Rajeet Pandya

Inspirational

3.4  

Rajeet Pandya

Inspirational

लड़ना जरुरी है।

लड़ना जरुरी है।

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“एक बार और सोच लो बेटी। अगर ये रिश्ता भी हाथ से निकल गया तो और लड़के मिलना मुश्किल है। ऊपर से तेरे फूफा नाराज़ होंगे सो अलग। क्या रखा है इस आर॰जे॰ की नौकरी में। शादी से बढ़ कर है क्या तेरी ये नौकरी? एक बार शादी कर ले फिर तेरा जो मन करे वो काम करना।”

“ उन लोगों को हिम्मत कैसे हुई मेरे काम के बारे में उलटा-सीधा बोलने की। आप लोग भी यही चाहते हो की जल्दी से मेरी शादी करवा दो और अपना पल्ला झाड़ लो।”

“ चाय-पानी-नाश्ता जो भी करना है कर लो। यह बस सिर्फ़ आधा घंटा रुकेगी।” बस कंडक्टर की तेज़ आवाज़ ने मुझे ख़यालों की नींद से जगा दिया। सोच में इतना डूबी हुई थी की पता ही नहीं चला की कब आधा सफ़र गुज़र गया। घर पे हुए तमाशे के बारे में सोच-सोच के मुझे सिरदर्द होने लग गया था। सोचा की ढाबे की चाय पी लेती हूँ, शायद सिरदर्द ठीक हों जाए। चाय की चुस्कियों के बीच ढाबे का माहौल बहुत की ख़ुशनुमा लग रहा था। ढाबे के किचन से आ रही तंदूर और छोंक की महक काफ़ी लाजवाब थी।

कुछ ही देर में एक बस ढाबे पर रुकी। मैं ने ध्यान से देखा की उस बस की ड्राइवर एक औरत थी। वो बस से उतरी और मेरे बगल वाली टेबल पे बेठ गई। मैने पहली बार किसी महिला बस ड्राइवर को देखा था। ख़ाकी पेंट-शर्ट पहने, शॉर्ट बालों में वो महिला दूर से देखने पर आदमी की तरह ही लग रही थी। कुछ देर तो मैं उसे चोर नज़रों से देखती ही रही। फिर अपनी झिझक को किनारे करते हुए मैं उस महिला ड्राइवर के पास चली गई। 

मैं - “ सुनिये, क्या मैं आपके पास बैठ सकती हूँ ?”

ड्राइवर - “ हाँ जी, मैडम बैठिये। “

मैं - “ आप बस चलती हैं?”

ड्राइवर - “ जी हाँ। क्यूँ क्या हुआ?”

मैं - “ नहीं कुछ नहीं। पहली बार किसी औरत को बस चलते देखा, तो पूछ लिया। “

मैं - “ क्या मैं आप से कुछ पूछ सकती हूँ ?”

ड्राइवर - “ हाँ ज़रूर पूछिए। “

मैं - “ आप बस ड्राइवर कैसे बनी? बस चलना तो काफ़ी मेहनत और हिम्मत का काम हैं। ख़ासकर एक औरत के लिए।”

ड्राइवर - “ हाँ-हाँ। आदमी करे या औरत, किसी भी काम को करने के लिए मेहनत और हिम्मत तो बराबर ही लगती हैं।” 

ड्राइवर - “ वैसे बस चलना मैंने अपने पिताजी से सिखा था। मेरे पिताजी का ट्रैवल्ज़ का काम था। वो ख़ुद भी बस चलाते थे। एक सड़क दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। तब से परिवार की ज़िम्मेदारी मैंने अपने हाथों में ले ली। तब से ही बस चलती हूँ। “

मैं - “ आपको किसी ने रोका नहीं बस चलने से ?”

ड्राइवर - “ हाँ रोकने की कोशिश तो बहुत की गई। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। अगर हार मान लेती तो मेरे परिवार की देख रेख कौन करता। लोग मदद का हाथ बढ़ते तो ज़रूर थे, लेकिन उनके एहसानों को चुकाने की क़ीमत मैं बहुत अच्छी तरह समझती थी। आदमी और औरत दोनो एक समान है , ये कहना उतना ही आसान हैं , जितना कठिन इस बात को व्यावहारिकता में लाना। ग़लती हम औरतों की ही हैं, क्यूँ की हम औरतों ने सही के लिए लड़ना छोड़ दिया हैं। “

अगले दिन.........

“मैं आज पहली बार बिना काला चश्मा लगाए घर से बाहर निकली। अगर एक लड़का भेंग होता है तो उसका भेंगापन को सिर्फ़ एक बीमारी की तरह देखा जाता है। और अगर एक लड़की भेंगी होती हैं तो उसका भेंगापन उस लड़की के लिए अभिशाप बन जाता है। हमारे समाज के इसी दोगले रवैये ने मुझे हमेशा कला चश्मा पहने पे मजबूर कर दिया था। “

“ उस महिला बस ड्राइवर से बात कर के इतना तो मैं समझ चुकी थी की अपने हक़ के लिए लड़ना बहुत ज़रूरी हैं। क्यूँ की ये लड़ाई ही आपको एहसास दिलाती हैं की आप ज़िंदा हो। अगर आप ज़िंदा रहोगे तभी तो ये समाज आपके वजूद को समझेगा। इसलिए लड़ना ज़रूरी है।”


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