कान्हा

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कान्हा

‘खन्न’ की आवाज सुनते ही झटकें से आँखें खाली,  अलार्म में मोती बिखरने की ध्वनि मुझे बहुत पसंद है। दो सेकंड के लिए अपनी आँखें मूंदे रात के सपने के बारे में सोचने लगी।

आज फिर वही ‘कान्हा’ का सपना आया,  पिछले कई दिन से मैं रोज कान्हा को अलग-अलग रूपों में देख रही हूँ। कभी नन्हे से माखन-चोर रूप में तो कभी गोपियों से घिरा अनुपम रूप। पर माँ को ये बताना तो......कई उपदेश सुनना है। ‘नहीं बेटा, यह शिर्क है, कुफ्र है। ये आयत पढ़, वो कलमा पढ़...।

नमाज ना निकल जाए इस चिंता से मैंने फटाफट उठ वुजू किया और नमाज पढ़ने बैठ गई।

नमाज पूरी होते ही, माँ की चाय की खुशबू से खींची किचन में आ गई। ‘चल,  बिस्कुट की प्लेट उठा ले चल’ कहते हुए माँ चाय की ट्रे उठा हॉल में आ गई। अब्बा पहले से ही वहाँ अखबार लिए बैठे थे। सब अपना कप उठा चुस्कियाँ लेने लगे। अब्बा बोले ‘देखो,  फिर कुम्भ मेले में भगदड़ मच गई है’

‘इतने लोग आखिर इकट्ठे ही क्यों होते हैं?’ का यह सवाल सुन मैं झट से बोल पड़ी - ‘श्रद्धा है माँ उनकी,  उर्स में भी तो इतनी ही भीड़ होती है कि नहीं?

अब्बू चश्मे के ऊपर से घूर कर देखते हुए बोले ‘तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है आज कल?, यह फाइनल इयर है। नम्बर अच्छे नहीं आए तो बी.ए. करने का कोई मतलब नहीं। बहुत कॉम्पटीशन है आजकल, किसी मुकाम पर पहुँचना है तो अपने को साबित करना होगा,  बच्चे।’

मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा ‘अब्बा फर्स्ट डिवीजन तो पक्का है.... डिस्टिंगक्शन की कोशिश है। ‘शाबाश’ कहते हुए अब्बा फिर अखबार में गुम हो गये। माँ कुछ कहे उससे पहले ही मैं झट बर्तनों को उठा किचन में चल दी। माँ को मेरी पढ़ाई से ज्यादा फिक्र मेरी शादी की थी। मेरी बढ़ती कक्षाओं की जमात उनकी माथे की लकीरें को बढ़ा रही थी। ‘मुकाबले का दूल्हा’, ‘अच्छा दयार’ वगैरह-वगैरह। पर खुदा का शुक्र है अब्बू मुझे किसी मुकाम पर देखना चाहते हैं। खुद भी मदरसा बोर्ड के खजांची होने के कारण शिक्षा की अहमियत समझते थे। छोटा भाई अभी लाड़-दुलार के कारण अपनी उम्र से भी छोटा था।

कालेज के लिए जाते समय अपनी स्कूटी को सड़क के किनारे लगे कचरा पात्र से जैसे ही निकाला मेरी नजर एक छोटे से बच्चे पर पड़ी,  कचरा बीनने में मशगूल,  अपने काम की थैलियों को चुनता,  झड़काता और थैलियों में भरता...। पता नहीं उसको देख कुछ भीतर तक उमड़ा और मैंने वहीं स्कूटर के ब्रेक लगाए। उसे इशारे से अपने पास बुलाया, पहले वह थोड़ा सहमा पर मेरी मुस्कुराहट देख मेरे पास आया। मैंने अपने बैग से ‘टिफिन’ निकाला और उसमें रखे दो आलू के परांठे उसकी ओर बढ़ा दिए। वह खुशी से उन्हें ले पास ही बैठी अपनी छोटी बहन की ओर दौड़ा और दोनों टुकड़े तोड़-तोड़ खाने लगे। उस बच्चे का मुस्कुराता चेहरा मुझे अपने रात के ‘कान्हा’ से मिलता-जुलता लगा। मेरा दिल धड़कने लगा। मैने हेलमेट पहने-पहने स्कूटी स्टार्ट कर,  फिर पीछे मुड़ कर देखा,  हूबहू वही मेरा सपने वाला कान्हा ही तो है। मैं आगे बढ़ गई।

कालेज पहुँचकर जब मैंने यह किस्सा सविता को सुनाया तो पहले तो वह खूब हॅंसी,  फिर मुझे छेड़ते हुए बोली ‘क्या बात है मेरी राधा?...लगता है कोई कान्हा आने ही वाला है। वैसे भी कान्हा तो प्रेम का दूसरा नाम है, तो प्रेम होने वाला है मेरी लाडो को?’

मैने तुनकते हुए कहा ‘तेरी तो अक्ल ही छोटी है सविता! कान्हा ‘प्रेम’ का दूसरा नाम है तो,  प्रेम की विशालता, गहराई, निश्छलता को भी देख। उनका प्रेम सिर्फ ‘गोपी’ प्रेम नहीं, वह तो कण-कण में व्याप्तता का प्रतीक है,  सर्वव्यापकता...’,  बीच में ही रोकते हुए वह बोल पड़ी- ‘बस-बस तेरा यह लेक्चर बाद में सुनूंगी,  अभी तो खुराना मैम का पीरियड है, जल्दी चल वो आ गई होगी।’

कालेज से घर जाने के लिए जैसे ही मैंने स्कूटी उठाई, सविता झट से उस पर बैठते हुए बोली ‘आज भाई की बाइक खराब थी,  वो मेरा स्कूटर ले गया,  चल... आज तुझे ही छोड़ना पड़ेगा। मैं बिना कुछ कहे, उसे बिठा चल दी। कुछ दूर चलने पर वह चिल्लाई ‘अरे-अरे रुक-रुक ‘मैंने दोनों हाथों से ब्रेक लगाया और पूछा -‘क्या हुआ?’

सविता ने नीचे उतरते हुए कहा ‘आज मंगल है,  बालाजी के मंदिर के आगे से यूँ ही ले जायेगी?’ कहते हुए सविता उतर कर मंदिर की ओर चल दी।

मुझे भी स्कूटी साइड में लगा अंदर जाना ही था।

तब तक सविता,  सिर पर पल्लू डाल,  हाथ जोड़ अपनी फरमाइशों की झड़ी में मशगूल थी। मैंने बालाजी को ‘सलाम’ किया और एक पीर की तरह सिर पर हाथ फेरने की दुआ करते हुए बाहर आ गई। मेरे लिए मंदिर मैं जाना कोई पूजा नहीं,  मैं मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करती पर मेरी सहेली की दोस्ती में कोई ‘कसक’ ना रहे इसलिए जाना जरूरी था।

दरवाजे पर घंटी बजाने से पहले मैंने अपने सिर पर लगे तिलक को पोछा,  माँ की खुशी भी मेरे लिए जरूरी थी.

दूसरे दिन सुबह जब नींद खुली तो फिर तो फिर से आये कान्हा के सपने की सोच चेहरे पर एक मुस्कुराहट खिल गई। फज़र (सुबह) की नमाज में देरी होते देख मैं झट से उठ बैठी। दो दिन बाद ही मेरी परीक्षा शुरु होने वाली थी और आज मुझे अपना प्रवेश पत्र लेने जाना था। नाश्ता जल्दी-जल्दी खत्म कर जैसे ही मैं घर से निकलने लगी माँ ने मुझे 500 का नोट थमाते हुए कहा- ‘देख,  यह सदका (विशेष दान) है। रास्ते में किसी गरीब मुसलमान को दे देना।’ मैंने गर्दन हिलाते हुए नोट पर्स में डाल स्कूटी उठा चल पड़ी। थोड़ी दूर पर जाते ही फिर वही बच्चा मुझे दिखा और मुझे देखते ही एक ‘भोली मुस्कान’ बिखेरता ठिठक गया। मैंने स्कूटी रोकी, वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया, शायद इस आस से कि मैं आज फिर उसे टिफिन में से कुछ दूँगी। ‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैंने हेलमेट उतारते हुए पूछा।

‘कृष्णा’ उसने शरमाते हुए कहा। नाम सुनते ही मेरा हेलमेट वहीं रुक गया। प्यार से उसके गाल पर हाथ फेरते हुए पूछा ‘स्कूल जाते हो?’ ‘हाँ’ में उसकी गर्दन हिलते देख मैंने कहा ‘कब’ उसने शरमाते हुए कहा ‘कभी-कभी’।

पर्स से 500 का नोट निकालते हुए मैंने उससे कहा- ‘रोज जाया करो और यह पैसे अपनी माँ को दे देना। उसने सहमते हुए पैसे लिए और खुशी से ‘थैंकु’ बोला और दौड़ गया। मैं मुस्कुराते हुए हेलमेट पहन चल दी।

आज जुम्मेरात है और कल मेरा पहला पेपर है। मैं ख्वाजा जी की दरगाह जाने के लिए सुबह-सुबह नहा-धोकर जाने लगी तो देखा अम्मा भी जाने को तैयार है,  और जैसे ही हम द्वार से निकलने लगे पीछे से अब्बा की आवाज आई ‘अरे उर्स के महीने में तुम लोग क्यों जा रही हो? बाद में चली जाना।’ पर हम दोनों ही कान बंद कर निकल पड़े।

दरगाह में भीड़ का आलम देखते ही बनता था। मैं और माँ जैसे-तैसे दरगाह में अंदर तो पहुँच गए पर आस्ताने शरीफ के बाहर इतनी भीड़ थी कि हम तीन चक्कर उसके बाहर ही लगा चुके थे। जैसे ही आस्ताने शरीफ का गेट आता,  तभी भीड़ का धक्का आता और हम आगे निकल जाते। मैंने माँ का हाथ कस कर पकड़ा था,  पर इस बार जैसे ही आस्ताने का गेट आया, माँ ने पूरा जोर लगा,  खुद को अंदर धकेल दिया, माँ मेरे हाथ से छूट गई,  बस उनका हरा दुपट्टा ही नजर आ रहा था,  मैं भी पूरी ताकत लगा माँ के पीछे हो ली। माँ का हरा दुपट्टा ही मेरी नजरों के सामने था। भीतर प हूँ च बस कलमा बुदबुदाते, माँ का हरा दुपट्टा देखते,  सलाम फेरते भीड़ के धक्कों में कब बाहर आ गई पता ही नहीं लगा। बाहर निकलते ही माँ का हरा दुपट्टा मेरा नजरों से ओझल हो गया,  मैं घबरा गई। माँ को सफोकेशन ना हो जाए, वे बेहोश ना हो जाए, इसी बेचैनी से जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगी। तभी देखा माँ का पैर अकड़ गया और वो नीचे गिरने लगी,  तभी दो नन्हे हाथों ने कहीं साइड से आ, उन्हें थाम एक ओर खींच लिया। माँ ने अपना संतुलन बनाते हुए, अपने को खड़ा किया। तभी मैं दौड़ते हुए माँ के पास पहुंची

‘माँ तुम ठीक तो हो। हाँफते हुए उन्होंने ‘हूँ’- कहते हुए गर्दन हिलाई।

मेरी नजर जब उस बच्चे पर गई जिसने माँ को संभाला था, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा। वो ‘कृष्णा’ था। ‘जीजी, यह तुम्हारी माँ है?’

मैंने हाँ में जवाब देते हुए ही पूछा ‘अरे कृष्णा तुम यहाँ?’

मेरे सवाल को सुन उसने धीरे से कहा ‘आज छठी है ना इसीलिए...’

मेरी आँखें डबडबा आई। मेरे सपनों का कान्हा मेरे सामने था.....प्रेम का प्रतिरूप.....ना अल्लाह,  ना भगवान...बस प्रेम और प्रेम।

 


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