फिसलन
फिसलन
जमाना बड़ा बुरा आ गया है । जिधर देखो वो ही फिसलन के मारे धड़ाम से गिर रहा है । कोई जाम में फिसल कर डूब रहा है को कोई काम में । कोई दौलत में फिसल रहा है तो कोई शोहरत में । अभी कल ही हमको "हुस्न वाली गली" में जाना पड़ गया । अब क्या बताएं साहब , किस कदर चिकनी चिकनी गलियां हैं हुस्न की, कि जरा सा आगे बढ़ते ही फिसल कर धड़ाम से गिर पड़े और फिर ये बेदर्द हुस्न वाले खूब जोर से तालियां बजाकर हंसने लगे।
पहले तो ये आंखों से मदिरा की वर्षा करते हैं । इस मदिरा से चिकनाई खूब हो जाती है । और जब चिकनाई होगी तो फिसलन भी स्वतः होगी ही । यहां पर कैसा भी सयाना आता है वह फिसले बिना रह नहीं सकता है। कोई अगर "आंखों वाली गली" से बचकर भी निकल जाए तो घटा रूपी जुल्फें अपनी गली में बुलाने लगती हैं । वहां बादलों ने पहले ही बरस बरस कर "दलदल" बना दिया है । अब, कोई उससे कैसे बचकर निकल सकता है ?
थोड़ा और नीचे आओगे तो चिकने चेहरे की चिकनाहट में ऐसे फिसलोगे कि सीधे ही गालों में पड़े "डिंपल" में जाकर धड़ाम से गिरोगे । गुलाब की पंखुड़ियों सी कोमलता वाले अधरों पे लाल लाल लिपिस्टिक से ऐसी चिकनाई लगाते है ये हुस्न वाले कि वह नजर तक को वहां पर टिकने नहीं देती है । आशिक लोग फिसलकर सीधे दिल में जाकर गिरते हैं । इसलिए हमने तो अब यह सबक ले लिया है कि अब कभी भी "हुस्न वाली गली" से गुजरने की कोशिश नहीं करेंगे।
अभी आज ही अपने हंसमुख लाल जी की थोड़ी जुबान फिसल गई थी । बस, फिर क्या था ? खूब धुनाई हुई उनकी । हंसमुख लाल जी कहते ही रह गये कि यह जुबान तो अपने आप ही फिसली थी , उसमें उनका कोई कसूर नहीं है ? लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है , भला ?
आजकल नेताओं की जुबान भी बहुत फिसल रही है । टेलीविजन पर लाइव डिबेट में जिस तरह प्रवक्ता और एंकर की जुबान फिसल रही है वह गजब का बखेड़ा खड़ा कर रही हैं । पहले तो अनाप-शनाप बक जाते हैं ये लोग लेकिन जब बाद में उस पर "थुक्का फजीहत" होने लगती है तब कहते हैं कि उनके बयान के साथ कुछ छेड़छाड़ की गई है । उन्होंने ऐसा कुछ कहा ही नहीं था ।
लोग कहते हैं कि जब कोई आदमी या औरत जवानी की दहलीज पर खड़ा होता है तब उसके "फिसलने" के चांस बहुत ज्यादा होते हैं । अब ये अलग बात है कि कोई आदमी या औरत उसमें फिसलता है या नहीं, यह उसकी कलाकारी पर निर्भर करता है।
फिसलने के लिए बहाने बहुत हैं। कोई "हरे और लाल नोट देखकर" फिसल जाते हैं तो कोई "कंचन काया" देखकर फिसल जाता है । कोई कोई तो चावल की चंद बोरियों में ही फिसल कर अपना दीन ईमान भी बेच आता है । चांदी के चंद सिक्कों की खातिर अपना ईमान बेचते हुए बहुत सारे लोग मिल जाएंगे ।
कोई "गंगा की सौगंध" से ही फिसल जाता है तो कोई चुल्लू भर पानी से । अपनी अपनी औकात के अनुसार लोग फिसलते हैं । हमने तो बड़े बड़े कलाकारों को केवल तालियों पर ही फिसलते हुए देखा है । कुछ कलाकार "पुरस्कारों" पर फिसल जाते हैं। इसलिए फिसलने का भी एक शास्त्र है जिसके प्रकांड पंडित यहां प्रतिलिपि पर भी विराजमान हैं और जब चाहे तब वे इस "कला" कि प्रदर्शन करते रहते हैं । फिसलन "शाश्वत सत्य" है , इससे जो बच गया वह "अमर" हो गया है ।
