जिन्दगी का फलसफा
जिन्दगी का फलसफा
हम सब मानते हैं कि हम वैसे ही बनते हैं, जैसी हमारी संगत होती है। लेकिन यह अर्धसत्य है। संगत हमारे मानस के केवल चेतन हिस्से (जोकि पूरे मानस का 2-3 प्रतिशत है) को ही प्रभावित करती है। यदि अपने प्रिय/सखा से मिलने का बहुत मन है, मिलने पर हम उसे गले लगायेंगे भी, तो कितनी देर ... ज्यादा से ज्यादा 2-3 या 5 मिनट, फिर स्वत: ही छूट जायेंगे, हो गई बात खत्म। लेकिन जिस व्यक्ति से आपका दुराव/वैमनस्य चल रहा होता है, उसके प्रति, हम कहीं हों, कुछ कर रहें हों, हमारे उसके साथ विचार/लड़ाई/सफाई/विश्लेषण, पल-प्रतिपल चल रहे होते हैं, भले वह पास हो या दूर। इतनी भीड़-भरी दूनिया में हमारे मन-मानस पर, दिन-रात वही एक ही शख्सियत छाई रहती है। कोई और दिखता-सूझता ही नहीं है, जो हमारे मानस के 97-98 प्रतिशत भाग, अन्तर्मन (subconscious mind) को दिन-रात शिक्षित/निर्मित करता रहता है। मन-मानस के निर्माण की संरचना को ध्यान में रखते हुए, मैत्री/दोस्ती के मुकाबले, दुश्मनी/वैमनस्य सोच-समझकर ही करना उचित है, क्योंकि हम जिससे भी लड़ेंगे, हम उसी की प्रतिमूर्ति बनते चले जायेगें। अतः दोस्ती किसी से भी कर लें, दुश्मनी सोच-समझकर ही करें और जो सोच-समझकर ही करेगा, वह दुश्मनी कर ही कैसे सकता है।
