Pragya Gaur

Drama

4.9  

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मित्रता की कसौटी

मित्रता की कसौटी

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ऋचा और प्राची कहने को तो तीन वर्ष से ही एक दूसरे को जानती थीं, किन्तु उनकी घनिष्ठ मित्रता देखकर ऐसा लगता था मानो वे एक दूसरे से अभिन्न हों। 10 वर्ष की प्राची अभी तीन वर्ष पूर्व दिल्ली से मुम्बई अपने परिवार सहित आई थी। वह ऋचा से पहली बार घर के निकट एक पार्क में मिली। कुछ समय उपरांत ही वे इतना घुलमिल गए क्यों कि उन दोनों को खेल कूद में अत्यधिक रुचि थी एवं उन्हें अपने मन की बात करने का अवसर कठिनाई से ही मिलता था। ऋचा एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का हिस्सा थी जहाँ उसके पिता एक दुकान की देखरेख करते थे एव माँ की अकाल मृत्यु हो गई थी। वहीं प्राची एक उच्चाधिकारी पिता की बेटी थी एवं माँ एक अंतर्राष्ट्रीय बैंक में प्रबंधक थीं।

हालांकि दोनों के सामाजिक परिवेश में बहुत अंतर था, किन्तु दोनों बहुत हंसमुख थी और सदैव स्पष्ट बात करती थीं। यही कारण था कि दोनों के बीच परस्पर प्रेम था और किसी भेदभाव से परे था। खेलकूद के अतिरिक्त प्राची और ऋचा पढाई में भी सहयोग करते थे। ऋचा पढ़ने में बहुत मेधावी थी इसलिए प्राची उससे कठिन प्रश्न सुलझाने में सहयोग लेती थी। वह अच्छे विद्यालय में पढ़ती थी जहाँ उसे अनेक प्रतियोगिताओं में भाग लेने का अवसर मिलता था। वह स्वयं अपने अनुभव और सामान्य ज्ञान सहर्ष भाव से ऋचा को बताती थी। दोनों की निस्वार्थ मित्रता अपने आप में एक मिसाल थी।

क दिन वे बैडमिंटन खेलते हुए अपने दिन भर की क्रिया कलाकलापों का विवरण कर रहीं थी कि प्राची के सिर पर अचानक शटलकॉक तीव्रता से लगी और खून बहने लगा। ये देखकर ऋचा के होश उड़ गए। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। प्राची ज़मीन पर बैठ गयी और दर्द से चीखने लगी। ऋचा को तो जैसे सांप सूंघ गया था और उसे समझ नहीं आ रहा था कि किसके पास जाये। उसे शर्म, डर और चिंता एक साथ सता रही थी क्योंकि चोट उसी की वजह से लगी थी और उसकी मित्र दर्द से कराह रही थी। इतने में कोई चीख सुनकर वहां पहुंचा और उसके घर में फोन कर दिया। शीघ्र ही उसे अस्पताल ले गए तो ऋचा भी उसके साथ गयी। किन्तु प्राची का मन अविश्वास से भर चुका था। वह अत्यंत दुखी थी और लगातार यही विचार उसके मन में कुलबुला रहे थे।

'ऋचा ने मेरी मदद क्यों नहीं की, क्या वह मुझे अपनी दोस्त नहीं समझती। '

'उसने मुझसे माफी तक नहीं मांगी, बस खड़े-खड़े देखे जा रही थी। '

'मैं अब कभी बात नहीं करूँगी उससे'

यह सोचते-सोचते उसकी आँखों में आंसू आ गए।

ऋचा उससे बात करना चाहती थी परन्तु अपनी कायरता पर शर्मिंदा थी। उसने किसी प्रकार साहस जुटाकर उससे पूछा "कैसी हो, ज़्यादा दर्द तो नहीं हो रहा? "

उत्तर में प्राची ने उसकी ओर उपेक्षा से देखा और कुछ क्षण के बाद कहा, 'नहीं' और मुंह फेर लिया। ऋचा और आहत हो गई और हिचकिचाते हुए बोली, 'मैंने तेरे को जानबूझकर नहीं मारा' और वहाँ से तुरंत चली गई।

उनकी मित्रता में कड़वाहट चली भी जाती यदि प्राची को उसके घर में लोग इस विषय में उलाहना न देते। उसके घर में यूँ भी कोई इस मित्रता को पसंद नहीं करता था और यहविशेष अवसर बन गया।

"सोचो वह तुम्हारी दोस्त क्यों बनी, उसके बाकी मित्र तुम्हारे जैसे नहीं है।"

"हो सकता है उसने तुम्हे जानबूझ कर मारा हो! वह बहुत चालाक लगती है"

"उसने हम में से किसी को नहीं बुलाया, खेलने के लिए आ जाती है हमारे घर"

इन सब बातों का प्राची के बाल हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा एवं उसने ऋचा से न मिलने की ठान ली। बहुत बार ऋचा उससे मिलने भी आई और अपना पक्ष रखने का प्रयास किया किन्तु प्राची के अविश्वास को बदल नहीं पाई। अन्ततः ऋचा ने भी प्रयास छोड़ दिया। हालांकि इस घटना के फलस्वरूप प्राची को मित्रता से ही घृणा हो गयी और वह लोगों से कटकर रहने लगी। उसे सामाजिक रूप से लोगों से मिलने में या खुलकर बात करने में हिचक होने लगी। उधर ऋचा इस मित्रता के टूट जाने पर दुखी अवश्य थी किन्तु उसने निर्णय लिया कि वह किसी भी समस्या का डटकर सामना करेगी।

लगभग 15 वषाॆ के उपरांत आज वे अचानक एयरपोर्ट पर अपने विमान की प्रतीक्षा करते हुये मिल गईं। ऋचा ने चाहा कि वह अनदेखा कर चली जाए किन्तु इस बार उसने परिस्थिति का सामना करने की ठान ली थी।

'हैलो प्राची, पहचाना? '

प्राची ने देखा तो था लेकिन वह संकोच कर रही थी। जब ऋचा ने उसका नाम लिया तो वह स्वयं को रोक न सकी।

"ऋचा! कैसी हो तुम? यहाँ कैसे? "

"बस हायर स्टडीज के लिए जा रही हूँ, यहाँ से कनैक्टिंग फ्लाइट है। तुम कैसी हो? "

"अरे वाह! तुम तो बहुत बदल गई हो। "

"बदल तो तुम भी गयी, कभी याद नहीं आई मेरी"

प्राची कुछ कह पाती, इससे पहले उसकी आँखों में आंसू आ गये। उसके सामने वह सारे दृश्य जीवंत हो गये जिन्हें उसने भूलने के भरसक प्रयास किये थे।

ऋचा उसके असमंजस को समझ गयी। उसने बात को भुलाने के लिए कहा, "चलो छोड़ दो इस बात को, अभी तो और भी कई दोस्त होंगे तुम्हारे। आजकल कहां हो? "

प्राची ने महसूस किया जैसे समय कहीं रुक गया हो। उसको बहुत ग्लानि हुई कि एक दुर्घटना के लिए उसने अपनी मित्र को ही भुला दिया, यहाँ तक कि उसने अविश्वास को अपनी नियति ही बना डाला। आज वह एक स्वावलम्बी व्यवसाय शुरू करना चाहती थी किन्तु उसके संकोची स्वभाव के कारण उसका सामाजिक दायरा भी संकुचित ही था। उसे जब भी लोगों की कमियाँ दिख जाती थी तो वह उनसे खिन्न हो जाती तथा उन्हें क्षमा भी नहीं करती। उसका हंसमुख व्यक्तित्व ही बदल गया था। आज उसे पश्चाताप हो रहा था कि उसने अपनी मित्रता को वर्गभेद की भेंट चढ़ा दिया और एक गलतफहमी से अपनी सोच को इतना संकीर्ण बनने दिया।

आज वह दिल खोलकर इतने वर्षों के बाद ऋचा से बातें करने लगी तो मानो उसके सारे बंधन खुल गये। ऋचा स्वयं भी जिस अपराध बोध से ग्रस्त थी, वह अब विलय हो चला था।

"अच्छा सुन, मैं बहुत डर गई थी उस दिन और मेरा दिमाग नहीं चला। माफ कर दे प्लीज, मुझे बहुत बुरा लगता है।"

प्राची हंसते हुए बोली, "चल कोई बात नहीं, अब खेलना मेरे साथ, सब हिसाब बराबर कर दूंगी। "

और दोनों जोर से हंस पडे़ जैसे वही दस वर्ष की लड़कियां किसी पार्क में बैठी हों। शायद यही मित्रता की कसौटी है जहाँ रिश्ते कभी भी शुरू किये जा सकते हैं और किसी भी मनमुटाव से मुक्त हों।


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