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Sanyam Kalra

Tragedy

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Sanyam Kalra

Tragedy

मौखिकी

मौखिकी

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लिखते लिखते उसकी पीठ पर अक्सर कुछ रेंगने लगता और उसके हाथ कलम को झटक पीछे की ओर उस रेंगने वाले कुलबुलाते कीड़े को मसलने के लिए मुड़ते फिर अचानक शरीर में कुछ कंपकंपी-सी,एक झुरझुरी-सी लगती और वह सहसा कुर्सी से उठ जाती......बीप बीप मोबाइल हरहरा उठता। प्रो. वीर सिंह ठाकुर का मैसेज था उसके लिए।

‌अगर यही होना था तो क्यों उसने शुरुआत की थी? क्या ज़रूरत थी उसे पी.एचडी होने की? क्या छूटा जा रहा था बिना पी.एचडी के? पर एक अनिवार्यता थी.....वही रोज़ रोज़ कॉलेज जाना...... लगातार तैयार किये हुए नोट्स के मुताबिक पढ़ाना......हर साल बहुत कुछ बदल जाता है और तनख्वाह??? ऊपर से प्रिंसीपल की आशाएं " इम्प्रूव योर क्वालिफिकेशन्ज़... ... ओनली फाइव पी.एच.डीज़ आर हीयर। आई फेल टू अंडरस्टैंड व्हाट माय प्रीडीसेसर्ज़ हैड डन और आप?? मिसेज़ राय?? यू हैव अ लॉट ऑफ पोटेंशियल.....यू कैन डु।"

‌और वह चली आयी थी आफिस के बाहर... जब आदेश एकतरफा था तो बहस की ज़रूरत ही नहीं बची थी....मिसेज़ राय.....मिसेज़ अलका राय .…..मिसेज़ अलका राय से डॉक्टर अलका राय होने की शुरुआत करनी थी उसे.....

‌इक्कीस दिन का रिफ्रेशर कोर्स सम्पन्न करने के लिए वह विश्वविद्यालय पहुंच गई थी। तीन वर्ष पूर्व भी वह यहीं आयी थी रिफ्रेशर कोर्स के लिए। बच्चे छोटे थे तब अम्मा को साथ लाना पड़ा था बच्चों की देखभाल के लिए।मौसम भा गया था मन को। इक्कीस दिन बहुत जल्दी निकल गए थे।

‌इस बार.... कितना ज़ोर लगाया, कितनी मिन्नतें कीं थीं....

‌"क्या ज़रूरत है रिफ्रेशर के लिए इतनी दूर जाने की?......यहां लोकल भी तो जा सकती हो। फिर क्यों.....?"

‌"कब समझोगे तुम?"...... यूनिवर्सिटी यूनिवर्सिटी में अंतर होता है ..... तुम....तुम नहीं समझ सकते । यह मेरी प्राथमिकता नहीं है। मेरी नौकरी की अनिवार्यता है यह......वहां जाने से... बड़े-बड़े लोगों से मुलाकात होगी....आगे बढ़ने के अवसर..."

"क्या मिलेगा इन सो कॉल्ड बड़े-बड़े लोगों से मिलकर?" चिढ़ कर कहा था उसने।" और कितना बढ़ना है तुम्हें आगे" एक कठोर आवाज़ उसे चीरती हुई निकल गयी। "कॉलेज में प्रोफेसर तो हो गयी हो। अब और क्या बनना है तुम्हें ??"

एक अप्रत्याशित क्रोध मुख पर छा गया। तड़पते हुए कहा,"तुम क्या समझोगे?तुम्हारी शिक्षा तो शुरू होते ही खत्म हो गई थी..." वह आहत थी और हाथ में आये सिरे को छोड़ना नहीं चाहती थी।

"तो जाओ चली जाओ। कोई फर्क नहीं पड़ता मुझे तुम्हारे यहां न रहने से। संभाल सकता हूँ मैं बच्चों को... तुमसे अच्छा संभाल सकता हूँ। बट वन थिंग ... वन थिंग कीप इन माइंड.... यू ऑलवेज़ मेक मी फील स्माल, ऑलवेज़..." भड़क गया था वो और फिर मायूस लौट गया था कमरे में।

और वह चली गयी थी प्रकृति की गोद में फैले विश्वविद्यालय में फिर से इक्कीस दिनों के लिये बहुत कुछ ग्रहण करने की इच्छा लेकर।.....प्रो. ठाकुर बहुत भले व्यक्ति लगे थे।विभाग के अध्यक्ष थे। रोज़ रोज़ की मुलाकातें दोनों को निकट ले आयी थीं। प्रो.ठाकुर ने कहा था," यू आर वेरी इंटेलीजेंट मिसेज़ अलका। यू मस्ट गो फ़ॉर पी.एच.डी....।" अलका ने उनके निर्णय को चुपचाप मान लिया था। न कोई दुविधा , न कोई तनाव। बस हाँ कर दी थी इस शर्त पर कि निर्देशक प्रो.ठाकुर ही होंगे। दोनों ओर से स्वीकृति....आना होगा हर महीने... दो-तीन दिन के लिए... पहले एनरोलमेंट ....फिर रजिस्ट्रेशन...

तरह तरह की औपचारिकताओं को निभाने के लिए उसे आना होगा....वह जान चुकी थी। इक्कीस दिनों के बाद 'ए' सर्टिफिकेट के साथ प्रसन्नचित्त लौटी थी।

सारी उदासीनता दूर हो चुकी थी। इतने दिनों के अलगाव के बाद लौटना....कपिल प्रसन्न था। बच्चे बहुत खुश थे.....और अलका भी। बहुत परिवर्तन आ गया था घर के वातावरण में। इतने दिनों में बच्चे आत्मनिर्भर हो गए थे। कपिल में बहुत बदलाव आ गया था। हंसता, सीटी बजाता घर लौटता पर देर से...पूरी तरह से उन्मुक्त। सांझ ढले तो पक्षियों को भी घर की चाह लौट ही लाती है और कपिल.....कपिल लौटता तो ज़रूर था पर तब जब दुनिया अंधेरे में डूब कर सो चुकी होती.....

हर महीने अलका को विश्वविद्यालय जाना होता। प्रो.ठाकुर बहुत मेहनत करवाते। रजिस्ट्रेशन तक बहुत साथ दिया उन्होंने। खाने-रहने का पूरा प्रबंध कर देते थे उसके लिए, हर बार। समय-समय से मिलते आत्मीय शब्दों ने अलका को घायल कर दिया था।मन के भीतर कपिल से जुड़े सारे शिकवे ज़ुबान पर आ गए थे।

चार साल बीत गए।अलका कभी अकेली जात

ी,कभी कपिल चल पड़ता सपरिवार उसके साथ। छह माह पूर्व थीसिस जमा हो चुका था। अब 17 तारीख को मौखिकी थी।

शाम हो चली थी....अलका विश्वविद्यालय के अतिथि-गृह में पहुंच चुकी थी।अगले दिन मौखिकी मैं क्या-क्या औपचारिकताएं निभानी होंगी....अभी तक उसके सामने कुछ साफ न था। बार-बार अलका प्रो.ठाकुर को फोन करती.....पर वे कुछ खास न बताते।अंधेरा होते-होते कमरे की घंटी बजी तो वह कुछ चौंकी..

इस वक़्त? इस वक़्त कौन हो सकता है?? खाना तो नौ बजे तक लगेगा? सोचते-दोचते उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने प्रो.ठाकुर खड़े थे। कमरे के भीतर झांकते हुए हुए वे अंदर घुस गए।

"साहब कहाँ है आपके"?

"वो तो नहीं आये सर।क्यों... उनका आना ज़रूरी था?"

"हां, उन्हें तो आना चाहिए था। कल का इंतज़ाम कौन करेगा?"

बार-बार फोन पर आग्रह करने के बावजूद प्रो.ठाकुर ने अलका के सामने कुछ भी स्पष्ट नहीं किया था। उसे लगा ही नहीं कि मौखिकी के वक़्त कपिल को साथ होना चाहिए। असमंजस की स्थिति में परेशान हो उसने पूछा-" तो अब सर"?

हंसते हुए कहा उन्होंने,"कोई बात नहीं, आना तो चाहिए था उन्हें ,पर चलो,मैं हूँ,कर लूंगा तुम्हारे लिए....पर..."

कहते कहते प्रो.ठाकुर ने आग्रह करके उसे अपने पास वाली कुर्सी पर बिठा लिया था। जिस व्यक्ति से वह अपने भीतर-बाहर की सारी व्याख्या निडरता से कर चुकी थी, आज अचानक उसके साथ बैठकर अलका को डर-सा लगा। संकुचित भाव से बैठने, साथ-साथ चाय पीने के बाद अचानक उसे अपनी टांगों पर कुछ चुभन- सी महसूस हुई, एक ऐसा एहसास जो सुखद होते हुए भी लिज़लिज़ेपन से भरा हुआ था।

"आय अंडरस्टैंड योर डिमांड्स "

" व्हाट डिमांड्स सर?.....आय ....हैव नो ....डिमांड्स....सर" बड़ी मुश्किल से उसने थूक निगलते हुए कहा। कुछ शब्द उसके गले में ही अटक कर रह गए थे।

पास बिठाकर प्रो.ठाकुर ने उसके कंधों पर अपने हाथ रख दिए। उसके भीतर एक उत्तेजना-सी जगी और भय में विलुप्त हो गयी। उनके हाथ अधिक स्वतंत्रता लेने लगे। थोड़ी देर बाद भावुकता से भरकर कहा," लेट्स गो आउट फ़ॉर सम टाइम....कहीं बाहर???"

अचानक उसे दिखी आदिम बर्बरता जो हर पुरुष में उसके सूट बूट.....उसके कपडों के पीछे छिपी खाल के भीतर कुलबुलाती है। क्या ऑफिस में रिवॉल्विंग चेयर पर सूट-टाई और चमचमाते जूतों में, हाथ में पेन पकड़े, सामने टेबल पर हस्ताक्षर करते हाथ, एक अभिजात्य शिष्टता -जिनकी मुरीद हो गयी थी वह, क्या यही वह प्रलोभन था,जो एक अचूक हथियार बन गया था?शायद यह स्थिति न आती अगर कपिल उसके साथ आता, अगर कपिल उसे बांध लेता, अगर वह प्रो.ठाकुर से इतना न खुलती और वह उसे आभिजात्य जीवन का लालच न देता और अपने हाथों में उसके हाथ लेकर उसे सांत्वना न देता। वह छली गयी थी ..... बुरी तरह से......

"कल वाइवा है तुम्हारा "...... अलका जैसे सोते से जगी....उसकी ज़ुबान पर ताला लग गया था। साहस करके बोली- "मतलब?"

"समझाना ज़रूरी है?? तुम तो बहुत समझदार हो....कल एक्सपर्ट को जल्दी लौटना है। हो सकता है वाइवा पोस्टपोन हो जाये। हो सकता है उसे तुम्हारी थीसिस में कुछ कमी लगे...?" प्रो.ठाकुर के चेहरे पर कुटिल मुस्कान खेल रही थी वह आतंकित थी। विवशता में उसने हाथ जोड़ दिए थे.....

प्रो.ठाकुर की प्रसन्नता धीरे- धीरे क्रोध में परिवर्तित होने लगी थी। खीज साफ दिख रही थी। उसके कंधों पर उनकी पकड़ और मजबूत हो गयी थी। आंखें अलका की देह में धँसाये प्रो.ठाकुर खड़े थे।

वह गुम-सुम-सी पिघल गयी। अपने को छोड़ दिया। उसी रात तलवार की धार पर सब कुछ चिरता रहा बे-आवाज़....

एक लंबे अंतराल के बाद अलका ने ठंडे उजास में डर-डर कर उगती हुई सुबह में पहली बार देखा.....हृदयाघात के बाद मर जाने वाली हालत का-सा ठंडा शरीर.... मौखिकी के लिए जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। बांटा न जा सकने वाला दुख दिल में भर जाने से आंखों के रास्ते बह निकला। वह सोचती रही," क्या एक डिग्री की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है? क्या कहूंगी कपिल से? क्या कभी कह पाऊँगी??? उस वक़्त इस तरह बहते हुए क्षणों को उसने बर्फ कर देना ही उसे उचित लगा......

प्रो.वीर सिंह ठाकुर ऑफिस में प्रसन्नचित दिखाई दिए। मौखिकी अच्छी रही थी। एक्सपर्ट ने लिखा था," एक्सीलेंट!!! टू बी पब्लिश्ड इन द फॉर्म ऑफ बुक....."

लेटर हेड के नीचे प्रो.वर्मा और प्रो. ठाकुर के हस्ताक्षरों के साथ मुहर लगी थी।

मौखिकी सम्पन्न हो चुकी थी।


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