नशा मुक्ति
नशा मुक्ति
दीपावली के दिन की घटना याद आ रही है।
उस दिन बाहर बैठा हुआ ऊपर आकाश में उड़ते पंछी को देख रहा था। पंछी अपनी चोंच मे दाना लेकर चूजों को खिला रहा था। पंछी का अभिवादन चूजे पंखों को फडफड़ा कर तालियों के समान कर रहे थे। ऐसा लग रहा था की मानों रोज दीवाली हो। ठीक उसी पेड़ के नीचे बने घर में माँ अपने भूखे बच्चों के लिए दीपावली के दिन अपने पति का इंतजार इस उम्मीद से कर रही थी की वो इनके ले कुछ ना कुछ तो जरुर लायेंगे किन्तु शराब के नशे में धनतेरस पर जुएं में हार कर लड़खड़ाते कदमों से घर आने पर मोहल्ले वाले करने लगे उसका गालियों से अभिवादन और मैं बैठा सोचने लगा की अच्छा है पंछी शराब नहीं पीते।
नहीं तो उनके भी हालात उस इंसान की तरह हो जाते जिनके बच्चे दीपावली पर्व पर पेड़ के नीचे बने घर में भूखे सो गए थे। अब वो शराबी इंसान अब इस दुनिया में नहीं रहा किन्तु उनकी माँ मजदूरी कर के अपने बच्चों के संग दुःख की पहली दीपावली देख रही और सोच रही है कि बच्चों के पिता शराब नहीं पीते तो बच्चे, पिता के संग पटाखे और रोशनी के दीप जलाते।