माँ
माँ
मामेरा जन्म जनवरी गांव इक्कड़ कलां हरिद्वार उत्तराखंड में हुवा, मेरा माता, (स्वर्गीय मेहेरवती नाम ही मेहर मतलब कृपा करने वाली) के अनुसार पिता का कोई नौकरी नही थी। मेरे पिता पांच भाइयों व एक बहन मे तीसरा नंबर के थे। मेरे बाबा जी खेती बाड़ी करके गुजारा करते थे। मेरे ताऊ जी व पापा जी ही उस समय थोड़ा बहुत पढ़े लिखे थे।
ताऊ जी भी रुड़की में सरकारी नौकरी करते थे। पापा जी पर दबाव था कि वो परिवार को चलाने के लिए , खेती किसानी करें, पापा जी सरकारी या कोई अच्छा जॉब करना चाहते थे, उन्होंने आईटीआई इलेक्ट्रिकल करके , भेल हरिद्वार में जॉब लिया।
मेरे छोटे भाई व बहन पापा के जॉब के बाद दुनिया में आए। लेकिन हम काफी समय तक गाँव में ही रहे।
माँ को मैंने हमेशा काम करते देखा, बड़ा परिवार होने के कारण काम बहुत होता था, इतने लोगों का खाना वो भी चूल्हा (मिट्टी की अंगीठी)पर। छोटी उम्र में ही आंखे खराब हो गई थी। सब माताओँ की एक बात सामान्य है कि अपने बच्चों के प्रति समर्पण , किसी भी हद तक। मेरी माँ अनपढ़ थी , लेकिन हमें , भाई बहन को बड़ा करने में , किताबी ज्ञान आड़े नही आया। वो सब हमे मिला जो पढ़ी लिखी माँ अपने बच्चों को देती है। पापा से हमारे लिए लड़ जाती थी, की बच्चों के लिये समय निकाला करो।
हमे याद है, पापा अपने दोस्तों के साथ इतना व्यस्त हो जाते थे , की माँ हमे कहती कि बुला लाओ, या जोर से आवाज़ लगा दो, लेकिन पापा को ये बात अखरती थी जिससे , माँ पर पापा का गुस्सा निकलता था। गावँ से शहर आने पर , बहुत बदलाव भी पापा के व्यवहार में आया।
गांव व शहर पास ही होने से , माँ पापा ने अपने मेहनत से खेती बाड़ी , व जमीन खरीदी, जिसकी देखभाल करना बहुत मेहनत का काम है। लेकिन स्टूडेंट समय मैं हम तीनों व माँ को समय नही मिला, पापा ने गरीबी देखी शायद इसलिये अपने बच्चों के लिए प्रॉपर्टी जमीन इकठ्ठा करना चाहते हैं।
माँ ने हमारे लिए स्वेटर बनाना सीखा, पापा कभी कभी कहते भी थे ये इस उम्र में क्या सीखना शुरू कर दिया। कुछ खाने की नई नई डिशेस भी आसपास की महिलाओं से सीखा। माँ को पहले कुछ ही सब्जियां बनाना आता था, लेकिन स्वाद हमे आज भी याद है, देशी चने, उर्द की साबुत दाल, घर के दूध से बना पनीर, साग , गाजर का हलवा व मछली आदि आदि।
एग्जाम के समय सुबह जल्दी उठा कर सूजी का हलवा बनाकर देना, , , याद आता है।
हम दोनों भाई गाँव से जवालापुर 6 किलोमीटर पैदल जाते थे, रात में माँ कपड़ें पहना कर लेटा देती थी, सर्दियों के समय। कपड़ों को बिस्तर के नीचे रख देना, जिससे प्रेस हो जाय। भले कम समय रहा , लेकिन पढ़ाई की महत्ता को पेरेंट्स जानते थे। सर पर किताबों के बैग की पट्टी के निशान आज भी हैं।
पता नही कितनी ही गलतियों को माफ किया होगा, जिनको पापा को पता भी नही चला होगा, आखिर माँ है ना।
हमारे विवाह के लिये माँ पापा ने कभी अपने से किसी को नही थोपा, जो बच्चों को पसंद हो ठीक ही होगा। बड़े होने के समय जो बातें बच्चों के साथ होती है, कभी भी, उनको विवाद का विषय नही बनाया। माँ हमेशा कहती थी , मेरे बच्चे बहुत ही सीधे है, माँ है ना। हमारे लिये चिंतित होने कब नोकरी लगेगी , कब शादी होगी , कब बच्चे होंगे।
मेरी माँ को जब कैंसर का पता चला, बत्रा हॉस्पिटल , पापा ने कहा तुम अपने माँ से बात करो हॉस्पिटल में, मैंने माँ से बात किया मां ने कहा आप सब कोई परेशान मत हो , जो होगा देखा जाएगा। मेरे तो भरा पूरा परिवार है।
उसके बाद बहुत साल उस बीमारी के साथ अपने नाती नातिन, पोते पोती के बीच गुजारे। लेकिन बीमारी हौसले नही तोड़ पाई। पापा ने उन सालों में माँ की बहुत सेवा किया, खूब ध्यान रखा। छोटे भाई ने मां की बहुत सेवा की क्योंकि मैं बाहर पोस्टिंग में था उसकी पत्नी और उसने अपना बहुत समय दिया।
मां कभी लिपिस्टिक बिंदी नही लगाती थी, गाँव की महिलाओं मे ये चलन नही था, धीरे धीरे के माथे पर बिंदी लगाने लगीं, बाद मे पुत्रवधु के कहने पर और श्रृंगार की चीजें भी मां करने लगी।
मां हमेशा अपने बच्चों से बहुत प्यार और लगाव रखती हैं। इसी कारण से वह अपनी बहुओं से भी कई बातों में मनमुटाव कर लेती थी। मेरी सबसे बड़ी बेटी अनुष्का से तो विशेष लगाव रखती थी, क्योंकि परिवार में सबसे पहला बच्चा था।
माँ कभी खाना अच्छा नही बनाती थी तो गुस्से से बाहर छोले भटूरे खाने चला जाता था, क्लास 9, 10 तक भी कभी कभी अपने अंडर गारमेंट्स बाथरूम में छोड़ देता था माँ धुल देती थी, अब सोच कर मन भर आता है।
अपने बच्चों से यही गुजारिश है, माँ अनमोल है , समय रहते कद्र करो। नही तो बाद में बातें मन में ही रह जाती है। सबसे ज्यादा खुशी पेरेंट्स को अपने बच्चों की अच्छी सेहत, संस्कार, ओर सफलता मिलने पर होती है।
