नानी गाँव का तोहफ़ा
नानी गाँव का तोहफ़ा
हमारी कार सँकरा मोड़ पार करके थोड़ी धीरे हो गई। मैं कार के अंदर एक पैर पर दूसरा पैर लाद, लंबा करके बैठा था। अधखुली आँखें शायद मैं पूरी तरह सोना भी नहीं चाहता था, टोपी सामने से झुकी लटक रही थी असल में मैं टोपी के सहारे अपना चेहरा ढँकना चाहता था जो बेवजह की नींद लिए सुस्ताए हुए थी।
यह एक प्रकार से इशारा था कि कोई मुझे तंग न करें। चहल-पहल काफ़ी हो रही थी, मैं देख नहीं पा रहा था क्योंकि मैं दरवाज़े की काँच से कुछ नीचे लेटा पड़ा था। लेकिन आवाज़ों से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि हम गाँव पहुँच गए।
देर दोपहर हम नानी घर पहुँचे। घर पहुँचते ही मेल-मिलाप की रस्में निभायी गयी। हाल-चाल की पूछ परख हुई, कई मुद्दों पर बहस बाक़ी थी कि इसी बीच बातें करते-करते शाम हो गई। रात होने को आयी तो बिस्तर तैयार किया गया, मगर नींद आने से रही। ये गाँव में होने का सुकून था जो सुकून से सोने नहीं दे रही थी। एक बड़े कमरे में सब एक साथ सोए हुए थे।
तभी मैंने सोचा जब गाँव आए है तो छत पर या आँगन में सोया जाए। सो छत पर सोना तय रहा। कितने दिनों बाद हम खुली आकाश के नीचे सोए थे, सितारों की महफ़िल, चाँद का तकना। शहर में थकान भुलाने के लिए यह भी नसीब नहीं होता। शहर की अपनी बंदिशें होती है और गाँव की अपनी बंदिशें। ये मेरे अकेले का ख़्याल तो नहीं होगा मेरे साथ सोने वाले मम्मी, पापा, बहन-भाई सभी यही सोच रहे होंगे। कुछ देर तक तो किसी को नींद ही नहीं आयी, नानी से गाँव पर थोड़ी चर्चा और हो गयी।
सुबह की ठंडी हवा ने हमें मीठी नींद से उठा दिया। गाँव में सवेरे उठने पर दुःख भी नहीं होता। शहर की बात ही क्या करें जो सुबह-शाम गरमाया रहता हैं। क्या ही ख़ुशनुमा माहौल था। हम जहाँ सोए थे वहाँ नीम के पत्ते बिखरे हुए थे। घूमने के लिए तो गाँव की गलियाँ ही बहुत हैं सो हम निकल पड़े पैदल गाँव की सैर में। आस-पड़ोस के लोग हमें ही देखे जा रहे थे, समझ तो गए थे मेहमान आए हैं। ग़ौर करने वाली बात थी कि उनके चेहरों पर भी मुस्कान थी। गाँव में किसी के घर भी मेहमान आए ख़ुशी सबके चेहरों पर होती हैं। गाँव में कुछ नये दोस्त भी बन गए, कुछ तो परिवार के ही थे जिनसे बचपन में ज़्यादा हेल-मेल नहीं हो पाया था।
काफ़ी मौज-मस्ती हुई। कुछ दिन नानी के घर बिताने के बाद अब लौटने का समय था। जाने के एक शाम पहले यूँ ही मायूसी छा गई जो मेरे भाई-बहन के चेहरों पर भी साफ़ झलक रही थी। लौटने का मन नहीं था मेरा झुकाव कुछ दिनों में ही गाँव की तरफ़ हो गया था। गाँव, बचपन की मौज-मस्ती तक ही सीमित नहीं था। बड़े होते तक यह बात मैं समझ चुका था कि क्यों आख़िर गाँव को सुकून कहा जाता हैं।
नानी बगीचे में थी। हम भी वहाँ पहुँचे। मैंने जूता निकाल लिया अब मेरे पैरों को ठंडी मिट्टी की लत लग गई थी। जब मिट्टी की ठंडक पैरों से होते हुए बदन पर चढ़ती है तो इसका अनुभव बताया नहीं जा सकता। कुछ कसक बाक़ी थी। नानी को अपना ख़्याल रखने की हिदायत दी गई। सब कुछ सोचते कहते अन्ततः: हमने सामान बाँध लिया और नानी घर से रवाना हुए।
दो नैसर्गिक खुशबुओं से हर आदमी का पाला पड़ा होता हैं। पहली हल्की बारिश के बाद मिट्टी की सौंधी खुशबू और दूसरी सूखे पत्तों को इकट्ठा करके आग के हवाले करने पर जो धुएँ के गुबार के साथ आती है वो खुशबू...अहा! गाँव से वापसी करते हुए दूसरी तरह की खुशबू से वाबस्ता हुआ। दरवाज़े की खिड़की खुली हुई थी, मैंने जब तक देखा तब तक हमारी कार धुएँ को चीरते हुए आगे निकल गयी थी। लेकिन उसकी खुशबू को मैंने नहीं छोड़ा, जब तलक मुझे उस खुशबू का अहसास होता रहा मैं लंबी-लंबी साँसे लेकर उसका आनंद लेता रहा।
पत्तों की जलने की ये भीनी-भीनी खुशबू, कितना कुछ रहता है इसमें। पुरानी कोई यादें ज़ेहन में उतर जाती है, बदन में सिहरन पैदा कर जाती है। नानी घर में बिताए कुछ पल इसी भीनी-भीनी खुशबुओं में लिपटी हुई थी। जल्दी वापसी करना अखर रहा था।
मैं सोच रहा था शायद गाँव कुछ दिन बिताने के लिए ही होता हैं जैसे जलते हुए पत्ते की भीनी-भीनी सुगंध दूर से ही अच्छी लगती है। पास से देखो तो सिवाय धुआँ के कुछ नहीं। हम अपने घर पहुँच गए। मैंने कार का दरवाज़ा खोला, उसमें धुएँ की परत महसूस किया। क़रीब से देखा तो उसमें वही महक आ रही थी जो मैंने गाँव से निकलते वक्त महसूस की थी। यह खुशबू ही शायद 'नानी गाँव का तोहफ़ा' था जिसे मैं अपने साथ ले आया...।
