नाम से, ना तो नियत का पता चलता है ना ही नियती का
नाम से, ना तो नियत का पता चलता है ना ही नियती का
सीमा पर युद्ध अपने चरम पर था। दोनों तरफ से गोलियों की आवाज़ बंद ही नहीं हो रही थी। मेजर धीरज अपने कुछ साथियों की मदद से दुश्मनों का सामना कर रहे थे। मेजर धीरज ने जैसे ही दुश्मन सेना के एक जवान के सिर पर गोली मारी, वह उत्तेजित हो गया। उसने और जोश के साथ आगे जाने का फ़ैसला किया। बिना सोचे समझे और बिना कवर फायर लिए वह आगे बड़ा मगर यह क्या दुश्मनों ने एक के बाद एक ग्यारह गोलियाँ उसके शरीर में उतार दी। अपने अफ़सर की खौफनाक मौत देख कर सूबेदार हिम्मत सिंह और सिपाही बहादुर सिंह डर के मारे भाग खड़े हुए।
युद्ध का क्या हुआ, मैं नहीं जानता मगर इतना जान गया कि "धीरज" नाम रख लेने से कोई धैर्यवान नहीं होता और हिम्मत या बहादुर नाम का हर आदमी साहसी नहीं होता। नाम से ना तो नियत का पता चलता है, ना ही नियती का फिर वो नाम राम हो या तैमूर क्या फ़र्क पड़ता है?
