पहला प्यार
पहला प्यार
आज अगर हम दोनों किसी बस स्टेशन या रेलवे प्लेटफार्म पर संयोगवश पास से गुजर भी जायें तो शायद कोई किसी को पहचान नहीं पायेगा...
वक्त ने न जाने कितनी लकीरें खींच दी हैं मेरे चेहरे पर, उसका चेहरा भी तो अछूता न रहा होगा.... क्या पता अब भी उसके बाल उतने ही होंगे या, ज़िंदगी की आपाधापी में वक़्त की कमी ने उस कमर तक बलखाती नागिन को अपने हिसाब से निगल लिया होगा...
समय सारे निशान मिटा देता है लेकिन यादें नहीं छीन पाता... वह मेरी स्मृति के किसी कोने में अभी भी बनी हुई है, सुना है 'बच्चों' को पढ़ाती है... आज भी ‘प्रार्थना’ गाती है कहीं, मेरे बचपन की, मेरी 'वो' सहेली...
कितने ही साल हुए आख़िरी बार कितने ही सावन पहले एक बार मेरे घर के आँगन में लगे नीम के झूले के पास खड़े भीड़ में, अपना कुछ छुपाकर, अपने आप को कुछ छुपाकर, उसने एक छोटे से बच्चे को ये कहा था “जा ये चिट्ठी तेरे मामा को दे आ...”
भीनी वो चिट्ठी आज भी उसकी कितनी ही गर्म सूखी चिट्ठियों के बीच, ‘यादें’ निचोड़ती हैं और, मैंने उस से किये वादे के मुताबिक उन्हें आज भी सहेजकर रक्खा है, उसने कहा था “मैं इन खतों को अब अपने पास न रख पाऊँगी... तुम्हारे हैं अब ये अब ‘हमारे’ न हो पायेंगे...
सूरज उस रोज शाम अचानक डूबा था, सौंप गया था रात के अँधेरे के हाथ, उसकी हंसी हंसी में किसी धीमी धीमी ढलती शाम, कही वो बात “शादी के बाद इन्हें जब हम साथ बैठ पढ़ेगे तो कितना अच्छा लगेगा...
मैं तब से रात के अंधेरों में खोया, गुम हुआ, बहुत कुछ, ‘छुपा हुआ’ पढ़ता हूँ.... अब तक!