Prafulla Kumar Tripathi

Drama

4.9  

Prafulla Kumar Tripathi

Drama

कब आएगी नई सुबह ?

कब आएगी नई सुबह ?

10 mins
581


रेलवे स्टेशन से सिर्फ दो किलोमीटर दूर था वह चर्चित गाँव मिसर पूरा जहां जसप्रीत अपनी सात पीढी से रहता चला आया था। ट्रेन से उतरते ही लोग बाग पैदल ही उस गाँव तक पहुँच जाया करते थे और अगर सामान हुआ या बच्चे -जनाना तो फिर इक्का तांगा तो था ही। जसप्रीत के गाँव की खूबी यह थी कि उसके गाँव की लड़कियां बहुत सुन्दर हुआ करती थीं। उनका रंग गोरा चिट्टा हुआ करता था और ऐसे में बदसूरत नैन नक्स वाली लड़कियां भी आसानी से अच्छे और प्रतिष्ठित घरों में खप जाया करती थीं। वे बड़े ताव से कहा करतीं मिसिर पूरा की लड़कियों को एड़जेस्ट करना नहीं सिखाया जाता है।वे जहां रहती हैं अपनी अलग पहचान बनाकर रहती हैं। एक और खूबी उस गांव की तो बताये ही नहीं और वह यह कि पीढी- दर- पीढी उस गाँव के लोग रेलवे की सेवा करते आये थे। हुआ यूं कि खानदान में कोई एक रेलवे में घुसा कि उसने दूसरे के लिए जुगाड़ बैठाना शुरू कर दिया। अंग्रजों का ज़माना हुआ करता था और वे भारतीयों की सेवा सुश्रूषा के कायल हो चले थे। चतुर्थ श्रेणी ही सही कम से कम रेलवे की नौकरी उस गाँव के लोग पसंद करने लगे थे।

मिसर पूरा वालों के युवा लड़के शहर तक पढने क्या जायं वहां रोज़ बवाल काटते रहते थे। कभी किसी की दूकान से बिना पैसे दिए सामान उठा लाना तो कभी किसी पेट्रोल पम्प पर तेल भरवाने को लेकर बवाल काटना। सह्ह्र में मारवाड़ियों की अनेक दुकानें थीं और मारवाड़ी अपना व्यवसाय करें या रोज़ रोज़ इस तरह के बवाल सो उन सभों ने गाँव के कुछ दबंग 'खलिहरों' को यह ज़िम्मा दे ड़ाला कि ऐसे उद्दंड़ लड़कों की मनमानी पर रोक लगाई जा सके। "खलिहर " तो आप जानते ही होंगे वह व्यक्ति जो एकदम खाली रहकर अपना टाइम पास करता हो ! वे बाकायदा उन्हें हर महीने पेमेंट करने लगे। शहर अब कुछ चैन की सांस लेने लगा था। लेकिन एक कहावत हैं ना चोर चोरी से जाय छीनाजोरी से ना जाय ! इसलिए मिसर पूरा भला उसका अपवाद क्यों होता !

जसप्रीत बेहद सीधे- साधे अपने काम से मतलब रखने वाले इंसान थे लेकिन उनकी बीबी उनके स्वभाव से एकदम उलट। नाटी कद वाली उनकी बीबी की पढाई - लिखाई चूँकि दूसरे प्रांत में हुई थी इसलिए वे गाँव में अपना अलग ही दबदबा बनाना चाहती थीं। जसप्रीत की माँ कम ही उम्र में अपने दो बेटों को पैदा करने के बाद विधवा हो गई थीं लेकिन उनके दोनों बेटों ने उन्हें भरपूर सम्मान देकर उनका आन - बान - शान बढ़ा रखा था। जसप्रीत छोटे और मनप्रीत बड़े थे। जसप्रीत से एकदम उलट मनप्रीत थे। मनप्रीत थे तो रेलवे के मुलाजिम लेकिन वे कभी रेलवे आफिस नहीं जाया करते थे। वे भोर होते ही मिसरपूरा निकल लेते थे और मारवाड़ियों के यहाँ बैठक किया करते थे। लोगों के ऊपर पैसों की वसूली का काम किया करते थे और फिर दोपहर होते - होते देशी शराब की भट्टी पर पहुँच जाया करते थे। दारू झूम कर पीते और वहीँ पर ढेर सारे गुंड़े,

बदमाश मवाली के साथ बैठ कर कलियुगी सत्संग भी किया करते थे। उनकी दबंगई से उनका आफिस सुपरिंटेंड़ेंट हमेशा उन्हें कार्यमुक्त किये रहता था। हाँ,वेतन वाले दिन मनप्रीत सज- धज कर आफिस ज़रूर आते थे और तनखाह उठा कर मानो रेलवे पर अपना एहसान जताते थे। उनकी पत्नी भी पर्याप्त पढी लिखी ज़रूर थीं लेकिन घर की " बड़की पतोह " कहलाने के चलते वे अपनी सास की घर- गृहस्थी संभालने में ही फंसी रहती थीं। मनप्रीत देर रात में झूमते झामते घर आया करते थे और उसका काम सिर्फ उनको भोजन करवा कर उनके बिस्तर गर्म करना हुआ करता था। इसीलिए उन्हें हर साल उनके चाहे या अनचाहे कैलेण्ड़र भी छापना पड़ता था। अब तक चार हो चुके थे पांचवी संतान पेट में थी।

हाँ ,तो मिसर पूरा की कहानियाँ शुरू तो होती थीं लेकिन उनका अंत नहीं होता था। जैसे उमाशंकर बाबू ने अपनी बड़ी बेटी की शादी की बात कानपुर में चलाई ही थी कि उनके पट्टीदार गणेश शंकर ने जाने कहाँ से लड़के वालों को यह गुप्त बात बता ड़ाली कि उमाशंकर को तो उनके ढंके वाले अंग में सफेद दाग है। सब कुछ फाइनल हो चुका था और अब शादी की तारीख निकट आ रही थी कि इतना बड़ा विघ्न उमाशंकर के सामने आ खड़ा हुआ। भोले बाबा के स्थान पर जाकर उन्होंने मनौती मानी कि हे भोले बाबा गनेसवा के सर्वस्व बर्बाद कर दो ! उधर जवानी से प्रौढावस्था फांद चुकी बिट्टोइया पूरे गाँव में कभी इस लड़के के साथ तो कभी उस लड़के के साथ सनीमा देखने भाग जाती थी। उमाशंकर दुखी होकर जसप्रीत के पास पहुंचे।

"जसप्रीत बाबू ,कुछ कीजिए। ई गणेशवा हमरा के जीये नाही देत बा। "कुछ हिन्दी और कुछ भोजपुरी की काकटेल बनाते हुए उमाशंकर ने कहा।

"ठीक है उमा बाबू ! मैं उन्हें समझाऊंगा। लेकिन आप अपनी बिटिया की शादी पर अपना ध्यान कंसंट्रेट कीजिए। "जसप्रीत बोले।

"आप ही मेरी कुछ मदद कीजिए मैं तो एकदम हताश हो चला हूँ। "लगभग गिड़गिड़ाते हुए उमाशंकर बोले। उनकी पीड़ा उनके माथे पर झलक रही थी और ठण्ड़ के मौसम में भी उनके माथे का पसीना इस बात का गवाही दे रहा था कि वे कि कर्तव्य विमूढ़ की दशा में हैं।

" अच्छा , अच्छा "कहकर जसप्रीत अपनी फाइलें उलटने पलटने लगे मानो वे कह रहे हों कि अब वे रास्ता नापें !

उमाशंकर हताश और निराश मन से मिसर पूरा के लिए ट्रेन पकड़ लिए। स्टेशन पर उतरे तो बगल की दारू की भट्टी मानो उन्हें राहत देने का आमन्त्रण देती मिली और उमाशंकर बाबू उधर हो लिए।

"आओ आओ उमा बाबू ! कहां से गिरते पड़ते चले आ रहे हैं ? " वहां पहले से मौजूद मनप्रीत ने उनकी अगवानी की।

"अरे भाई क्या बताऊँ शहर से आ रहा हूँ। आपके भाई साहब से ही तो मिलने गया था। "कहते हुए उन्होंने मनप्रीत को पूरा किस्सा बता दिया।

मनप्रीत उस बीच चिखना और "अनारकली" ब्रांड़ की दो बोतलें मंगा चुके थे और पत्तल पर चिखना और कुल्हड़ में दारु परोस चुके थे।

"अच्छा अच्छा लो , पहले अपना थोड़ा गम मिटाओ। " कहकर मनप्रीत ने चिखना और दारू का आनन्द उठाना शुरू कर दिया।

दोनों देर रात तक दोनों लोग देश दुनियां की बातें करते रहे और उमा बाबू को सबसे ज्यादा इस बात से तसल्ली मिली कि मनप्रीत ने गनेसवा की अकल ठिकाने लगाने पर हामी भर ली थी।

अगली सुबह पता चला कि भोले बाबा ने उमा बाबू की चिरौरी सुन ली थी और भोर होते ही खेत - खलिहान गए गनेसवा को कुछ लोगों ने लाठियों से पीट पीट कर मरणासन्न कर दिया था। उसे लोग लाद फांद कर अस्पताल ले जा रहे थे। खूबी की बात यह थी कि गनेसवा को इस हालत में अस्पताल ले जाने वालों के मुखिया मनप्रीत थे। वही मनप्रीत जो कल देर रात में उमा बाबू के हम प्याला हम निवाला थे !

उधर दूसरी ओर गनेसवा की औरत का रो - रो कर बुरा हाल था।

"अरे हो मोरी काली माई ! कानि कौन हमरे सुहगवा के अधिमरा कई दिहलस ओके जमराज ले जाएँओकर सातो पुस्त के नास हो जाय |"छाती पीट-पीट कर ज़मीन में लोट- लोट कर उसकी पत्नी विलाप कर रही थी। लोग उसको सांत्वना दे रहे थे। घर से कम निकलने वाली औरतें भी घूँघट काढ़े उसको दिलासा दे रही थीं कि वह रोना धोना बंद करे और भगवां चाहेंगे तो गणेश बाबू अवश्य ही ठीक होकर घर आ जायेंगे।

उधर अस्पताल ले जाते ले जाते गणेश की हालत खराब होती जा रही थी। सिर से खून ज्यादा बह चुका था और पीठ में रीढ़ की हड़्ड़ी भी क्षतिग्रस्त हो गई थी। ड़ाक्टरों ने कई बोतल खून भी चढ़ाए और मेड़िकल कालेज रेफर कर दिए लेकिन मेड़िकल कालेज ले जाने की तेयारी करते करते देर रात तक उसकी मृत्यु हो गई। लाद फांद कर अगली सुबह उसका मृत शरीर गाँव लाया गया।

गणेश के दुखद निधन से पूरा गाँव शोकाकुल था लेकिन दो लोग इस बात से खुश थे। एक उमा बाबू और दूसरे मनप्रीत। मनप्रीत की खुशी का कारण गणेश की खुशी के कारण से ज्यादा इसलिए दुगुनी थी क्योंकि यह उनकी गुंड़ों की टीम द्वारा अदभुत कलाकौशल से संपन्न पांचवा क़त्ल था। इस क़त्ल से इलाके में उनकी दबंगई के नए कीर्तिमान स्थापित होने थे। उनके लिए तो यही कहावत फिट बैठ रही थी कि सांप भी मर गया और लाठी भी ना टूटने पाई !

यह वह दौर था जब उस इलाके में बात- बात पर क़त्ल हो जाया करता था। लाठियां ही नहीं अब तो कट्टा और बिहार से आई देसी पिस्टलें भी अपराधियों के इस नेक काम की मददगार हुआ करती थीं। सफेदपोश लोगों का इन अपराधियों पर वरद हस्त होता था। ठीका-पट्टा लेना हो,इलेक्शन जीतना हो ,किसी विरोधी का मर्ड़र करना हो,किसी मकान पर कब्जा करना हो लोग सीधे इन लोगों की सेवायें लिया करते थे। इनका आपस में भी बड़ा ही अच्छा तालमेल हुआ करता था। एक दूसरे के कार्य क्षेत्रों में कोई दूसरा दखल नहीं देता था बल्कि यथासंभव मदद ही किया करता था।

लेकिन समय कभी एक समान नहीं रहता है। वह हमेशा चलायमान रहा है। भगवान् इन दिनों उमा बाबू पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गए थे और जसप्रीत की मदद से उनकी बिट्टो की शादी लखनऊ में तंय हो चुकी थी।

गाँव में बरात आ चुकी थी और गाँव के लोग मिलजुल कर बिट्टो की शादी ठीक ठाक से सम्पन्नं हो इसके लिए प्रयास रत थे। आवभगत में कहीं कोई कमी नहीं होने पा रही थी। अगवानी के बाद शादी की तय्यारी हो ही रही थी कि पास के बागीचे से बाई जी की महफ़िल की आवाजें गूँजने लगी थी।

"कहंवा से अईले भंवरवा रे मोरे , कहंवा सेअईले देवरवा रे मोरे ,

छुएला अंचरवा

कहंवा से अईले भवरवा रे मोरे "

गाँव के सारे करता धरता लड़के बाग़ की ओर भाग गए। भोजन पर बैठे बारातियों में कोई दाल मांग रहा है तो कोई पूड़ी और और उधर उस लड़के को तो देखो वह अपनी प्लेटें पीट पीट कर पुलाव मांगे जा रहा है।

घर की औरतों और बेटियों ने घूँघट की आड़ में ही सही बाहर आना मुनासिब समझा और किसी तरह बारातियों की पेट पूजा सम्पन्न हो गई। भौचक हो उठे दूल्हे और उसके पिता श्री ही नहीं उनके नाते -रिश्तेदारों के लिए भी यह अजीबोगरीब दृश्य आने वाली किसी रोचक फिल्म का ट्रेलर जैसा लग रहा था। उधर बाई जी की तान गाँव के दारू पीकर उन्मत्त लड़कों में हिलोरें मार रही थीं।

"हमने मंगाई सुरमेदानी,

ले आया ज़ालिम बनारस का ज़र्दा ,

अपनी ही दुनियाँ में खोया रहे वो ,

हमरे दिल की ना पूछे बेदर्दा

पान खाए सैंया हमारे ,

सांवली सूरतीय होठ लाल -लाल "

गाँव की इस वासनामय लीला से एकदम बिंदास होकर मनप्रीत अपनी दिनचर्या के मुताबिक़ झूमते -झामते गाँव के सीवान पर पहुंचे तो उनका माथा ठनका।

"अरे ! आज तो बिट्टो की शादी है ! " वे बुदबुदा उठे और ऐसा लगा कि उन्हें इस महत्वपूर्ण आयोजन के भूलने का बेहद अफ़सोस भी हो।

गाँव में घुसने वाले ही थे कि फिर वही नर्तकी के बोल फिजां को रंगीन बनाने काम कर रहे थे। पास गए तो देखा कि उनके बगल के गाँव का एक लौंड़ा उस नर्तकी के साथ कमर भी मटकाए जा रहा है।

" कईसन बाराती अइलें,

जिन कर सूप अइसन कान रे ,

दूनो काने सुने ई सब बतिया हमार रे।

समधी के बहिना गइलिन बीचे बाजार रे ,

बिचवे में मिलि गइलें , ठाकुर लोहार हो।

काट खईलन उनकर सुन्नर

गोरहर गोरहर गाल रे

कइसन बराती अइलें "

अब मनप्रीत का सारा नशा हिरन हो चला। अर्ध नग्न नर्तकी को देख कर और उसके साथ बगल के गाँव के लौंड़ों को नाचते देख कर उनका पारा सातवे आसमान पर चढ़ गया। पहुँचते ही अपने देशी कट्टे से निशाना साध कर पहली गोली उस बगल के गाँव वाले लड़के को मारी और दूसरी उस नर्तकी को। उनका निशाना एकदम पक्का था और दोनों वहीँ ढेर हो गए। महफ़िल में भगदड़ और कोहराम मच गया। अब तो गैगवार जैसा माहुल हो गया। बगल के गाँव वाले भी लाठी और कट्टे से लैस थे। दोनों और से ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू हो गई। देखते देखते मनप्रीत सहित तीन चार लोग और वहीं ढेर हो गए।

अभागिन बिट्टो आज तक बिन व्याही अपने दुर्भाग्य को रो रही है। सारा सौन्दर्य , सारा गुमान और सारी दबंगई अब जाने किस गलियारे में खो गई है और अब भी वह गाँव शराब , जुआ और रंडीबाजी में ऐसा ड़ूबा हुआ है कि आज उस गाँव में पुरुष नाम मात्र के रह गए हैं। विधवा औरतों का विलाप अब भी उधर से गुजरने वाले राहगीरों का रह - रह कर दिल चीरता रहता है ।मिसिर पूरा का वह गांव अब भी एक नई सुबह की प्रतीक्षा में है जब चमड़े की चमक की जगह व्यक्तित्व की चमक से वह लोगों का एक बार फिर से आकर्षण का केन्द्र बन सकेगा।


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