कैलेंडर
कैलेंडर
नया साल शुरू होने वाला है लोग बेसब्री से इसका इंतजार कर रहे हैं। साथ के सरकारी दफ्तरों में कुछ गाड़ियों में और कुछ थैलों में भर कर लाए जा रहे हैं। मेरे गांँव का एक मुलाजिम भी प्रतिदिन ड्यूटी पर जाता है। मैंने कहा भाई एक मुझे भी ला देना। इसके बिना काम नहीं चलता। भाई ने मुझे ला कर दिया मैंने भी अपने कमरे की शोभा बढ़ाने के लिए उसे संरक्षित करके रख लिया। हफ्ते में दो चार बार इसकी आवश्यकता जरूर महसूस होती। कभी-कभी तो मानो ऐसे लगता जैसे वो आंँखों से ओझल क्यों है ?
हो भी क्यों ना क्योंकि दीवाली, होली, मकर सक्रांति, मेले, त्यौहार, राखी, करवा चौथ सब का पता तो इसी से लगता है। जब भी कुछ पता नहीं चलता घर में अभी बात ही चल रही होती है, बेटी एकदम उठकर बोल देती है, पापा मैं अभी देख लेती हूंँ। बस ऐसे ही लोगों की उंगलियांँ इसे छूने के लिए बेताब रहती जैसे-जैसे महीने गुजरते जाते इसकी लचक थोड़ी कम होती जाती। अकड़न भी थोड़ी ढीली पड़ जाती है मानो कोई आदमी वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहा है।
साल का अंतिम महीना चल रहा था। 31 दिसंबर को जैसे ही मैं ड्यूटी से घर लौटा मैंने देखा कूड़े के ढेर पर अरे यह क्या? मैंने पत्नी से पूछा इसे क्यों फेंक दिया यह तो बहुत काम की चीज थी। अरे यह तो पिछले साल का हो गया अब,अब तो नए साल के लिए नया आएगा उसी को घर में रखेंगे। बस इतना सा ही जीवन है इसका एक साल भर जी हांँ। इसका नाम है कैलेंडर जो मात्र एक वर्ष के लिए पूरे घर के सदस्यों का सहारा होता है। उसके बाद किसी कूड़े के ढेर पर फेंक दिया जाता है, गलने और सड़ने के लिए। कुछ ऐसा ही जीवन है आदमी का भी। काम निकल जाने के बाद उसकी भी बेकद्री हो जाती है।