इंतजार

इंतजार

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शादी को तीन साल हो गए थे। अब तो हर कोई पूछने भी लगा था वाकई फैमिली प्लानिंग है या कुछ और बात है। तीन से चार ...पाँच...और छह साल भी बीत गए। मंदिरों मन्नतों से शुरू हुआ सिलसिला कई डाक्टरों के दर पर भी पहुँच चुका था। पंडितों को जन्मपत्री दिखाई जाती वहाँ भी कहा जाता पुत्र होने के प्रबल योग है, हर कोई अपनी तरफ से आस बँधवाते और हर बार आस टूट भी जाती। डाक्टर ने कितनी ही जाँचें की हर बार दोनों को स्वस्थ बताया। पत्थर पत्थर देव किया। हर कोई एक ही बात कहता इसके बेटा होगा बेटा। अब तो इन सब चक्करों में नौ साल बीत गए। अब बस ईश्वर के सामने एक प्रार्थना निकलती " हे प्रभु ! बेटा या बेटी कुछ भी दे दे, पर मेरी सूनी गोद भर दे। क्या फर्क पड़ता है बेटे और बेटी में। आज के समय में तो दोनों बराबर है। चाहे बेटी ही दे पर दे दे।

तभी शादी के पूरे दस वर्ष बाद सभी की मन्नतों ने असर दिखाया और वह अपने भीतर नए अंकुर के प्रस्फ़ुटन से प्रसन्न हो गई। घर में सभी को बाबाजी जी पर श्रद्धा बढ़ गई जिन्होंने इस साल के भीतर उसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया था

उन सभी पंडितों की बातें भी सच लगने लगी जो जन्मपत्री देख कर पुत्रवती होने की भविष्यवाणी करते। खैर अब तो चाहे बेटा आए या बेटी, दोनों सर माथे।

हँसी खुशी नौ माह पूरे होने के बाद वो समय भी आ गया जिसका वर्षों से इंतजार था। नर्स ने आकर खुश खबरी सुनाई "बधाई हो ! लक्ष्मी आई है।" ये सुनते ही सबके चेहरे की हवाइयाँ उड़ गईं। एक बार विश्वास नहीं हुआ ऐसा कैसे ? खुशियाँ आधी हो गई।

फिर से खुद को समझाने का सिलसिला शुरू। हमारे लिए ये भी बेटे से कम नहीं। ईश्वर ने सालों बाद सुनी तो सही। जो भी हुआ, चलो कोई बात नहीं। बस इतने सालों बाद एक बेटा हो जाता तो सही रहता, अब पता नहीं फिर से......। चलो कोई नहीं हम तो इसे भी बेटे से बढ़कर पालेंगे।


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