जगत ताऊ जी - एक असाधारण व्यक्तित्व
जगत ताऊ जी - एक असाधारण व्यक्तित्व
मेरे चाचा जी की बेटियाँ मेरी दीदी से बड़ी थीं अत: उनकी देखादेखी मेरी दीदी भी अपने पिता जी को ताऊ जी कहने लगीं और इस प्रकार वे केवल हम बहनों के ही नहीं जगत ताऊ जी बन गये। बाद में जब सबसे छोटा भाई हुआ तो यह निश्चय किया गया कि अब से ताऊ जी को डैडी कहा जाये जिससे वह भी डैडी कहे न कि ताऊ जी। और इस प्रकार आस पड़ोस के बच्चों के भी ताऊ जी हमारे डैडी बन गये।
हम सबके लिये हमारे डैडी ही हमारे हीरो थे। सबसे शानदार व्यक्तित्व - गोरे चमकते हुए और उस पर से बुद्धिमत्ता का प्रकाश उनकी सदा मुस्कुराती आँखों से झाँकता रहता। सामने वाले को पूरा सम्मान देते हुए उसकी हर प्रकार की मूर्खतापूर्ण बात को भी पूरे मनोयोग और सम्मान से सुनते परन्तु जब वे बोलना प्रारम्भ करते तो चारों ओर सन्नाटा छा जाता। सब निस्तब्ध होकर उनकी बात ध्यान से सुनते। सुनने वालों की आँखों में उनके प्रति आदर झलकने लगता और सभी उनकी विद्वता का लोहा मान जाते। विषय कोई भी हो उस पर उनकी गहरी पकड़ श्रोताओं में उनके झण्डे गाड़ देती।
बिना किसी आडम्बर के नियमित रूप से प्रात: काल देवी पाठ करते। उच्च स्वर में उनके संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण वायु मण्डल में एक सात्विक कम्पन-सा पैदा करता हुआ सुबह के सन्नाटे में दूर-दूर तक फैल जाता। एक बार हमारे चचेरे भाई ने उनका पाठ रिकॉर्ड भी किया परन्तु वह कैसेट जैसे उस अलौकिक गरिमा को झेल न पाया और ख़राब हो गया। इस प्रकार ताऊ जी के स्वर्गवास के पश्चात् वह अभूतपूर्व लयबद्ध देवी पाठ पारिवारिक इतिहास ही बन गया।
'भगवती माँ' में उनका दृढ़ विश्वास था कि वे जो करेंगी अच्छा ही करेंगी। इसी विश्वास के सहारे जब उनका 'सिलीगुड़ी- बागडोगरा' का स्थानान्तरण का आदेश आया तो वे निश्चिन्त बैठे रहे। परन्तु जब यह निश्चित हो गया कि कल उनको उनके अन्य सहयोगियों के साथ दूसरी जगह स्थान ग्रहण करने के लिये जाना पड़ेगा तो वे विचलित हो गये। घर आकर पत्नी का हाथ पकड़ा और 'देवी माँ' की तस्वीर के सामने जाकर बोले- मैं तुम्हारे आसरे रहा और तुम मुझे घर से इतनी दूर भेज रही हो! अगर कल मुझे जाना पड़ गया तो मैं तुम्हें ले जाकर गंगा में डुबा दूँगा।
अगले दिन अॉफ़िस से आये तो सीधे 'माँ' के सामने जाकर फूट-फूट कर रोने लगे। अपने कल के व्यवहार के लिये बार -बार क्षमा माँगते रहे। हुआ यों था कि उनके साथ के सभी सहयोगियों को तो पद-मुक्ति मिल गई परन्तु ताऊ जी को अॉफ़िस के किसी काम से रोक लिया गया। इस प्रकार उनकी 'माँ' ने उनके विश्वास को टूटने नहीं दिया।
ताऊ जी की महानता देखिये कि द्वितीय विश्व युद्ध में अतुलनीय योगदान के लिये तत्कालीन फ़ील्ड मार्शल कमाण्डर इन चीफ़ अॉफ़ इण्डिया ने उन्हें प्रशस्ति पत्र दिया जिसमें उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी थी और द्वितीय विश्व युद्ध को जिताने में उनके महत्वपूर्ण सहयोग के लिये देश सदैव उनका कृतज्ञ रहेगा, ऐसा कुछ लिखा था। परन्तु हमारे स्थितिप्रज्ञ पिता श्री ने ऐसा हमें कभी कुछ नहीं बताया और हमारे लिये वे एक प्रेममय सामान्य पिता बन कर रहे। जिनसे उनकी बेटियाँ छोटी से छोटी बात बताना भी नहीं भूलती थीं। उनकी मृत्यु के साढ़े बत्तीस वर्ष बाद जब हमारा भाई अपने ख़ाली पड़े घर को संभालने गया और सामान छाँट रहा था, उस समय यह पत्र उसके हाथ लगा और हम सभी भाई-बहन विस्मयपूर्ण प्रसन्नता से भर गये। आज हम फिर से ताऊ जी के व्यक्तित्व के एक नितान्त नवीन पहलू से परिचित हुये थे।
आध्यात्मिक स्तर पर भी ताऊ जी उस उच्च स्थिति को प्राप्त कर चुके थे जिसे हम विदेह कहें तो मिथ्या नहीं होगा। जल में रह कर कमल के समान असम्पृक्त संसार में रहते हुए, हर प्रकार के कर्तव्यों का पालन करते हुए भी, एक नितान्त सीधी सरल जीवन शैली पर मानसिक स्तर पर हर मोह माया से परे। परिवार और बच्चों के लिये हमारी माँ से हँस कर कहा करते- ये तो गीता की माया है!
हमें गर्व है कि हम इतने महान पिता की सन्तान हैं। वास्तव में वे एक बहु आयामी व्यक्तित्व के इन्सान थे।
