कहीं खो गई है माँ
कहीं खो गई है माँ
शाहिद ... शाहिद…
मेट्रो ट्रेन में दूर से आती... ये एक औरत की आवाज़ मेरे और करीब आती जा रही थी |
रोज़मर्रा की तरह हर कोई अपने आप को किसी माध्यम में उलझाये हुए अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहा था | इस दूर से आती आवाज़ ने लोगों की तन्द्रा को थोड़ा विचलित सा तो किया लेकिन लोग फिर अपने आप में या अपने साथ वाले अपने हमसफ़र में खो गए | मैं भी मेट्रो के दरवाज़े की तरफ़ मुँह किये कहीं खोया हुआ था मगर ये आवाज़ मेरे और करीब आती जा रही थी | ये आवाज़ मुझे और मेट्रो के डिब्बे में सवार लोगों को ज़्यादा विचलित कर रही थी | आठ डिब्बे की ट्रैन में जैसे -जैसे वो औरत एक-एक डिब्बे को पार करती आ रही थी इस आवाज़ की तीव्रता और अधिक बढ़ती जा रही थी | मेने और यात्रियों की तरह डिब्बे की गैलेरी में झांक कर देखा तो सिर्फ़ आवाज़ ही सुनाई दे रही थी, वो औरत नहीं दिख रही थी |
मेरे मन में तमाम सवाल कौंधे ???
आखिर ये औरत कौन है ? इसकी उम्र क्या है ?
ये इतनी बेचैनी से इस नाम की आवाज़ क्यों लगा रही है ?
अब तक ये सवाल मेरे मन में ही थे कि मुझे लोगों से इनके जवाव मिलने लगे, कोई बोला, "लगता है पागल है, मेट्रो में चिल्ला रही है |" कोई बोला, "लगता है इसका कोई खो गया है |" तो किसी ने सिर्फ़ अपने चेहरे के भावों से ही अपने जवाब दर्ज कर दिए, मेरा मन इन जवाबों की तरफ़ गया लेकिन मेने खुद को रोक उसके आने का इंतज़ार किया | मेने अचानक देखा कि वो सत्तर साल की औरत भीड़ को चीरती हुई मेरे सामने आ गई, और दूसरी तरफ़ डिब्बे में सन्नाटा छा गया | लोग निःशब्द हो कर खड़े थे और सिर्फ़ एक ही आवाज़ मेरे कानों में ज़ोर-ज़ोर से टकरा रही थी…
शाहिद ... शाहिद... कहाँ चलो गयो रे…?
उस वक़्त मुझे इस सन्नाटे ने अपनी तरफ़ खींच लिया, मैं भी उस भीड़ की तरह निःशब्द खड़ा रहा जो अभी-अभी मेरे मन में कौंधे सवालों का जवाब खुद ही दे रही थी | वो बूढ़ी औरत इस आवाज़ के साथ मेरे करीब से गुज़रती जा रही थी और मैं स्वार्थी सा भीड़ में शामिल हो चुपचाप खड़ा था | लोग शायद इस इंतज़ार में खड़े थे कि ये हमसे पूछे, लेकिन वो सिर्फ़ एक ही नाम पुकार रही थी और आगे बढ़ती जा रही थी |
शायद वो इस सवाल का जवाब सिर्फ़ ये चाहती थी, "हाँ! माँ मैं ये रहा ... तू क्यों चिल्ला रही है | मत चिल्ला, ये मेट्रो है, लोग यहाँ सिर्फ़ गानों का शोर पसंद करते हैं, वो भी सिर्फ़ सीधे उनके कानों में |" लेकिन उस बेसुद्ध और बदहवास सी माँ को ये जवाब कहीं से नहीं मिला, वो लगातार सिर्फ़ - शाहिद ... शाहिद... चिल्लाती रही और भीड़ को चीरती डिब्बे को पार करती आगे बढ़ती जा रही थी | तभी एक स्टेशन आ गया और अपने कानों में संगीत का शोर सुनने वाले लोग उतरने लगे, वो बूढ़ी माँ एक उतरते नौजवान लड़के के बीच में आ गई और वो जवान लड़का ज़ोर से चिल्लाया !!
"कहाँ…कहाँ से आ जाते हैं ! लोग ठीक से उतरने भी नहीं देते", वो दुत्तकारता हुआ उतर गया | शायद वो किसी माँ का शाहिद नहीं था या फिर उसकी माँ इस माँ की तरह नहीं थी, उस बूढ़ी माँ की आवाज़ अब भी मेरे कानों में सुनाई पड़ रही थी, मगर इसकी तीव्रता उतनी नहीं थी |
शायद उसे उसका शाहिद अभी मिला नहीं था, उतरने वाले उतर रहे थे और चढ़ने वाले चढ़ रहे थे |
और मैं अब भी निःशब्द यूँ ही खड़ा रहा !!
अपने अंदर उठते सवालों की तीव्रता से जूझ रहा था, मैं खुद से सवाल पूछ रहा था |
"तू चुप क्यों रहा ?"
"तूने उस बूढ़ी माँ से पूछा क्यों नहीं कि तुम किसे ढूंढ रही हो ?"
"ये शाहिद कौन है ?"
"क्या तुम्हारा बेटा है..."
"क्या वो खो गया है या फिर तुम खो गई हो ?"
या फिर…
"उस उतरते नौजवान लड़के की तरह तुम्हारा शाहिद भी तुम्हे धकियाता हुआ, हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया है |"
क्या मैं इस पत्थर के शहर की तरह पत्थर का हो गया हूँ ? या फिर कोई इंसानी रोबोट जो सिर्फ़ सुबह उठता है, धक्के खाता हुआ मेट्रो से नौकरी पर जाता है, वापिस अपने घर की तरफ़ भागता है और हर रोज़ यही रोज़मर्रा की ज़िंदगी दोहराता है |
क्या अगर तू गांव की बस में होता, और तब ये माँ ऐसे चिल्लाती तू तब भी इस बेजार निशब्द भीड़ में शामिल हो चुप चाप खड़ा रहता ?
क्या ये पढ़े लिखे लोगों की संवेदनहीन भीड़ यूँ ही चुपचाप एक दूसरे का मुँह ताकती खड़ी रहती |
क्या तू नहीं पूछता माँ क्या हुआ ये शाहिद कौन है ?
ये सारे सवाल मेरे अंदर के पत्थर हो चुके इंसान को झकझोर रहे थे और मैं अब भी निःशब्द चुपचाप खड़ा था | तभी डिब्बे में रोज़ की तरह शम्मी नारंग जी की आवाज गूंजी …
"यह मालवीय नगर स्टेशन है..." और मैं इन सब सवालों को धकियाते हुए स्टेशन पर उतर गया |
बेपरवाह दौड़ता..., मशीनी सीढ़ी से चढ़ता हुआ इस शहर की रिवाजो और भीड़ में शामिल हो गया |
