खौफ़

खौफ़

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अँधेरे की सघनता में जितना डर है, उससे कहीं अधिक रहस्य है।
या 
यूँ कहें कि अंधेर की गुत्थी का एहसास मात्र ही मन में डर पैदा करने के लिए काफी है।
कुछ आवाज़ें थीं जो मेरे कानों के रास्ते मेरे हृदय पर दस्तक दे रहीं थीं। उन आवाज़ों में मधुरता नहीं अपितु रोष था, दर्द था, चीत्कार थी, मेरे वज़ूद को झकझोरने की दरकार थी। वे मुझे पुकार रही थीं। उनका स्त्रोत वही अन्धकार था जिसमें अपार रहस्य समाया था। संपूर्ण सृष्टि का सार उस अंधियारे के पीछे दुबकी रौशनी में था। मेरा मन भी सकुचाया। कदम ठिठक रहे थे, कई संदेहों ने मुझे जकड़ लिया था। पर उन सबके परे अँधेरे के चक्रव्यूह को भेदने की मेरी लालसा थी।
चल पड़ी मैं एक अनजाने रास्ते पर, अपने अबूझे डर को जीतने। नाममात्र को भी जीव जंतु के निशान न थे उस राह पर। बस चहुँ ओर कालिमा पसरी थी। उन अजीब आवाज़ों का स्वर बढ़ रहा था पर उस रास्ते को नापने का सफर कुछ अधिक मनोहर था। ऐसा लग रहा था मानो बरसों से बंधी मन की ग्रंथियां टूट रही थीं। मेरे क़दमों की थाप अवश्य ही मेरे भीतर भय की अग्नि को हवा दे रही थी, अराजकता का अनुभव हो रहा था। मेरी रूह बंधक थी, इसका परिचय मुझे अब हो रहा था। वो ख़ौफ़ की रस्सी ही तो थी जिसने मेरी आज़ादी का दम घोंट रखा था।
आगे बढ़ी तो यकायक एक वृक्ष ने मेरा ध्यान खींचा। वह बहुत सुँदर था। उसकी शाखाओं और पत्तियों की चमक अनुपम थी। फूलों के रंग अनोखे थे। समुचित रहस्य उस वृक्ष में रोपित था।
रोने की आवाज़ आयी...
उस अन्धकार ने मुझे डराया हुआ था, फिर भी मन को बहुत समझाकर मैंने उस पेड़ के पीछे जाने की हिम्मत जुटाई। उसके पश्चात जो मैंने देखा, उससे मेरी आँखें चौंधिया गयी। स्वयं के प्रतिबिम्ब का नज़ारा पाकर मैं अचंभित थी। अपने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाहा पर मेरे हाथ हवा में तैर गए। मैं मंत्रमुग्ध थी। उसके अनुपम स्वरुप के दर्शन पाकर मैं आश्चर्यचकित थी। उसकी सिसकियों ने मेरी तन्द्रा को भंग किया। मैंने उसके दुःख का कारण जानना चाहा तो उसने कहा,"तुम।"
मैं पीछे हट गयी। इसकी अपेक्षा नहीं थी। मेरे अविश्वास को भांपकर वह मेरे निकट आ गयी। उसके मुख की अलौकिक आभा पर मैं मोहित थी। उसने शुरू किया," तुम ही मेरे इन अश्क़ों का कारण हो। मैं आत्मा हूँ, तुम मस्तिष्क। सर्वशक्तिशाली। तुम्हारी ताकत के समक्ष मैं कमज़ोर पड़ रही हूँ। मैं क्षिण हो रही हूँ। तुम तो अन्धकार हो जो उजाले के भेष में विचरण करता है।
हम दोनों एक ही शरीर के दो हिस्से हैं। जहाँ मैं उसे संवारना चाहती हूँ, तुम्हारी अराजकता उसके क्षय में सहयोग दे रही है। वह जिस अस्तित्व को सत्य मान बैठा है, वह तो मिथ्या है, माया है। तुम्हारी माया ने उसे भ्रमित कर दिया है। वह मृगतृष्णा के झूठ को सच समझ बैठा है। यह उसके लिए हानिकारक है। उसकी अज्ञानता का घड़ा भर गया है। पर तुम ताकतवर हो। वह सिर्फ तुम्हारी सुनता है, मेरे विषय में सोचता भी नहीं।
 एक प्रार्थना है तुमसे कि अब बस। ठहर जाओ, मत बढ़ो आगे। मत ले जाओ उसे उस दिशा में जिसका कोई निश्चित अंत नहीं। उस अजब संसार में सिर्फ वो होगा,अकेला। और कोई नहीं। रुक जाओ। एक बार उसे मेरी आवाज़ सुनने दो। मेरी पुकार उसे उजियारे की ओर जाने का निर्देश देगी। मैं उसके अस्तित्व को नष्ट होते नहीं देख सकती।"
इतना कहकर छाया गायब हो गयी। उसके शब्दों के जादू ने मेरे अंतस को रोशन कर दिया। लगा मानो डर का किला धीरे धीरे पस्त हो रहा है। आत्मा अजर है, अमर है और मैं एक साया जिसका अंत निश्चित है। क्यों करूँ गुमान खुद पर जब होना ही एक दिन ख़ाक है। सत्य ने मुझे गले लगाया। उजाले ने मेरे मन की गिरहें खोल दी। आज़ाद हो गयी मैं। अपने आप से। अपने दिमाग में पल रहे डर रुपी राक्षस से। खौफ़ ने मुझे निर्बल बना दिया था, खौफ़ मेरे दिमाग में जड़ित दानव था। आज मैं उससे मुक्त हूँ। इस स्वतंत्रता की प्रसन्नता अतुल्य है।
अचानक एक किरण मेरे चक्षुओं को सहलाती हुई प्रतीत हुई। सुबह हो गयी थी।


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