहीं श्रीमति जी अब तक नहीं जिये तो क्या अब जी लेगें अपने लिए। गाड़ी ले ले फिर आपको घुमायेगें जी भर के" हँसते हुए रमेश बाबू ने कहा। "आज रात ही राजू से बात करता हूं कि पता करे कोई अच्छी सी गाड़ी के लिए।"
रात में खाने के समय रमेश बाबू ने राजू से कहा – "राजू कोई अच्छी सी गाड़ी तो पता करो, अब कहां तक ऑटो और बस के धक्के खाते फिरें, ये सुनते ही राजू खुश हो गया "अरे वाह पापा, आपने तो मेरे मन की बात कह दी, मैं कब से कहना चाह रहा था कि अब मुझे बस में कॉलेज जाना अच्छा नहीं लगता, मेरे सारे दोस्त अपनी गाड़ियों में ही आते हैं एक बस मैं ही हूं जो बस से जाता हूं। मैं कल ही गाड़ी का पता कर लेता हूं फिर इतवार तक गाड़ी ले लेगें और सोमवार से मैं भी गाड़ी से कॉलेज जाउंगा।"
ये सुनते ही सरला बोली, "अरे बेटा पर .." रमेश बाबू ने सरला को बीच में ही रोकते हुए कहा "बेटा, माँ कहना चाह रही है कि गाड़ी अच्छी सी ही देखना और देखना अपने बजट में हो।"
"क्या पापा, आप हमेशा बजट ही देखते रहते हो, अब पहली गाड़ी लेंगे मेरे लिए तो अच्छी तो होनी ही चाहिए न, क्यों माँ, मैं ठीक कह रहा हूं न, सरला कुछ बोल पाती इससे पहले ही रमेश बाबू बोले "ठीक है बेटा, अपने मन की ही गाड़ी ले लेना।"
रात में अपने कमरे में सरला ने रमेश बाबू से पूछा "आपने राजू को क्यों नहीं बताया कि आप खुद के ऑफ़िस जाने के लिए गाड़ी लेने वाले हो।" रमेश बाबू बोले, "अरे सरला, अब सारी जिंदगी तो साइकिल में कट ही गई है, रिटायरमेंट में भी दो ही साल बचे हैं अब क्या करना गाड़ी का शौक। राजू की उम्र है गाड़ी चलाने की, जी लेने दो उसे जी भर के।"
इतवार को गाड़ी आ जाती है। साठ हजार का बजट था रमेश बाबू का पर बेटे का गाड़ी पसंद आई अस्सी हजार वाली, फिर वही जोड़-तोड़ की रमेश बाबू ने और गाड़ी बेटे के हाथ में।
इसी तरह रमेश बाबू की जिंदगी की गाड़ी चल रही थी। दिन बीते और रमेश बाबू के रिटायरमेंट में छ: महीने रह गये थे। राजू का कॉलेज खत्म हुए भी डेढ़ साल हो गया था और अब वह नौकरी की तलाश में था। पर नौकरी ऐसे ही थोड़े मिल जाती है कहीं रिश्वत, कहीं सिफारिश इसी सब के दम पर नौकरी मिल पाती है।
एक दिन राजू ने रमेश बाबू से कहा - "पापा, एक सरकारी विभाग में दैनिक वेतन पर कर्मचारियों की भर्ती हो रही है, वहां के सुपरवाईजर ने कहा है कि दो लाख रूपये में एक जगह मुझे मिल जाएगी।"
रमेश बाबू बड़े ही असमंजस के साथ बोले "पर बेटा दो लाख रूपये आयेगें कहां से।"
"पापा देख लो आप कहीं से कुछ इंतज़ाम हो तो, आखिर मेरी नौकरी लगेगी तो शान तो आपकी ही बढ़ेगी न।"
"वो तो ठीक है बेटा, पर दो लाख रूपये बड़ी रकम है।"
"अब इतनी भी बड़ी नहीं है पापा। वैसे भी इंजीनियरिंग तो करवाई नहीं आपने अब कम से कम नौकरी में ही पैसे लगा दो।"
"ये क्या तरीका है राजू, पापा से बात करने का। तुम्हारे ही इतने नंबर नहीं आये थे कि किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिल पाता तुम्हें - सरला ने कहा तो राजू बोल पड़ा "अरे माँ किसी भी प्राइवेट कॉलेज में एडमिशन मिल जाता मुझे, वहां नंबर वगैरह नहीं देखे जाते हैं पर आप लोगों को तो हमेशा मेरे ही नंबर कम लगते हैं कभी अपने पैसे नहीं।"
इतना बोल कर राजू घर से निकल जाता है और रमेश बाबू अवाक देखते रह जाते हैं।
दो दिन बाद सुबह आठ बजे तक रमेश बाबू सोकर नहीं उठते हैं तो सरला उन्हें उठाने आती है "अरे, आज ऑफ़िस नहीं जाना है क्या इतनी देर हो गई आप उठे ही नहीं, इतना कहकर जैसे ही उन्हें उठाने के लिए हाथ लगाती है तो देखती है कि रमेश बाबू का शरीर एकदम बर्फ जैसा ठंडा पड़ा है। हे भगवान, ये क्या हो गया, राजू जल्दी तो आ देख तेरे पापा को क्या हो गया है राजू भागकर कमरे में आता है तो रमेश बाबू की हालत देखकर डॉक्टर को बुलाकर लाता है। डॉक्टर बताते हैं कि रमेश बाबू को हार्ट अटेक आया था।
मृतकों के परिजनों की दशा को तो वो ही भली-भांति समझ सकते हैं जिन्होने किसी अपने को खोया है। खैर, अब मरने वाले की अंतिम विदाई करनी ही है। कुछ ही देर में अंतिम संस्कार की तैयारी की जाने लगी, नाते-रिश्तेदार, मोहल्ले-पड़ोस के लोग आकर सरला को ढांढस बंधाने लगते हैं।
शमशान घाट पर सामने रमेश बाबू की चिता जल रही थी और वहीं कुछ दूर पर रमेश बाबू के साहब राजू से बात कर रहे थे - 'ऐसा है राजू जाना तो इस दुनिया से सभी को है पर रमेश बाबू तो जाते-जाते भी तुम्हें जिंदगी भर का उपहार देकर चले गये।"
क्या कह रहे हैं आप, मैं कुछ समझा नहीं।
साहब ने राजू को समझाते हुए कहा - अरे भाई, अब रमेश बाबू का देहांत नौकरी में रहते हुए हुआ है तो ऐसे में उनकी नौकरी के उत्तराधिकारी तो तुम ही हुए न। रमेश बाबू के सभी कार्यक्रम से निवृत होने के बाद दफ्तर आकर अनुकंपा नौकरी के लिए अर्जी दे देना।
ये सुनकर राजू अवाक हो गया "मैंने तो पापा से दो लाख के इंतज़ाम की बात की थी और पापा तो मेरी सारी जिंदगी का ही इंतज़ाम कर गये।"
