Sumit sinha

Comedy

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Sumit sinha

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कान की व्यथा

कान की व्यथा

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मैं कान हूं।

हम जुड़वां भाई हैं।

मेरा काम केवल सुनना है।

हमें पाने वाले ने हम दोनों भाई को कभी एक दूसरे से मिलने नहीं दिया। पता नहीं क्या सोच कर उसने हम दोनों भाई को एक दूसरे के विपरित चिपका दिया। हमने बहुत कोशिश की अपने जुड़वां भाई से मिलने की। लेकिन सफल नहीं हो पाया। हर पल मैं अपने जुड़वां भाई से मिलने के लिए तड़पता रहता हूं। 

उपर वाले ने मुझे केवल सुनने की क्षमता दी है। मैं किसी से अपनी व्यथा कैसे कहूं? मुझ पर कितने अत्याचार होते हैं केवल मैं ही झेलता हूं। बचपन में गलती छोटे-छोटे बच्चे करते हैं, मरोड़ा मुझे जाता है। कितनी पीड़ा होती है उस समय और मैं दर्द से चीख भी नहीं सकता। कभी कभी तो मैं सूज भी जाता हूं।तारीफ़ तो कभी मेरी होती ही नहीं। 


लड़कियां मुझमें छेद करवा कर तरह तरह की बालियां और झुमके लटका कर हमेशा हमें दर्द देती रहती हैं। हाँ तरह तरह की बालियां लटकाने का दर्द कुछ कम हो जाता अगर थोड़ी सी तारीफ़ मेरी हो जाती। मगर यहां भी सब चेहरे की सुंदरता बढ़ जाने की बात बोल कर चेहरे की तारीफ कर जाते हैं।आज की युवा पीढ़ी तो हर समय मुझ में ईयर फोन की टोपी फंसाए ऐसे घुमतीीहै जैसे घर में खुंंटी से टांंगे हों।लोग बोलते स्वयं ही धीरे धीरे हैं और कम सुनने का आरोप हम पर लगाया जाता है।

कुछ बातों को अगर हम दोनों भाई अपने बीच सम्हाल कर रखना चाहते हैं तो आदेश जारी कर दिया जाता है कि एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दो। जैसे हमारा अपना कोई वजूद ही नहीं है। 

अक्सर हम पर बेवजह कच्चे होने का आरोप लगाया जाता है। मानो हम कोई फल हैं जो अभी तक पका नहीं। कितनी असहनीय पीड़ा होती है उस समय मैं ही समझ सकता हूं। भुक्तभोगी जो हूँ।

बढ़ती उम्र के साथ इंसान अपनी जिम्मेदारी और कंधे से बोझ कम करता जाता है। किन्तु यहां भी हमें ही परेशान किया जाता है। दोष आँखों का होता है और डंडियों का बोझ हम दोनों भाई पर डाल दिया जाता है।साहित्य जगत भी मेरी अनदेखी करता रहता है। हमेशा मेरे पड़ोसी आँख और होंठ की तारीफ करता है। कभी कभी तो नाक की तारीफ भी कर दिया करता है। लेकिन कभी किसी साहित्यकार ने कान की तारीफ नहीं की। 


जीवन भर चुपचाप सुनते रहना, समय समय पर कभी चेहरे की सुंदरता बढ़ाने के लिए तो कभी आँखों की कमी छिपाने के लिए बोझ उठाना, बेवजह के ताने सुनना और तो और गलती मुंह की होती है गालियां मुझे सुननी पड़ती है। इतना सब कुछ सहने के बाद भी किसी से अपनी व्यथा नहीं कह पाने का दर्द केवल एक कान ही समझ सकता है। उस पर कोरोनावायरस भी हमें कष्ट दे रहा है। वायरस मुंह अथवा नाक के रास्ते शरीर में प्रवेश करता है और मास्क की डोरी से हमें ही बांधा जाता है। पहले तो कुछ पल बंधन से मुक्त भी रहता था। मास्क के कारण वो समय भी हमसे छीन लिया गया। हम अपने दु:ख कैसे और किससे कहें?


आज कल आंदोलन और धरने प्रदर्शन का मौसम है। यदि संभव हो तो मेरे लिए भी दो-चार शब्दों का कर्ण-प्रिय शाब्दिक आंदोलन ही कर दें। बोल तो सकता नहीं किन्तु हमेशा आभारी रहूंगा।



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