नया सूरज

नया सूरज

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‘नहीं, अब और नहीं सहेगी वह, बस... बहुत हो चुका, किसी की नहीं सुनेगी, किसी कीमत पर नहीं सुनेगी। सुनेगी, तो केवल अपने मन की, करेगी तो अपने मन की।’ सब्जी काटते- काटते माधुरी मानो अपने पर ही झुंझला उठी थी।

‘छनननन...।’ कढ़ाई में तेज़ गरम तेल में जैसे ही सब्जी डाली, भाप और धुएँ के बादल के साथ माधुरी ने अपने निर्णय पर मानो मुहर लगा दी थी। वह तेज़ी से कढ़ाई में कलछुल चलाने लगी और उतनी ही तेज़ी से उसका मन पीछे की ओर मुड़कर दौड़ने लगा। मन के पीछे वह भी दौड़ पड़ी।

बचपन से ही माधुरी अपनी सहेलियों और रिश्तेदारों में ‘विचित्र प्राणी’ और ‘विद्रोही’ के रूप में प्रसिद्ध थी। एक आग सुलगती रहती थी उसके अन्दर जिसकी ज्वालाएँ अब किसी भी कीमत पर शांत होने को तैयार नहीं थी। मानो उन ज्वालाओं ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया था, जिन्हें वह शालीनता, संस्कारो और मर्यादाओ के छींटे डाल-डाल कर बुझाती रही। पर, छीटो से भी कोई दावानल शांत हुआ है, जो अब होगा।

कुकर में दाल के साथ हल्दी व नमक डालते हुए जैसे ही उस पर ढक्कन लगाया, वह ‘चट’ की आवाज़ के साथ बंद हुआ और उधर दूसरे ‘चट’ की आवाज़ के साथ यादों पर लगा ढक्कन खुल गया।

बचपन से ही सौम्य, सरल स्वाभाव, कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा की धनी माधुरी की शिराओं में रक्त नहीं संस्कारों, नैतिकता और आज्ञाकारिता के विटामिन और मिनरल्स प्रवाहित थे। जो देखता, उसकी शालीनता पर रीझ उठता। सुन्दर तो थी ही अपनी माँ जैसी। किन्तु विटामिन्स और मिनरल्स के साथ उसके रक्त में कुछ ऐसे कीटाणु भी रेंगते थे जो सुप्तावस्था में रहते हुए जब तब उभरते, बीच बीच में विद्रोही की अग्नि भड़काते और संस्कारो की एंटी-बायोटिक- खा कर चुप रह जाते किन्तु मर न पाते। झूठी मान्यताओं और थोथी परम्पराओं को न चाहते हुए भी मानते रहने की अपनी विवशता वह कभी समझ नहीं पायी।

उसके माँ-पिता जी ने उसके भाइयों बहनों में शिक्षा व संस्कारों को लेकर कभी कोई भेद-भाव किया हो, ऐसा उसे याद नहीं पड़ता। बस...एक ही बात उसे हमेशा सालती रही और वह थी, पिताजी का माँ के प्रति उपेक्षित व अपमानजनक व्यवहार। उस पर भी माँ का दोनों बहनों को सदा सहन करनी की शिक्षा देना। उसे बुरा लगता था जब माँ पिता के तानों और अपमान को सहना, कुछ न कहना अपना कर्त्तव्य समझती और ऐसा करना पिता का पुरुषोचित अधिकार। आखिर क्यों करतीं हैं माँ ऐसा? क्यों कुछ नहीं बोलतीं? अगर वह उनकी जगह होती तो यों कभी चुप न रहती। बिस्तर पर नींद का बहाना कर बंद मिंची हुई आँखों से चुप होकर जब भी उसने पिता की लाल आँखें और माँ का उतरा चेहरा देखा, उसने यही निश्चय किया कि वह कभी माँ जैसा नहीं सहन करेगी। हरगिज़ नहीं सहेगी!!

समय बीतता गया, वह बढ़ती गयी, पढ़ती गयी, परिस्थितियां बदलीं और मौसम भी। पढ़ी-लिखी स्वतंत्र विचारों वाली, आत्मविश्वास से लबालब हर प्रतियोगिता को जीतने वाली माधुरी विवाह के बाद जैसे अपनी माँ का जीवन ही दोहराने लगी थी। भीतर विद्रोह का तूफान सँभालती और बाहर से शालीनता, मर्यादा की विवशता से उस तूफान को भीतर ही दबाये रखती थी। पिता के दूसरे रूप में पति उसके सामने खड़े मिलते।

खाना लगभग तैयार था। माधुरी ने घड़ी पर उड़ती निगाह डाली। बच्चों के आने में अभी थोड़ी देर थी। चाय का प्याला लिए वह बालकनी में जा बैठी। चाय के घूंट हलक के भीतर समाते रहे और यादों की परतें उघड़ती रहीं।

माधुरी ने राहुल व रोहिणी को अपने तरीके से पाला था। अपने संस्कार दिए। ससुराल व मायके वालों की इच्छा के विरुद्ध। जब भी राहुल ने पुरुषोचित संस्कारों के वशीभूत होकर रोहिणी को सताने की चेष्टा की, भले ही बचपने में या मज़ाक में, उसने तब तब राहुल को आड़े हाथों लिया था। लड़की होने के नाते उसने रोहिणी को चुप रहकर पीड़ा या अपमान सहना नहीं सिखाया और न ही राहुल को लड़का होने के नाते अधिकारों का दुरूपयोग ही कभी करने दिया था।

दफ्तर के कामों में उलझे पति को समय ही कहाँ था जो बच्चों को देखते। पर हाँ, इतनी व्यस्तता में भी पुरुषोचित अधिकारों का प्रयोग करना वे कभी न भूलते थे।

‘नहीं’ वह माँ जैसी हरगिज़ न बनेगी ! कभी नहीं!’ चाय के अंतिम घूँट को हलक में उडेला और उठ खड़ी हुई। उसका चेहरा ताना हुआ किन्तु शांत मुद्रा थी। 

वह शुभ घड़ी आखिर आ ही गयी जिसका सभी को इंतजार था। कल रोहिणी का विवाह है। माधुरी का घर रंगीन बल्बों और झालरों से जगमगा रहा था। समस्त वातावरण बेला, गुलाब और गेंदे के फूलों की खुशबुओं से सराबोर था। घर रिश्तेदारों और मित्रों से भरा पड़ा था। बच्चों की उछल-कूद, ढोलक की थाप, स्पीकर पर नए ज़माने के फ़िल्मी गाने, फिर भी इस शोर में माधुरी के मन की आवाज़ दब नहीं पा रही थी। इधर लड़कियों की हथेलियों पर सजती रही मेहँदी और उधर सज रही थी माधुरी के मन में एक अनोखी जगमगाती छवि, नए सूरज में नए रंग भरने की तैयारी में थी माधुरी। एक नया कैनवास अब उसने अपने मन में जमा लिया था।

सुबह ही रोहिणी के साथ माधुरी ने नाश्ता करते समय किसी को भी उपवास न करने की जब सलाह दे दी तो रिश्तेदारों में खुसुर-फुसुर तेज़ होने लगी। ”ऐसा क्यों?’ सबने पूछा। इस क्यों का जवाब देना अभी बाकी था।

पूरे जीवन भर परम्पराओं और रूढ़ियों को कोसती हुई भी बेमन से उन्हें स्वीकार करने वाली माधुरी मन ही मन ईश्वर से शक्ति देने की प्रर्थाना कर रही थी। सुबह से पति व अन्य रिश्तेदारों से न जाने कितनी बार उसकी झड़प हो चुकी थी। कई बार उसे लगा जैसे वह टूट ही जाएगी। पर नहीं! अबकी बार नहीं! अपने नए सूरज का उजाला देखे बिना वह न टूटेगी।

मंडप में अग्नि के समक्ष यज्ञ वेदी के निकट बैठे रोहिणी और अनुज ने वकील मजिस्ट्रेट व गवाहों के सामने रजिस्टर पर पहले हस्ताक्षर किये और फिर वैदिक रीतियों को विधि विधान और सच्चे मन से संपन्न करने लगे। आँचल गाँठ के पश्चात पंडित जी ने कन्यादान की रस्म को शुरू करने के ऐलान किया।

अपनी सारी शक्तियां बटोर कर माधुरी लगभग चिल्ला ही पड़ी, “नहीं, नहीं होगा कन्यादान! कोई नहीं करेगा मेरी बेटी का कन्यादान।” सभी आश्चर्य, क्रोध और तिरिस्कार से माधुरी की ओर देखने लगे।

“मैं ऐसी किसी परंपरा को, रीति-रस्मों या रिवाजों को हरगिज़ नहीं मानूँगी, न अपनाऊंगी जो सदियों से स्त्री को अपना गुलाम बनाती, झुकाती, दबाती और प्रताड़ित करती आई है। जिनके कारण पति स्वामी और पत्नी उनकी दासी बनकर उसके हर अत्याचार और अन्याय को सहती आई है।”

चारों तरफ सन्नाटा सा पसर गया। माधुरी ने सन्नाटे को चीरते हुए दोबारे कहना शुरू किया, “फेरे होंगे, सात वचन भी पढ़े और सुने जाएंगे... पर कन्यादान की रस्म हरगिज़ नहीं होगी। बेटी कपड़े-लत्ते, रुपए- पैसे के समान दान में दी जाने वस्तु नहीं है... उसे वह मोक्ष नहीं चाहिए जो अपनी बेटी को पराया करके ही मिले। ऐसे स्वर्ग का वह क्या करेगी जो कोख जाई को ससुराल में कोई भी दुःख और कष्ट पड़ने पर उसके आँसू पोछने, उसकी सहायता करने के माँ-बाप के अधिकार तक छीन ले और बेटी को जीते जी नरक में धकेल दे।”

“देखिए जजमान, विवाह की रस्म ‘कन्यादान’ की रस्म को पूरा किये बिना बिल्कुल पूरी नहीं होगी” पंडित जी ने त्योरी चढ़ा कर दबंग आवाज़ में घोषणा की।

‘माफ़ कीजिएगा पंडित जी, विवाह तो हो चुका है। वह देखिये।। रजिस्टर में रोहिणी और अनुज पति-पत्नी के रूप में दर्ज हो चुके हैं। आपके मानने या न मानने से अब कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

“हाँ, हाँ, बहुत देखे हैं तुम्हारे जैसे। राहुल की शादी में देखेंगे तुम्हारी ये चोंचलेबाजी।” बनारस वाली चाची सास ने हाथ नचा कर कहा।

“चाची जी, मैं दान में मिली कन्या को अपनी कुल लक्ष्मी कभी स्वीकार नहीं करुँगी।” माधुरी के चेहरे पर आत्मविश्वास और इत्मिनान के भाव साफ़ नज़र आने लगे। पति ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि माधुरी ने जोर से कहा ...“चाहे जो हो जाए। किसी को बुरा लगे या भला लगे, परवाह नहीं। नरक मिले या स्वर्ग। मोक्ष मिले न मिले। किन्तु मैं अपनी बेटी का दान नहीं करुँगी।” क्षण भर को रुक कर उसने फिर कहा...

“आप सभी से विनम्र आग्रह है कि नव वर-वधु को उनके भावी सुखमय जीवन के लिए अपना आशीष दें भोजन का आनंद लें।” 

रोहिणी और अनुज के साथ राहुल भी माँ के गले लग गया। मेहमानों की भीड़ में उपस्थित लड़कियों की नज़रें अपनी-अपनी माँओं के चेहरे को टटोलने लगीं।

बहुत खुश और संतुष्ट थी माधुरी आज। माधुरी के भीतर की अग्नि, जिसने दावानल का रूप ले लिया था, पिघल कर आँखों की कोरों से बह निकला। अपने बच्चों को सीने से चिपकाये वह न जाने कितनी देर तक मन की शीतलता को महसूस करती रही। आखिर कुछ हद तक ही सही थोथी परम्पराओं के मकड़जाल को काट सकी थी। अभी और कितने मकड़जालों को काटना बाकी है। अपने रचे हुए सूरज का उजाला देख अपने तन-मन को भिगोती रही थी माधुरी।

 

 


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