फ़साद

फ़साद

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जय भवानी, जय भवानी, या अली, या अली ये आवाज़ें बहुत ज़ोर से आ रहीं थी तख़ल्लुस को लगा कि कोई जुलूस निकल रहा है (जी हाँ सही पढ़ा आपने लंगड़े खाँ शायर मिज़ाज थे तो उन्होंने अपने बेटे का नाम तख़ल्लुस रख दिया)।

 हलांकि तख़ल्लुस की दिमागी हालत ठीक नहीं थी पर वो किसी के लिये ख़तरा नहीं था। सो उसे बाहर निकलने और सबके साथ उठने-बैठने की छूट थी। 

जय भवानी और या अली के नारों के बीच अरे बाप रे, अम्मी, अम्मी, अब्बू की अवाज़ें भी आ रही थीं। तख़ल्लुस सोच में पड़ गया कि हिन्दुओं का जुलूस निकल रहा और मुसलमानों का जुलूस निकल रहा और ये कौन लोग हैं जो माँ-बाप के नारे लगा रहें? क्या इनकी नज़र में इनके ख़ुदा इनके माँ-बाप हैं? अगर माँ-बाप ख़ुदा हो सकते हैं तो निखट्टू अंसारी के बच्चे उन्हें मारते क्यों हैं?

तख़ल्लुस ये सब सोच ही रहा था कि नारों की आवाज़ बुलन्द हो गयी। अब नारों में मुहब्बत-जोश नहीं, बदला और नफ़रत टपक रही थी।

लंगड़े खां जल्दी से घर में दाख़िल हुए और चिल्ला कर कहने लगे हिन्दू- मुस्लिम फ़साद हो गया है कोई घर से न निकले!

आवाज़ों का ज़ोर इतना बढ़ गया था मानो घर में ही नारे लग रहे हों। 

दिन भर के फ़साद के बाद शाम हो चुकी थी, मगर आज की शाम महसूस करने में बेवा लग रहीं थीं, रोज़ की तरह आज भी सूरज डूब रहा था, मगर आज बात कुछ और थी आज लग रहा था की सूरज डूब नहीं रहा है बल्कि दम तोड़ रहा है।

दिन भर तख़ल्लुस सुनता रहा की हिन्दू ने मुसलमान को मारा और मुसलमान ने हिन्दू को मारा, किसी ने ग़ौर नहीं किया मगर से सब सुनकर वो बहुत ख़ुश हो रहा था।

शाम को रात निगल ले इससे पहले तख़ल्लुस घर का दरवाज़ा खोल कर बाहर चला गया और खुद से कहने लगा "यार आज लड़ाई तो ज़बरदस्त हुई है चलो चलकर देखे कौन जीता।"

वो घर से निकला और थोड़ी दूर ही चला होगा की उसके कानों में मन्दिर के घण्टों की आवाज़ आने लगी वो इससे पहले कुछ सोच पाता उसके कानों में श्लोक की आवाज़ गूँजने लगी। तख़ल्लुस सड़क पर ही दिल पकड़ कर बैठ गया और चीख़ कर रोने लगा और रोते हुए कहने लगा “हाय! हाय! मेरा इस्लाम हार गया, मुसलमान हार गया, आज के फ़साद में मुसलमान हार गया। अब्बा हम लोग हार गये, अब्बा हम लोग हार गये!'

इससे पहले कि वो रोते-रोते बेहोश होता उसके कान में आवाज़ आयी " अल्लाह हो अकबर! अल्लाह हो अकबर"

तख़ल्लुस ने एकदम से आंसू पोंछे और ध्यान से सुनने लगा और खुद से ख़ुशी में बोला, "अबे ये तो अज़ान की आवाज़ है, ये तो अज़ान की आवाज़ है।"

और अचानक ख़ामोश हो गया कुछ सोचा और भागता हुआ घर में दाख़िल हुआ और बिना रुके अपने बाप लंगड़े खां के सामने खड़ा हो गया।

वो कुछ बोलता इससे पहले उसकी नज़र दूसरी कुर्सी पर बैठे लूलम मिश्रा पर पड़ी। दोनों दोस्तों के चेहरे ऐसे उतरे हुए थे जैसे उन्हें किसी ने बीच सफ़र में ग़लत पता बताकर लूट लिया हो। 

बहरहाल  तख़ल्लुस ने अचानक दोनों दोस्तों से सवाल पूछा कि आज सुबह से फ़साद हो रहा है, मैं ये सोचकर ख़ुश हो रहा था कि इस फ़साद में कोई एक बचेगा और दूसरा मर जायेगा। और फिर कभी दोबारा फ़साद नहीं होगा, जब घर से निकला देखने कि कौन जीता? कौन हारा? तो मन्दिर की घण्टी बजी , घण्टी सुनकर लगा कि हिन्दू मज़हब जिन्दा है और मज़हब-ए-इस्लाम हार गया, मैं बहुत रोया अपने मज़हब की हार पर, मगर बीच में ही अज़ान होने लगी मैं हैरत में पड़ गया और सोचने लगा जिन्दा तो इस्लाम भी है फिर हारा कौन?जब मज़हब नहीं लड़ता तो उसके मानने वाले क्यों लड़ते? जब एक मज़हब को दूसरे मज़हब से कोई बैर नहीं तो उसके मानने वाले क्यों आपस में बैर रखते हैं?

और जब फ़साद हो रहा था तो आप दोनों क्यों नहीं आपस में लड़े? आप दोनों का मज़हब भी तो अलग है, लंगड़े खां खड़े हुए और भर्राई आवाज़ में कहने लगे, दोस्त लूलम तू कहता था न तख़ल्लुस के दिमाग़ का इलाज करवा अब तू ही बता दिमाग़ किसका ख़राब, इसका जिसको दुनिया पागल कहती है? या इस दुनिया का जिसको ये पागल समझदार समझता है?

लूलम ने जवाब में चन्द आँसू बहा दिये और दोनों दोस्त गले मिलकर बिलख- बिलख कर रोने लगे। 

तख़ल्लुस फिर से सन्नाटे में था उसकी समझ में नहीं  रहा थे कि ये दोनों क्यों और किस बात पर रो रहें हैं?

बस वो ये कहते हुए चला गया -अब्बू अगली बार जब फ़साद करवायें तो सब से कह दीजियेगा की तख़ल्लुस को नतीजा भी चाहिये। ये बे-नतीजा "फ़साद" का क्या मतलब?...”

 


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