Rajeev Upadhyay

Drama

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Rajeev Upadhyay

Drama

मुक्कमल होने को शापित हैं

मुक्कमल होने को शापित हैं

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हर पीड़ा अपने आप में मुक्कमल होती है परन्तु जब वो नासूर बनकर चुपचाप रिसती चली जाती है तो वो जाने-अंजाने समय की दीवार पर एक नई कहानी लिख रही होती है जिसकी इबारतों में हमारी सांसों की स्याही अपना हुनर कुछ इस तरह दिखलाती है कि सब कुछ आँखों के सामने होता है और कुछ भी परदे से बाहर भी नहीं निकलता है। शायद जिन्दगी की तस्वीर कुछ यूँ करके ही मुक्कमल होना जानती है या फिर तस्वीरों में रंग शायद ऐसे ही भरा जाता है। या फिर हमारे दर्द का रंग चटक होकर आँखों से ओझल होना जानता है कि हम अपनी कहानियों के कुछ ऐसे पहलुओं से भी रूबरू हो सकें जो हमारे अपने लिए ही एक अचम्भा सा लगता है। कि यकीन ही नहीं होता कि कुछ ऐसे भी पहलु हैं हमारे अंतस के जिसे हमें बहुत पहले ही जान लेना चाहिए था।

सदियों ने स्त्री को कुछ इस तरह की ही पीड़ा देने का शायद रिवाज सा बना लिया है या फिर कहें कि यूँ करके ही सदियाँ मुक्कमल होने को शापित हैं। वो स्त्री जो हमारे आस-पास किसी ना किसी रुप में जन्म से लेकर मृत्यु तक रहती है, जो हमारे हर पीड़ा की चिन्ता करती है, उसी से हम इतना अनिभिज्ञ रहते हैं कि उसकी पीड़ा हमें अक्सर पीड़ा के रुप में दिखाई ही नहीं देती। दिखाई देना तो बहुत दूर की बात है; पता ही नहीं लगता कि शायद उसे कोई पीड़ा भी है। और कई बार तो यही पीड़ा बस हँसने का कारण भी होता है।

कई बार किसी पुरूष को ये दिखाई देता भी है तो अजीब कश्मकश होती है। स्त्री अपनी पीड़ा को पीड़ा ही नहीं मानती और जो मानती है वो जाहिर ही नहीं होने देती है। उसके लिए जैसे ये महत्त्वपूर्ण है ही नहीं। पता नहीं जाने क्यों ? कोई डर है या फिर पुरूष पर अविश्वास या फिर कुछ और ही ?


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