लैंगिक समानता और आधुनिक समाज
लैंगिक समानता और आधुनिक समाज


यह लोग जो लैंगिक संवेदनशीलता को मुद्दा बना कर बहस का अखाड़ा तैयार कर लड़ने को बैठे हैं। पूछना चाहती हूँ उनसब से कि :- " क्या एक के बिना दूसरे का अस्तित्व बन पाएगा ?"
वह लड़की है उसे इज़्ज़त मिलनी चाहिए।
उसके लिए सीट निर्धारित करदो।
क्या आपकी नजरों में इन तरीकों सेबदलाव संभव है क्या इनसे इस समस्या का निवारण हो सकता है ?
अरे मैं कहती हूँ वो अपनी जगह खुद क्यों नही बना सकती चाहे वो समाज में हो या बस में। क्या उसे अपनी काबिलियत पर भरोसा नहीं या फिर वो इस दया की भीख की आदी हो गयी है। इस से हम उसे और कमज़ोर बना रहे है।
आख़िर है क्या ये लैंगिक संवेदनशीलता ?
" एक ऐसी प्रकिया जिसके अंतर्गत समाज, संस्कृति, राजनीति तथा आर्थिक गतिविधियों के अंतर्गत पुरूष तथा महिला के बीच अंतर समाप्त किया जा सके।"
हम इसकी वकालात में इस तरह डूब गए हैं कि शायद ये भी भूल गए हैं कि इनमें(पुरुष -महिला) किसी एक के अनुपस्थिति में सृष्टि का विकास क्रम अवरूध्द हो सकता है।
मानती हूं इस पुरूष प्रधान समाज मे स्त्रियों को भोगवादी दृष्टि से देखा गया है तथा पुरुषों का असहज व्यवहार तथा दृष्टिकोण के कारण उनका शोषण हुआ है लेकिन हम इस बात और सच को नहीं नकार सकते कि आज यौन- शोषण,उत्त्पीडऩ सिर्फ़ स्त्रियों ही नहीं अपितु पुरुषों के साथ भी हो रहा है
मेरा मानना है कि यह लैंगिक संवेदनशीलता सामाजिक-सांस्कृतिक सौहार्द के लिए अत्यंत आवश्यक है लेकिन भारत के अंदर इसका विस्तार अत्यंत ही कठिन है।
हमें इसे सबसे पहले पाठ्यक्रम के साथ जोड़ना चाहिए तथा इसे पारिवारिक स्तर पर प्रभावी बनाना चाहिए। ना कि इसे सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दा बना कर लड़ना चाहिए।
जब तक युवा मस्तिष्क लैंगिक संवेदनशीलता या अन्य ऐसे किसी मुद्दे पर स्पष्ट नहीं होगा तब तक किसी भी प्रकार का उत्त्पीडऩ जो समाज में हो रहा है उसे रोक पाना आसान नहीं होगा।
इसलिए आप सभी से अनुरोध है
पहले सोचें विचारें फिर क़दम बढ़ाये, सजग रहें, सचेत रहें।