माखण

माखण

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‘पेट की आग बहुत बुरी होती है साब, क्या नहीं करवा सकती ये।’ वह दार्शनिक के से अंदाज में बोला,

- तेरी उम्र कितनी है रे? मैंने पूछा,

- बीस वर्ष। जवाब था उसका,

- और मेरी?

- यही पच्चीस-तीस होगी।

हंसने लगा था मैं और मेरा दोस्त भी उस वक्त तो, पर आज जब उस दृश्य को याद करता हूँ तो बरबस आंखों के कोर गीले हो जाते हैं।

 

राजधानी के राजकीय महाविद्यालय में प्रवेश हो गया था। मैं और मेरा दोस्त नीलमणि पब्लिक-पार्क की राह कालेज जाया करते थे। घर से निकल कर जिला कलक्टर व जिला मजिस्ट्रेट की कोठियों को ताकते मैं और नीलमणि खुली आंखों से सपने देखते-देखते जाया करते थे। राजकीय पुस्तकालय के मैदान में खेलते लड़कों को देख हमारा भी क्रिकेट खेलने को मन करता पर वहाँ का बेगानापन व हाथ में थमी किताबें हमें आगे चलने पर मजबूर कर देती थी। अधूरे बने रवीद्र रंगमंच में चले जाया करते थे हम और वहाँ के अधूरे बने मंच से मेरे मन में सदैव कौतूहल बना रहता था। नीलमणि शांत स्वभाव का था, हालांकि उग्र मैं भी नहीं था पर मंच पर चढ़ने, हर बात जानने की व्यग्रता रहती थी मुझे। जिज्ञासु नीलमणि भी कम नहीं था पर गंभीर, शांत और अंतर्मुखी था वह।

 

मैं मंच पर चढ़ जाया करता था और नीलमणि मेरे द्वारा बनायी, ईंटों की बेंच पर बैठ मेरा अभिनय देखा करता था। हनुमान जी का अभिनय करता था मैं, रामलीला में। जब दस-पंद्रह मिनट हो जाते तो नीलमणि चिल्लाता –

- हनुमान जी लंका तो जल गयी, अब कालेज चले।

 

उसकी यह बात मुझे ठेस पहुंचाती थी और फिर मैं बुझे मन से मंच से उतर जाता था। राह चलते-चलते गांधी पार्क में लगी गांधीजी की मूर्ति को प्रणाम करते हुए और महावीर पार्क में लगी मूर्ति को आश्चर्य मिश्रित भाव से देखते हम पब्लिक पार्क में पहुंच जाते थे।

 

पब्लिक पार्क में रखे पाकिस्तानी टैंक पर बैठ कर मैं अपने-आपको सेना के किसी बड़े अधिकारी से कम नहीं समझता था। वहीं उस पर बैठ कर एक विजय का भाव का एहसास हुआ करता था। एक राष्ट्र की विजय में उसके निवासी को कितना सुख मिलता है इसको मैं महसूस किया करता था। यद्यपि युद्ध से विनाश होता है पर विनाश के पीछे ही तो सृजन होता है।

 

नेहरूजी को प्रणाम करते हुए हम दोनों कालेज की तरफ बढ़ जाया करते थे। राह में पड़ने वाला गंदे पानी का तालाब और तालाब में तैरती काली बतख़ें राहगीरों का ध्यानाकर्षण करने के लिए पर्याप्त थी। इस तरह रास्ते से बातें करता मैं और मुझसे बातें करता नीलमणि कालेज पहुंच जाते थे। वापसी में हम वही रास्ता पकड़ते थे पर एक नए अंदाज के साथ।

 

नेहरूजी की मूर्ति के पास पानी-बताशे की रेहड़ियाँ लगा करती थी। एक स्थानीय व्यक्ति को छोड़ बाकी सारी रेहड़ियाँ बिहार और मध्य प्रदेश के लोग लगाया करते थे। वह स्थानीय व्यक्ति कुछ महंगा भी था। चटपटे पानी और उबले आलू से भरे बड़े-बड़े बताशे मुझे बहुत अच्छे लगा करते थे।

 

हम हमेशा अलग-अलग रेहड़ियों पर जाया करते थे, क्योंकि नीलमणि किसी एक दुकानदार का स्थायी ग्राहक नहीं बनता था। एक रोज एक नए लड़के को देखा, यही कोई बारह-तेरह वर्ष का होगा। नीलमणि तो आज उस स्थानीय व्यक्ति के पास खाना चाहता था, पर एक अजीब सा आकर्षण मुझे और नीलमणि को उस लड़के की तरफ खींच ले गया। उससे जब भाव-ताव किया गया तो पता चला वह रुपए के चार बताशे दे रहा था।

‘चल पाँच रुपए के खिला तो, आज तेरे हाथ के देखते है।’ नीलमणि बोला।

 

पूरे बीस बताशे खाकर हमने उसे पाँच का सिक्का दे दिया। मुझे उसके बताशों का पानी बड़ा चटपटा व स्वादिष्ट लगा, तो मैंने उससे नाम पूछ लिया। उसने अपना नाम बताया ‘माखण’।

 

मैं उससे और बातें करना चाह रहा था सो मैंने कहा

- तो माखण तू भी कोई मिसरी ले आ।

बालसुलभ चेहरे पर भी शादी कि बात सुनकर किस प्रकार कि हया छाई थी, यह मुझे अब भी याद है। वक्त और हालात ने उसे समय से पहले ही समझदार बना दिया था। मैं आगे पूछने लगा

- कितने भाई-बहन हो तुम?

- छ: भाई-बहन हैं, साब।

- तेरे बहने कितनी है, माखण?

- चार बहने और दो भाई है हम।

- तू सबसे छोटा है क्या?

- नहीं साब, मैं तीसरे नंबर का हूँ मुझसे बड़ी दो बहनें हैं।

- तेरे पिताजी क्या करते हैं, रे?

- वो रिक्शा चलाते हैं।

- तुझे अपने गाँव से इतनी दूर आने में डर नहीं लगा?

- हम जैसे मिट्टी के पुतलों को किसका डर?

- रहने वाला कहाँ का है तू?

- दरभंगा बिहार का हूँ साब।

 

नीलमणि मुझे यूं बातें करते देख झल्ला गया और लगभग चिल्लाते हुए कहा

- यार राजू आ क्यों नहीं जाते?

 

उससे रास्ते में उलझ पड़ा था मैं।

- मुझे बात क्यों नहीं करने दी, उससे?

- क्या बात करते? अपना स्तर नहीं देखते हो।

- क्या है अपना स्तर? कौन से स्तर कि बात कर रहा है तू?

- यार हम एम.ए. के विद्यार्थी हैं।

- तो क्या हुआ, आसमान से उतरे देवता हैं या किसी रियासत के युवराज? मत भूलो नील कि इसी बच्चे कि तरह हम भी किसी के बच्चे हैं और इसकी भी कोई माँ है।

- यार राजू तू जल्दी जज्बाती हो जाता है।

- हाँ पर इसका कारण नहीं जानेगा, चल मेरे साथ।

मैं उसे खींचता हुआ पार्क में रखे टैंक के पास ले आया,

- ये टैंक देख रहे हो ना नील, ये उस भारत कि विजय का प्रतीक है जिसका वर्तमान माखण जैसे बच्चे हैं।

- राजू तू फिर अपनी बात पर अड़ रहा है।

- तुझे क्या पता नील, तू क्या जाने उस विवश माँ के दिल का दर्द जिसने अपने बेटे को जिसे स्कूल जाना चाहिए था उसे दरभंगा से यहाँ राजस्थान में भेज दिया कमाने के लिए।

- जैसे तू तो जनता है, तभी तो माखण को वर्तमान बता रहा है।

- हाँ भविष्य कहना मज़ाक है इस बाल-समुदाय का क्योंकि भविष्य वे बनते और बनाते है जो काम नहीं करते। माखण देश के लिए कमाई कर रहा है। वह वर्तमान है नील, देश का वर्तमान। पर तू क्या जाने क्योंकि तू तो एम.ए.  का विद्यार्थी है ना, विद्यार्थी।

- अच्छा चल बहुत बहस हुई, घर चलें।

 

नीलमणि ने ही बात खत्म करते हुए कहा। हम चुपचाप घर की तरफ बढ़ने लगे एकदम खामोश कदमों से। शाम बीती और अगली सुबह हम फिर कालेज के लिए निकले, आज मैं बताशे खाने को नहीं रुका था क्योंकि कल की बात से मेरा मन अब तक खिन्न था। पांच-छ: दिन बीत गए तो एक दिन नीलमणि मुझे हाथ पकड़ कर माखण की रेहड़ी पर ले गया। हमने बताशे खाये, अब तो यह हमारा रोजाना का कार्यक्रम बन गया था और हम माखण के स्थायी ग्राहक। जब भी कालेज आते तो हम बताशे खाने रुक जाया करते थे। एक दिन मेरा जिज्ञासु मन पूछ बैठा

- माखण रोजाना के कितने कमा लेते हो तुम?

- साब! यही कोई चालीस-पचास।

- ये ठेला किराए का है या तेरा?

- ये तो सेठ का है।

- सेठ कहाँ का है तेरा?

- दरभंगा का ही है, साब!

- तुझे सेठ कितना देता है?

- मुझे तो खाना देता है, कहता है पैसे तेरे बाप को भेज दिए तू खो देगा अभी छोटा है।

 

गर्मी में पसीने से चूता उसका वो तेज धूप से स्याह होता चेहरा, मैला सा पैबंद लगा पाजामा और लू का मुक़ाबला करने में अक्षम कमीज। तपती सड़कों को फटी चप्पलों से निकल कर छूती फटी एड़ियाँ देख मैंने कहा –

- माखण अपने सेठ से बोल तुझे नई चप्पल की जोड़ी दिलवाए।

- वो नहीं दिलवाएगा साब।

- क्यों क्या तू आदमी नहीं है?

- साब मेरा सेठ भी यही कहता है कि तू आदमी थोड़े ही है।

- तू उससे बोल कि गर्मी में तुझे भी चप्पलों कि जरूरत है।

- नहीं साब, ज्यादा कहूँगा तो मारेगा वो।

- क्यों? क्या तुम लोग जानवर हो जो मारेगा?

- साब! कल चंदू ने उसे कमीज के लिए कहा था तो उसने उसे माना कर दिया और चंदू ने दुबारा कहा तो उसे जूते से पीटा।

- चंदू कौन है?

- मेरा साथी है, साब। 

- कितने ठेले हैं तेरे सेठ के?

- यही कोई दस-बारह ठेले है साब।

- वो ठेले लगता कौन है?

- सब मेरे साथ बिहार से आए थे साब! जब सेठ मुझे लेकर आया था।

- तू कभी स्कूल गया है? नीलमणि ने पूछा।

- गरीबों के बच्चे स्कूल नहीं जाते साब।

 

उसकी ये बात सुनकर मन कांप उठा मेरा। कैसी सच्चाई उगल रहा था माखण। आज पहली बार मेरी पलकें गीली हो गई थी। मैं नीलमणि का हाथ खींचते हुए पार्क में ले गया और हम टैंक पर बैठ गए।

- नील आज भारत कि असली तस्वीर दिखा दी माखण ने।

- राजू यह तो तस्वीर का एक ही पहलू है, दूसरा तो इससे भी भयानक है। मैंने कल उस को करीब से सुना था। कल जब मैं स्टेशन गया था तब एक बिहारी मिला था मुझे जब उससे बात कि तो पता चला गरीबी, भुखमरी और अशिक्षा के चलते लोग अपने बच्चे को दस-पंद्रह हजार में इन सेठों को बेच देते हैं और ये बच्चे यूं ही घुट-घुट कर जीने को मजबूर हो जाते है।

 

एक दिन मैं माखण को पूछ बैठा

- माखण बिहार से इतनी दूर कैसे आया रे? माँ कि याद नहीं आती कभी?

माँ का नाम सुनते ही आँसू आ गए और आंखों में माँ का वो पाला मारे चने के पीले पत्ते सा मुरझाया चेहरा तैर गया और फिर वही जीवन कि सच्चाई उगल दी

- पेट कि आग बहुत बुरी होती है, साब! क्या नहीं करवा सकती ये?    

 

 

चार महीने कि छुट्टियों के बाद लौटे तो देखा नेहरू-सर्किल पर कुछ नहीं बदला वही नेहरूजी, वही भीड़ और वही पानी बताशों के ठेले। पर मेरे लिए जाने सब कुछ बदल गया था। एक महीने तक मैंने यहां - वहां कोशिश की पर मुझे माखण नजर नहीं आया। एक दिन नीलमणि ने कहा

- राजू, देख वही लड़का।

पास जाकर पता चला वह तो कोई और ही था। मैंने उससे बताशे खाने के बाद भूमिका बांधनी शुरू कि

- नाम क्या है रे, तेरा?

- राधूलाल।

- कहाँ का रहने वाला है तू?

- बिहार का।

- यहां एक लड़का था, माखण! दिखता नहीं आजकल।

- वो मर गया।

- क्या?

 

अचानक पाँवों तले की जमीन सरकती सी लगी मुझे। आँखों में माखण का चेहरा उभर आया। सांवला रंग और अंधेरे में बिल्ली की सी चमकती आँखें। मैली सी पैबंद लगी कमीज और गरीबी की गवाही देता पाजामा, पांवों में घिसी चप्पलें और जमीन छूती एड़ियाँ जो सर्दी में फट गई थी। बारह-तेरह की वय का वो लड़का अपनी उम्र के आगे बहुत परिपक्व लगने लगा था। अचानक कैसे मर सकता है दिमाग में एक झनझनाहट व दिल में एक असहनीय पीड़ा उठ रही थी।

- मैं चलता हूँ नील।

- अरे रुक मैं भी आता हूँ।

 

मैं उसे अनसुना कर पार्क में टैंक के पास बैठ गया। ना जाने क्यों पर आज मुझे वह विजय का प्रतीक भी खोखला नजर आ रहा था। माखण के साथ बिताए पल एक-एक कर जेहन में चलचित्र की भांति उभरने लगे। थोड़ी देर बाद नीलमणि भी आ गया। राधूलाल ने उसे बताया की माखण अपनी बड़ी बहन की शादी में गाँव गया हुआ था, शादी तो कर्जा लेकर कर दी, पर आगे जो लड़का देखा वो दारूबाज़ निकला और उसकी बहन को ससुराल जाते ही प्रताड़ना का सामना करना पड़ा। उसकी दूसरी बहन जिसे वह बेहद प्यार करता था, किसी के साथ भाग गयी थी। बहन के प्यार की याद और उसका यह कदम नन्हें माखण के गहरे तक चोट कर गया। उसके पिता को डाक्टरों ने टी.बी. का मरीज घोषित कर दिया। कमाई का साधन बंद हो चुका था, जब उसने सेठ द्वारा भेजे पैसे के बारे में पूछा तो पता चला सेठ ने केवल एक बार पाँच-सौ रुपए भेजे थे उसके बाद नहीं भेजे।

 

वह गाँव से वापस लौटा तो उसका गुलमोहर के टूटे फूल की मानिंद पीला हो चुका था। सदा चमकने वाली आँखें अब गंभीर हो चुकी थी। रोजाना उसे चक्कर और खांसी आने लगी थी, उस पर उसने शराब भी शुरू कर दी थी। एक दिन शराब की झोंक में वह पैसे की खातिर सेठ से झगड़ बैठा तो सेठ ने उसे बताया कि वह उसके बाप को उसके बदले में पाँच हजार रुपए देकर आया था। इस बात से उसे और भी ज्यादा धक्का लगा। अब तो रोज ही उसकी सेठ से तकरार होने लगी थी।

 

मैं चौंका तेरह साल का माखण और शराब। और ये क्या एक मासूम कि कीमत मात्र पाँच हजार, पर यह हकीकत थी, जो राधूलाल ने नीलमणि को बताई थी, वह माखण के गाँव का ही रहने वाला था।

 

उस दिन धूप बहुत तेज थी। डामर पिघला जा रहा था सड़कों पर और राहें सुनी थी। माखण दोपहर तक नेहरूजी के साये में खड़ा रहा फिर पब्लिक पार्क कि तरफ बढ़ गया। तीन बजते-बजते मौसम का मिजाज बदला और तेज धूप आँधी और वर्षा में बदलने लगी। सब लोगों कि तरह माखण भी पार्क में बने कल्क्ट्रेट के अहाते कि तरफ दौड़ा पर धक्कम-धक्का, रेलमपेल में वह घुस नहीं सका और तेज बारिश ने उसका माल खराब कर दिया। बूंदों के साथ गिरते गीले बताशे अब माखण कि आँखों से आँसू बन कर बह रहे थे।

 

वर्षा रुकी तो पाँव बंधी बछिया कि मानिंद माखण लौटा। पहले से उसके व्यवहार से क्रुद्ध मालिक को मौका मिल गया और उसने ताबड़तोड़ पीट डाला माखण को। एक वार पेट में ऐसा लगा कि उसे मुंह से खून आने लगा। अब तो उसे रोजाना ही खून कि उल्टियाँ होने लगी थी, थोड़ी बहुत दवा दिलवा कर सेठ ने उसे गाँव भेज दिया। वहाँ पर बिना दवा-दारू के उसकी हालत दिनों दिन बिगड़ती गई और एक दिन प्राण-पंछी तन-पिंजरा तोड़ उड़ गया।

 

नीलमणि से सारी बातें सुनकर उस दिन ना तो मेरे कमरे का बल्ब जला, ना ही स्टोव। ना नीलमणि ने खाना बनाया ना मैंने किताब उठाई, पता नहीं किन ख्यालों में खोया था मैं और फिर महसूस किया कि मेरी पलकों की कोर गीली थी। अगले दिन मैं राधूलाल के पास गया और उससे बात करने लगा

- तेरा क्या रिश्ता है माखण के साथ?

- मैं उसका सेठ हूँ।

- सेठ!

- कैसे लगता है तू उसका सेठ?

- मैं उसकी जगह काम करता हूँ ना, इसलिए।

- तेरा सेठ कौन है? कहाँ का है वो ?

- श्रीमन्त, दरभंगा बिहार का है।

श्रीमन्त, दरभंगा, बिहार का नाम सुनते ही एक सिहरन सी दौड़ गयी और कहा मैंने

- तू यहाँ क्यों आ गया रे?

- साब! पेट की आग बहुत बुरी होती है। क्या नहीं करवा सकती ये ----------।

 

राधू आगे भी कुछ बड़बड़ा रहा था पर मैं सोच रहा था कि ‘माखण’ भी तो यही कहता था ‘‘पेट कि आग बहुत बुरी होती है।’’ राधू के मुंह से फिर यही कथन सुनकर मेरा अन्तर्मन भावी अनिष्ट की आशंका से कांप उठा। कहीं राधू भी माखण कि मौत -------।

 

 


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