कलयुगी तर्पण - एक दिखावटी अर्प
कलयुगी तर्पण - एक दिखावटी अर्प


आज जब दर्पण में खुद का चेहरा देखा तो अचानक ही पिताजी की याद आ गयी। वही सफेदी अब मेरे चेहरे पर छा रही थी। बचपन में अक्सर बाबूजी को मैं कहता आप बूढ़े हो चले है,अब बालों को रंग लीजिये और बाबूजी कहते ये सफेद रंग ही मेरी पहचान है। जब मैं ना रहूँ ऊपर आसमान में देखना उन नीले रंगो के बीच सफेद रंग की चादर ओढ़े,मैं नजर आ जाऊंगा। सोचते-सोचते आँखों से आंसुओं की हल्की सी धारा मेरे गालों पर यादों की निशानी खिचती हुई बह चली।
बाबूजी का स्वर्गवास 5 साल पहले ही हो चुका था। आज सुबह ही तर्पण करने को मैं गया पहुंचा था। फल्गु नदी के किनारे पहुंचा तो लगा कि पूरे नदी कि घाट पर श्रवणकुमार ही नज़र आ रहे थे। मानों इस कलयुग में एक साथ लाखों श्रवणकुमार ने अवतार ले लिया हो। हर किसी कि श्रद्धा ऐसी लग रही थी की मानों पित्र और मात्र भक्ति में उत्कृष्ट हो। समझ ही नहीं आ रहा था की कैसे वृद्धाश्रमों की संख्या में इतनी बढ़ोतरी कैसे हो रही है ?
मैंने भी सारे कर्म-कांड के हिसाब से पूर्वजों के आत्मा की शांति के लिए तर्पण की और अपने श्रद्धा सुमन अपने पूर्वजों को अर्पित की। नजरे घूमी तो देखा एक सज्जन तो अर्पण से ज्यादा रुचि उन्हे उनकी सेलफ़ी में थी।
ऐसा लगा की कौओं के पेट भरने से पहले ही तीव्र इंटरनेट की गति से तर्पण का पुण्य डाउनलोड हो जाएगा। हर कोई जल्दी में था,किसी की ट्रेन का समय होने वाला था तो किसी को गया घूमने की जल्दी थी। एक महोदय तो फेसबूक पर लाइव प्रसारण कर रहे थे। मैं मन ही मन सोचा पूर्वजों की शांति के लिए अनलिमिटेड डाउनलोडिंग के साथ डिजिटल तर्पण की सुविधा शुरू कर देनी चाहिए। ढेर सारे कौओं के बीच मैं अपने पूर्वजों को भोग खाते ढूंढने को कोशिश कर रहा था। इसी बीच एक बच्चे की आवाज से मेरी ध्यान टूटी।
वह अपने पापा से आईफोन की ज़िद कर रहा था। उसके पापा उसे तर्पण के बाद आईफोन दिलाने को राजी हो गए। उस बच्चे को देख मुझे मेरी बचपन याद गयी। जब भी मैं बाबूजी के साथ हाट या बाजार जाता,पार्ले-जी बिस्कूट की ज़िद करता पर बाबूजी गन्ने के रस को पीला कर मुझे मना लेते और कहते जब तू कक्षा में प्रथम स्थान लाएगा पार्ले-जी बिस्कूट दूंगा। उस बिस्कुट की वजह से और अपने माता और पिता के संस्कारो से मैं अपने पैरों पर खड़ा हो पाया। मैं समय को 5G की गति से हुई बदलाव को सहज रूप से महसूस कर रहा था।
वह बच्चा खुशी-खुशी अपने पिता के साथ चल पड़ा। उसके पूर्वजों का तो पता नहीं पर उस बच्चे की तृप्ति उसके चेहरे पर स्पष्ट थी। वह 50 mbps की गति से दौड़ जा रहा था। बस दुनिया उसकी मूठी में आने ही वाली थी की वह एक वृद्ध भिखारी से टकरा गया। बच्चे को थोड़ी मामूली सी चोट लगी। उस भिखारी की गठरी बिखर गयी। बच्चे ने उस भिखारी को ज़ोर से लात मारी और कुछ अपशब्द भी अँग्रेजी में कह दिये। वह बूढ़ा भिखारी अपनी कमजोर नजरों से उन बिखरे सिक्कों को और अपनी चीजों को अपनी मैली सी चादर में समेटने लगा।
उसकी आंखों से आँसू बह रहे थे। मुझसे रहा न गया और मैंने तुरंत उस बच्चे को डांटने के लिए उठा। फल्गु किनारे के सारे श्रवणकुमारों ने तो एकाएक मौनव्रत ले लिया था। मैं उसके पिता को कुछ कहता वो भिखारी बच्चे के पिता के जूतों से दबी एक पुराने से अखबार को लेने की कोशिश कर रहा था। रोता हुआ वो उस अखबार को मांगने लगा। ये महोदय ने उस अखबार को हाथ में लिया और फाड़ने ही वाले थे की उनकी नजरे उस अखबार पर ठहर गयी। अखबार पर उन्ही की फोटो छपी थी और बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- श्री सुमित कुमार जी,पटना के नए जिला अधिकारी नियुक्त। सुमित जी ने ध्यान से देखा उस वृद्ध को और उस भिखारी ने भी एक दूसरे को। पता नहीं क्या हुआ उस वृद्ध ने तेजी से फल्गु नदी में छलांग लगा दी। इससे पहले की लोग उसे बचा पाते अपनी उम्र और कमजोरी के कारण उसे इस मृत्युलोक से मुक्ति मिल चुकी थी। सुमित जी के मुख से धीरे से निकला बाबूजी आप।
दरअसल सुमित जी ने जिस तेजी के साथ सफलता की बुलंदियों को छुआ था उससे भी अधिक तेजी से उनके नैतिक मूल्यों का पतन हुआ। ज़िम्मेदारी को बोझ समझा और अपने पिता को वृद्धाश्रम छोड़ दिया। उनके पिता ने अपने बेटे की इस आखरी भेट को ठुकरा दिया और उसे छोड़ दूर निकल गए। इस बात को आज 10 साल हो गए थे और सुमित जी अपने पिता के आत्मा की शांति के लिए आज गया पहुंचे थे। कहीं बेटे की बदनामी न हो जाये,उस वृद्ध ने अपनी जान दे दी। पोते को भी कहाँ मालूम चला की उसने अपने दादा को लात मारी और गली दी। वास्तव में ये लात सुमित जी को लगी थी , उन्होने बेटे को शिक्षा तो दी पर संस्कार देना भूल गए। वक़्त की इस लाठी की चोट ने उन्हें रुला दिया। उनके चेहरे पर एक उदासी छाई थी। फल्गु में सुमित जी के तर्पण के साथ उनके पिता की मृत देह तैर रही थी। कुछ कौओं की चोच उस मृत शरीर पर चोट कर रही थी और सुमित जी के द्वारा अर्पण किए गए पुष्प मृत पैरों के आस-पास तैर रही थी। फल्गु ने जैसे एक मिनट के लिए सारे श्रवणकुमारों के तर्पण को अस्वीकार कर दिया था। एक सवाल मेरे मन में भी तैर रहा था- पहले माता-पिता को सेवा और प्यार का अर्पण या बस अपने पापों को धोने के लिए ये तर्पण ?