कथनी और करनी
कथनी और करनी
"अभी तक खाना नहीं बना है ? क्या करती हो ? हमने घर का काम करने के लिए कामवाली भी रख दी है । फिर भी समय पर खाना नहीं बनती है"- एक ही सांस में मैंने अपनी बात कह दी ।
मेरी धर्म-पत्नी थोड़ा-सा अपमान का भाव लिए जल्दी-जल्दी किचन के काम में लग गई । मैंने फिर से झल्लाते हुए सवाल दागा- "क्यों, कामवाली नहीं आई थी ?" जबाव मिला- "आई थी, पर.....।
मैंने पूछा- "पर क्या ? उसे तो हर वक्त कोई न कोई बहाना रहता है। काम चोरी की आदत जो लगा दी है तुमने । उसे सिर पर चढ़ा रखी हो"।
पत्नी ने कहा- "नहीं जी, आई थी पर मैंने आज उसे ज्यादा काम नहीं दी, सिर्फ झाड़ू लगवाई और वापस भेज दिया। आज उसे किचन में नहीं घुसा सकते न... वही लेडी वाली प्रॉब्लम...."
मैंने छूटते ही कहा- "क्या तुम भी.... एकदम से पंडिताइन बन जाती हो"। उसने मुझे समझाते हुए कही- "अजी, इसमें धर्म-कर्म की बात नहीं है। गरीब है, ठीक से खाना नहीं मिलती है, इन दिनों आराम की भी जरूरत होती है। अगर धर्म के नाम पर किसी गरीब की भलाई हो जाती है तो इसमें गलत क्या है ?"
मैंने चिढ़कर कहा- "तुम उसे यूँ ही बैठाकर रखो, पैसे दो, कपड़े दो और खाना भी खिलाओ"। उसने प्यार से समझाते हुए कहा- "अजी बस तीन दिन की तो बात है"।
मेरे हाथ में अखबार देखकर बात बदलने के नियत से पूछी- "और ये हाथ में क्या है ?" मैंने चहकते हुए कहा- "देखो.... आज फिर मेरी एक कविता 'पूर्वांचल प्रहरी' में छपी है। देखो..देखो... मैंने इसे फेसबुक पर भी शेयर किया। दो घंटे में ही 510 लाइक और 60 कमेंट मिल गए"।
"अरे वाह, कौन-सी कविता छपी है ?"
मैंने जबाव दिया- "नारी का सम्मान"...
बात पूरी करते-करते मेरी नज़र झुक गई । पत्नी भी नज़र झुका कर वापस किचन चली गई। मैंने देखा... अखबार में छपी कविता के एक-एक शब्द मुझे चिढ़ा रहे थे.... मात्राएं छोटे-छोटे कीड़े बनकर रेंगने लगे.....