जुगाड़ी

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जुगाड़ी

(लघुकथा)

        मैं प्लेटफ़ार्म पर अपनी गाड़ी का इन्तेज़ार कर रहा था।लोग आ जा रहे थे और मैं वक़्त बिताने के लिये उनमें स्त्रियों-पुरुषों की संख्या गिन रहा था।(भीड़-भाड़ वाली जगह पर वक़्त बिताने का एक अनोखा उपाय)।

    अपने कंधे पर किसी वजनदार हाथों का स्पर्श महसूस  कर मैं चौंक गया।पीछे मुड़ा तो सहसा विश्वास नहीं हुआ।अरे ये तो हमारे सीनियर थे इलाहाबाद युनिवर्सिटी के दिबाकर पांडे जी।आजकल गोरखपुर के किसी डिग्री कालेज में किसी विभाग के एच ओ डी हैं।बड़े लम्बे अर्से के बाद मिले थे।

   ऐसे मौके पर जो होना था वही हुआ हम दोनों एक दूसरे से लिपट गये।देर तक लिपटे रहे--एक दूसर से सालों बाद मिलने को भीतर तक महसूसते रहे। और देर तक महसूसते अगर मुझे उनके पसीने की चिरपरिचित बद्बू परेशान न करती।

  "का हो बाबा कहाँ जात बाड़?"पांडे जी अपने उसी पुराने अंदाज में बोले।

"अरे सर,बस एक सेमिनार में कोलकाता जा रहा--और आप?"मैंने भी जवाब के साथ एक सवाल उछाल दिया।

"भैया तू लोगन हयो पूरा बुड़बक--अरे ससुर सेमिनार और भाषण से का उखारोगे--बाबा जी का घण्टा?"वो थोड़ा आक्रामक हो गये।मैं चौंक पड़ा उनका जवाब सुन कर।मैं कुछ बोलता उसके पहले पांडे खुद ही बोल पड़े।

"डाक्टर बाबू आजकल बहुत विद्वता दिखाने का जमाना नाहीं है।जुगाड़ का जमाना है--जुगाड़ का।"

"मैं आपकी  बात समझा नहीं सर---।"मेरे स्वर में असमंजस था।

"का समझोगे तू बुड़बक--चलौ हमहीं खुलासा कर दें हम जा रहे हैं दिल्ली--एक ठो पांच लाख का पुरस्कार के जुगाड़ में।कल्है मीटिंग है दुई बजे से।"पांडे जी मुस्काराये।

"पुरस्कार--जुगाड़ क्या कह रहे सर?" मेरा असमंजस बरकरार था।

"धा--मर्दवा --एतना सा बात भेजा में नाहीं घुस रही तोहरे--का पी एच डी किहे बाड़ हो?अरे भाई सीधा सा बात है।पुरस्कार है पांच लाख का--हम लेके जा रहे रोकड़ा --पूरा पचास हजार।हमारा मामला सेट हो गया ना फोनुआ पर। सबेरहीं दिल्ली पहुंच के रुपैयवा दे देंगे ना--तबही तो शम को हमारा नाम का घोषणा हो जायेगा बाबू।"पांडे जी अब खुल कर हंसे।

       मैं उनका ये अद्भुत रूप पहली बार देख रहा था।कन्फ़्युज्ड भी हो गया था कि क्या बोलूं?तब तक उनकी गाड़ी प्लेटफ़ार्म नम्बर आठ पर आने की उद्घोषणा होने लगी और वो ब्रीफ़केस लिये एकदम से भागे।भागते भागते भी कहते गये--"देख लेना डागदर बाबू--दुई साल से गोटी फ़िट कर रहा था---अबकी ई पुरस्करवा हमको हि मिलेगा।"

वो जा चुके थे और मैंने फ़िर आते जाते स्त्रियों पुरुषों की गणना शुरू कर दी थी।मेरी ट्रेन आई और मैं भी कोलकाता की ट्रेन में बैठ गया।बात आई गयी हो गयी।

   अगले दिन मैं कोलकाता में होटल के कमरे में अपने एक पत्रकार मित्र के साथ बैठा महंगी शराब का अनन्द लेता हुआ टी0वी0 पर समाचार देख रहा था।कि एक खबर ने मेरा सारा नशा हिरन कर दिया।समाचार था--"इस साल के साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कार के लिये गोरखपुर के  प्रो0दिबाकर पांडे के नाम की घोषणा की गयी है।पुरस्कार उन्हें अगले माह------।"  मैंने रिमोट उठाकर टी0वी0 आफ़ कर दिया और फ़िर से महँगी शराब का आनन्द लेने लगा।

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डा0हेमन्त कुमार

      


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