STORYMIRROR

इंसानियत का क़र्ज़

इंसानियत का क़र्ज़

17 mins
1.5K


"सुनती हो, मैं खेत जोतने जा रहा हूँ . शायद देर से लौटू तो तुम लोग दरवाजे पे मेरा रास्ता ताकते मत रह जाना, कोई सुन भी रहा है"

हरीराम अपनी पत्नी हंसा को आवाज़ लगाते हुए कहा

"हाँ सुनाई देता है, इतना ज़ोर से चिल्लाते हो की दो गाँव तक आवाज़ चली जाती है. कितनी बार कहा है बच्चियां सो रही होती है तो थोड़ी धीमी आवाज़ मे नही बुला सकते"

कहते हुए हंसा अंदर से आती हुई हाथो मे गोबर का लेप, चेहरा गर्मी से झरझर और जल्दी जल्दी मे पल्लू भी नही संभाला जा रहा था. हंसा एक बड़े घर से आती थी. पापा ठेकेदार थे और 3 भाई जो सबके सब अच्छे मुकाम पे थे. जब भी कभी कोई पारिवारिक आपदा हरीराम के परिवार पे आन पड़ती तो वो निसहज भाव से मदद को हाथ बढ़ाते पर हरीराम बड़ा ढीठ..मानो प्राण जाए पर उसूल ना जाए..उसने हंसा से सीधे सीधे कह दिया था की

"में क्या मार गया हूँ जो तू दूसरो से मदद माँगे फिरती है, में किसको मोहताज़ नहीं में अपने परिवार को पाल सकता हूँ और जो अपने परिवार को ना पाल सके वो कैसा मर्द भला. मुझे ये बोझ नही चाहिए, में अपनी दोनो बेटियो को पाल सकता हूँ " हरीराम की दो बिटिया थी एक 3 बरस की गुड़िया और एक 10 बरस की निमकी. दोनो के लिए हरीराम अपनी जान छिड़कता था. जब भी खेत से लौट आता तो दोनो के लिए आते वखत बाज़ार से गुड़िया खिलोने या कोई फल अनाज ले आता. निमकी को पिछले बरस ही स्कूल से निकाल दिया गया था क्यूकी हरीराम उसकी फीस वखत रहते भर ना सका. तो अब वो हंसा के काम मे अपना हाथ बटाती है और जब हंसा काम मे लगती रहती है तो छोटी बहना की देखरेख करती है.

हरीराम ने कहा "तू धीमी आवाज़ मे सुनती कोनसी है, उमर के साथ तेरे कान भी बहरे होते जा रहे है, अब सुन मैं खेत की तरफ जा रहा हूँ फिर वहा से बाज़ार हो आऊंगा तो आते हुए थोड़ी देर हो जाएगी. तुम लोग खाना ख़ाके सो जाना"

"हा तो हम कोनसे भूखे सो जाते, जाओ और भोर से पहले लौट आना और वो बीमा का काग़ाज़ भी आया है उसके पैसे भरने है,पता नहीं लोग काहे इन सबमे पैसा बर्बाद करते है" हंसा ने थोड़े कठोर भाव से जवाब दिया

"बर्बादी कैसी पगली ,अगर मुझे कल कुछ हो जाए तो इन पैसो से तुम्हारी अच्छी ख़ासी देखरेख हो जाएगी" इतना कहा ही था की हंसा ने हरीराम की बात काटते हुए गुस्से से कहा "देखो जी, अगर मेरे सामने मरने की बात की तो मे मायके चली जाऊंगी, फिर पालते रहने अपने बच्चो को"

"माफ़ कर दे अब, तू मायके जाएगी तो मैं तो सूखा ही मार जाऊँगा. तेरे बगैर मे आधा भी ना. मैं जाते जाते मदन को पैसे दे जाऊँगा वो बीमा की किस्त भर देगा"

हरीराम ने हंसा को प्यार से फुसकारते हुए कहा और इतना कहने के बाद हरीराम निकल पड़ा पर हंसा दरवाजे पर ही खड़ी रही जब तक वो आँखो से ओझल ना हुआ. वैसे तो इन दोनो के बीच कही बार खिचतान बनी रहती है पर दोनो एक दूसरे पर जा निसार करते थे. हंसा की आँखे अब भी नम थी मानो जैसे हरीराम कभी वापस नही लौटेगा. अंदर कही काम पड़े थे पर उसे फिकर इस बात की आज हरीराम का काम हो जाए बीएस।

हरीराम गाने का बड़ा शौकीन था किशोरे कुमार तो मानो उसके लहू मे बहते थे. घर से खेत तक 10 किलोमीटर का सफ़र पैदल वो यूहीं गुनगुनाते हुए काट लेता था, बस यूही रोज़ की तरह निकल तो पड़ा था तभी रास्ते मे किसीने पीछे से आवाज़ लगाई "कहा जा रहे हो काका?" ये मुकेश था, यही हरीराम के पड़ोस मे रहा करता था पर अभी कुछ दिनो पहले ही उनका नया घर तैयार हुआ था तो अब वो सब दूसरे गाव रहने चले गये थे. दोनो परिवारो मे बहोत लगाव था और जब मुकेश की पारिवारिक परिस्थिति ठीक नही थी तब मुकेश हरीराम के घर की रोशनी मे ही पढ़ाई करता था और इतना ही नही जब भी मुकेश पढ़ने बैठता तो हंसा उसके लिए खीर बना लाती और कभी कभी देर रात होने पर वही सो जाता पर फिर कुछ बरसो बाद जब मुकेश के पिता की सरकारी नौकरी लग गयी उसके बाद से उनकी परिस्थिति मे काफ़ी बदलाव आ गया और उन्होने यही पड़ोस के गाव घर भी बनवा लिया था " हरीराम भी मुकेश को बड़ा आदर देता था, उसके संस्कारो ने हरीराम को बहोत प्रेरित किया था।

"बस बेटा खेतो की तरफ जा रहा था, आज फसल जो काटनी है"

हरीराम ने कहा

"बढ़िया..तो चलो फिर मैं आपको छोड़ देता हूँ " मुकेश ने कहा

मुकेश पढ़ाई के लिए दूसरे गाँव जाया करता था पिछले बरस मुकेश पूरी कक्षा मे प्रथम आया था बस इसी ख़ुशी में पापा ने मुकेश को सायकल दिलवा दी"

हरीराम को किसीकी बोझ बनना कतई पसंद नही था..उसूलो वाला जो ठहरा. पर मुकेश की आँखो मे स्नेह भाव देख उससे रहा नही गया और बैठ गया सायकल के पीछे, तभी हरीराम ने मुकेश से कहा "तुझे कितनी बार कहा है सायकल की घंटी डलवा दे, कोई गाय बैल सामने आ जाए तो आफ़त हो जाए"

"बस कभी बाज़ार जाऊँगा तो ले आऊंगा" मुकेश ने कहा

अब सायकल चल पड़ी और रास्ते मे जाते दोनो आपस मे बतियाते रहे तभी मुकेश ने पूछा की "

काका अच्छा लगा सुनके की आज फसल कटने वाली है..इस पाक से आपका सारा क़र्ज़ भी उतर जाएगा और निमकी फिर से स्कूल जा पाएगी"

"बात तो सही है बेटा, बस मे भी ईश्वर से यही प्राथना करता हू की फसल अच्छी हुई हो तो ये सर का बोझ तोड़ा कम हो अब चैन से जी तो ना सका पर चैन से मॅर तो सॅकू" हरीराम ने जवाब दिया

"काहे ऐसी बात करते हो काका..अरे मरे आपके दुश्मन, आपकी और मेरी उम्र मे कहा फ़र्क काका..अभी तो बाल सफेद नही हुए आपके..मुझे अपना छोटा भाई समझो" मुकेश ने व्यंग किया तो काका भी हँसी रोक नही पाए

"चल बस अब ? जैसे मे कुछ समझता ही नही"

काका ने कहा

"लो काका, बातो बातो मे खेत भी आ गया"

मुकेश ने कहा

"बस अब यही रोक दो, मदन के कुटिया से होता चलूँ थोड़ा काम भी है"

काका ने इतना कहा और सायकल से उतर गये

"ठीक है काका..मे चलता हू..आप कहो तो आते वखत यही राह ताकू आपकी"

मुकेश ने कहा

"अरे नही नही ! आज थोड़ी देर हो जाएगी तुम कहा ढलते दिन मे मेरी राह ताकोगे..तुम चले जाना मे लौट आऊंगा" काका ने कहा

"ठीक है काका..जैसा आप कहो" इतना कहते ही मुकेश चल पड़ा

काका भी वहा से थोड़ा आगे चले और मदन की कुटिया पर जाकर एकाएक उसे आवाज़ लगाई।

मदन, काका के खेत मे काम करता था पिछले बरस जब उसके मा पिता एक दूर्घटना मे चल बसे तो काका ने ही उसे सहारा दिया था. और अब मदन यूही खेत जोतके और काका के काम मे हाथ बटा के अपना गुज़ारा कर लेता है..काका कभी कभी पैसे दे देते है तो कभी कभी हंसा के हाथ का बना खाना ले आते. पर मदन भी काका के प्रति काफ़ी आदर रखता था और काका को अपने पिता समान मानता था।

लो इतने मे मदन आधे ढके बदन के साथ ही दौड़ते हुए बाहर आया "क्या हुआ काका..आप यहा कैसे? मे बस अभी खेत के लिए निकल ही रहा था"

"क्यों रे गढ़े मैं तुझसे मिलने भी नही आ सकता क्या"

काका ने कहा

"हाँ क्यों नहीं ये आपका ही घर है...आप बैठो मे पानी ले आता हूँ " मदन ने काका की तरफ कुर्सी बधाई और बैठने का इशारा किया तभी काका ने कहा "नहीं रे, अब बैठने का वक़्त नहीं है खेत भी जाना है और पानी-वानी रहने दे..ये ले पैसे और बीमा की किस्त भर देना ज़रा और ये तेरे काकी के हाथो का खाना" ज़रा अंदर कपड़े में ढ़क के रख दे शाम को आके खा लेना और अब अपना ये आधा नंगा बदन ढ़क और चलने की तैयारी कर." काका मे कहा

"बस आप तनिक बैठो, मे अभी कपड़े बदलकर आया" मदन ने कहा

मदन कपड़े बदलकर आया और फिर दोनो खेत की तरफ हो निकले.

"सुन रे, क्या लगता है इस बार पाक होगी या फिर इस बार भी उपरवाले का मुँह ताकना पड़ेगा?" हरीराम ने मदन से पूछा

हरीराम के चेहरे पे चिंता का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था और हो भी क्यों ना पिछले 3 बरस से पाक अच्छा नही था और ज़मींदारो का क़र्ज़ हाथी की सुंड की तरह बढ़ता ही जा रहा था.

"हाँ क्यों नहीं।आप चिंता मत करो काका, इस बार सब अच्छा ही होगा"

और बातो बातो मे खेत आ गया. अब खेत सामने था.

जैसे ही खेत की तरफ देखा की काका और मदन दोनो की साँसे थम गयी. हरीराम के सर पे मानो आसमान टूट पड़ा हो..मदन हरीराम को संभाले या खुदको..नियती ने फिर वही कहानी दोहराई थी..इस बार भी पाक नही हुआ..और अब हरीराम के मॅन मे सवालो का ढेर बुन चुका था और माथे की सिकन, हाथ कापने लगे. ये सब इशारा कर रहे थे की वही हुआ जिस बात का हरीराम को डर था मानो हरीराम की ज़िंदगी मे ज़मीदारो की गुलामी ही थी. जितना इस क़र्ज़ के बोझ ने बाहर निकालने की कोशिश करता है उतना ही भीतर धस्ता जा रहा था, मानो अब ये उसकी तकदीर बन गयी हो.

हरीराम अंदर से पूरी तरह टूट चुका था फिर भी मदन के सामने एक आँसू तक नही आने दिया क्यूकी मदन हरीराम को उदास देख कमजोर पॅड जाता और हरीराम ये कतई नही चाहता था. हरीराम ने मदन से कहा "जा तू खेत मे जाके जो थोड़ी बहोट फसल पॅकी है वो छांट ले मैं ज़रा कुए से पानी भरता आया, इस बार नही तो अगली बार सही शायद भगवान को यही मंजूर था, तू निराश मत हो अब जा तू"

मदन को कुछ समझ नही आ रहा की करे तो करे क्या अब. हरीराम का ये हाल उससे भी देखा नही जा रहा था और वो हरीराम की बात मानकर खेत की और चल पड़ा.

हरीराम ने भी वही पास पड़ा मटका उठाया और कुए और चल दिया. मॅन मे कई सवाल और मानो अब जैसे उसे कोई रास्ता नज़र नही आ रहा जैसे ही क़र्ज़ का ख्याल आता है की हंसा, गुड़िया और निमकी का चेहरा सामने आ जाता था. हरीराम की सारे उम्मीदे इस पाक से जुड़ी थी क्यूकी इस बार फसल पक जाती तो ज़मीदारो का क़र्ज़ भी उतर जाता और बड़ी बिटिया निमकी का दाखला एक अच्छे स्कूल मे हो जाता पर सब ख़तम सा हो गया।

हरीराम पलभर वही बैठा रहा और यही सब ख्याल उसके ज़हेन मे मानो घर कर गये हो की "अब कैसे पार पाऊं इस मुश्किल घड़ी से, अब खाली हाथ घर जाने का दिल नही करता. क्या कहूँगा हंसा से और कैसे चुकाऊंगा बीमा की रकम..." इतना कहा ही था की अचानक उनके मॅन मे मानो किसी ख्याल ने जन्म ले लिया हो और हरीराम का चेहरा पसीने से लत-पथ. जैसे उसे अपनी सारी विपदाओ का हल मिल गया हो.

हरीराम ने मन ही मन कहा "अगर मुझे कुछ हो जाता है तो बीमा की रकम के पैसे मेरे परिवार को ज़िंदगी भर का रोटी पानी दे सकते है और उन्हे किसिका मोहताज़ भी नही होना पड़ेगा..और वैसे भी मेरी ये ढलती उम्र, आज नही तो कल भगवान के घर जाना ही है. जीते जी तो उन्हे पाल नही सका कम से कम मरके ये वचन पूरा कर सकु और तो और लोग भी यही कहेंगे की कुए से पानी भरते भरते पैर फिसल गया होगा बेचारे हरीराम का, तो हंसा के मन मे कोई बोझ भी नही रहेगा"

माना की ज़िंदगी कभी कभी इंतेहाँ लेती है पर हरीराम की ज़िंदगी बचपन से जवानी तक इंतेहानो मे ही गुज़र गयी. इतनी बेदर्दी के बाद भी खुदको कैसे संभाला है ये हरीराम का मॅन ही जानता होगा।हरीराम ने ठान लिया था की अब यही एक रास्ता है जो उसके परिवार को इस मुश्किल घड़ी से बाहर निकाल सकता है. हरीराम ने अपनी दोनो बिटिया को याद किया और हंसा के लिए भगवान से प्राथना की के उसे इस परिस्थिति मे थोड़ी हिम्मत देना, वैसे तो वो थोड़ी कठोर है पर में ही जानता हूँ की जब रोने पे आ जाए तो उसका रोना देख दूसरो का भी कलेज़ा काप उठे" हरीराम ने इतना सोचते ही मटका वही नीचे रख दिया और कुए की और चल पड़ा. उसका पूरा बदन काँप रहा था. भगवान ही जाने उसमे ये हिम्मत कहा से आई होगी. वो कहते है ना मरता क्या ना करता।

हरीराम कुए पे चढ़ा और बस नीचे कूदने ही वाला था की ये क्या.., अचानक से पीछे से किसीने उसका हाथ खिछा और हरीराम झटके के साथ पीछे की और गिर पड़ा. उठके देखा तो वो मुकेश था और उसके साथ उसका दोस्त रंजन जो अक्सर उसके साथ पढ़ाई करने उसके घर आया जाया करता था.

"काका, ये क्या कर रहे थे..अभी कुए मे गिर जाते तो?" मुकेश ने एक संकास्पद भाव से हरीराम से नज़र से नज़र मिलाके पूछा

मानो किसीकि चोरी पकड़ी गयी हो जैसे इस तरह हरीराम को भी समझ नही आ रहा की क्या जवाब दू. और इतने मे मुकेश ने फिर पूछा "क्या हुआ काका? कोई परेशानी है क्या?"

इतने मे हरीराम ने कहा "नही नही ! कैसी परेशानी, सब बढ़िया है...मैं तो बस ये देख रहा ही कुए मे पानी है भी या नही, मटका भरना था और तू तो जानता है मेरी दूर की नज़र भी थोड़ी कमज़ोर है तो बस सोचा थोड़ा नज़दीक जाकर देख लू " हरीराम के चेहरा का डर देख मुकेश समझ चुका था की मांजरा क्या है.

"पर काका, ये कौनसा तरीका हुआ भला, पानी की गहराई नापने के लिए कुए पे कौन चढ़ बैठता है" मुकेश से कहा

"माफ़ कर दे बेटा, वो ध्यान ही नही रहा..थोड़ा उमर का तक़ाज़ा है...अब ये सब छोड़ और तू ये बता की यहा कैसे आना हुआ, मैने तुझे कहा था की मुझे देर होगी" हरीराम ने कहा

"हा वो मैं रास्ते से गुज़र ही रहा था की मदन को आपको आवाज़ लगाते सुना और फिर आपको एक अच्छी खबर भी देनी थी मैने मदन से कहा तू रुक मे बुलाता आया काका को..वैसे मदन ने मुझे सब बता दिया की इस बार भी पाक अच्छा नही हुआ फिर ये सुन मे भागा भागा आपके पास आया" मुकेश ने कहा

"हाँ बेटा अब क्या करे, सब उपरवाले के हाथ मे है, इस बार नही तो अगली बार ही सही, मे कहा मरे जा रहा हूँ " हरीराम मानो ये जताने की कोशिश कर रहा हो की जैसे उसे कुछ फ़र्क ही नही पड़ता

इतने मे हरीराम ने फिर पूछा "अच्छा तूने कहा कोई अच्छी खबर है? बता दे अब क्या खबर है"

"हा वो खबर ये है की मेरे कक्षा मे अच्छे नंबरो की वजह से सरकार ने मेरी फीस माफ़ कर दी है और यहाँ तक की मेरे सामने सरकारी नौकरी का भी प्रस्ताव रखा है" मुकेश के इतना कहते ही मानो हरीराम अपनी बर्बादी भूल ही गया. और मन ही मन बहोत प्रसन्न हुआ और मुकेश से कहा "बहोत खूब , ये तो बहोत ही अच्छी खबर है सच मे. और ये तो होना ही था मैं ना कहता था की तेरी मेहनत एक दिन ज़रूर रंग लाएगी और वो दिन आ ही गया"

नियती का खेल भी बड़ा अजीब है एक तरफ मुकेश की ज़िंदगी सवर गयी तो एक तरफ हरीराम की ज़िंदगी उजड़ गयी. पर मानो जैसे ये खबर सुन हरीराम फूले नही समा रहा और हो भी क्यू ना हरीराम मुकेश को अपने बेटे की तरह मानता था और मुकेश भी हरीराम को अपने पिता का दर्जा देता था. पर शायद नियती ने कुछ और भी सोच रखा था.

मुकेश ने एक चैन की साँस भारी और अपने बस्ते से एक काग़ज़ का थैला निकाल जिसमे पैसो का ढेर बाँधे रखा था हरीराम का हाथ पकड़ कर उसके हाथ मे थमा दिया. ये देख हरीराम और रंजन दोनो ही चकित रह गये. मुकेश कुछ कहता इतने मे हरीराम ने पूछा की " ये क्या है? ये पैसे मुझे क्यू दे रहा है. मैं इनका क्या करू. ना ना लो भाई ये रखो." और इतना कहकर हरीराम ने पैसे का थैला मुकेश के हाथ मे धर दिया पर मुकेश ने हरीराम ने वही रोकते हुए कहा "नही काका, अब ये आपके ही और इन पर आपका ही हक़ है" मुकेश ने कहा

"तुम पगला गये हो क्या? ना ना तुमसे पैसे लेकर मुझे पाप का भागीदार नही बन ना" हरीराम ने एक व्यंग भरे अंदाज़ मे कहा

"पाप कैसा, अगर आप और हंसा काकी मेरा साथ ना देते तो ये मुमकिन ही नही था, बचपन मे जब हमारी पारिवारिक परिस्थिति ठीक नही थी तब आपने ही हमे सहारा दिया था और मैने तो अपनी आधी से ज़्यादा पढ़ाई आपके घर की रोशनी मे ही पूरी की है जिस तरह आपने और काकी ने मुझे प्यार दिया है इतना तो कोई अपने सगे बेटे से भी ना करता और अब इस बेटे को भी उपरवाले एक मौका दिया वो क़र्ज़ उतारने का जो मे बरसो से लेकर फिर रहा हू" और इतना कहते ही मुकेश ने वो पैसे काका के हाथ मे रख दिए

"पर...मैं ये कैसे.." हरीराम के इतना कहता ही मुकेश ने उसकी बात काटते हुए कहा "पर वर कुछ नही..ये आपका हक़ है..और अगर आपने ये नही लिए तो मैं यही समझूंगा की आप मुझे अपना बेटा नही समझते और वैसे भी ये पैसे मेरी फीस के लिए थे तो मैं यही समझूंगा की मैने अपनी फीस भर दी" हरीराम के पास अब कोई जवाब नही था और उसकी आँखे मानो एक तरफ तो उपरवाले को कोष रही थी और एक तरफ उसे शुक्रियादा भी कर रही थी. इसी बीच हरीराम ने मुकेश को अपने सीने से लगा लिया और ये देख रंजन की आँखे भी नम हो गयी.

इसके बाद मुकेश ने हरीराम से विदा लेते हुए कहा "की बस अब ये बात हम तीनो के बीच ही रहेगी" और वहा से चल पड़ा.

तभी रंजन के मन मे भी कई सवाल उठ रहे थे और उसने मुकेश से पूछ ही लिया की "तूने ऐसा क्यू किया? तू तो इन पैसो से तेरे पिताजी के लिए नयी मोटोरसाइकल खरीदने वाला था फिर अचानक ये फ़ैसला मुझे कुछ समझ नही आया"

"कुछ फ़ैसले अचानक ही लेने पड़ते है रंजन" मुकेश ने रंजन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा

"मतलब?" रंजन ने पूछा

"अगर ऐसा नही करता तो काका कल का सवेरा ना देख पाते" मुकेश ने कहा

"ये क्या कह रहा है तू?" रंजन ने पूछा

"हा रंजन ! तूने देखा नही क्या कुए के पास पड़ी काका की चप्पल. भला चप्पल उतारकर कौन कुए पे चढ़ता है. काका के चेहरे का भाव, उनके कापते हुए हाथ, और बातो मे एक अजीब सा डर ये सब मुझे चीख चीख के इशारा कर रहे थे की मानो कुछ बहोत ग़लत होने जा रहा था तभी बस मैने मन ही मन मैं फ़ैसला कर लिया था और वैसे भी पिताजी की गाड़ी फिर कभी आ जाएगी पर आज मैने काका की ज़िंदगी की गाड़ी खरीदी है और मुझे गर्व है इस बात का, मैं चाहु तब भी काका काकी के एहसानो का क़र्ज़ ना उतार पाता और आज मैने बस कोशिश की है एक ऐसा क़र्ज़ उतारने की जो हम सबका फ़र्ज़ है" मुकेश ने कहा

"कैसा क़र्ज़?" रंजन ने पूछा

"इंसानियत का क़र्ज़ ! जो हमे सिखाता है की इंसान की जान से बढ़कर कोई कीमत नही" मुकेश ने कहा

रंजन सब समझ चुका था. मुकेश की बात सुनकर रंजन को आज मुकेश जैसा दोस्त पाकर बहोत गर्व महसूस हो रहा था.

अब दोनो यूही मस्ती करते करते घर की ओर चल दिए.

शाम को हरीराम घर लौटा और हंसा और दोनो बिटिया दरवाजे पे खड़ी मानो उसीका इंतेज़ार कर रही थी. उसके हाथो मे एक बड़ा थैला था जिसमे कुछ खिलोने थे जो अपनी दोनो बिटिया के लिए लाया था. और दूसरे हाथ मे एक छोटी से थैली मे कुछ था. हरीराम को देख दोनो बच्चे हरीराम की और लपके और हरीराम ने थैली हंसा को पकड़ा कर दोनो को गले लगा लिया और बड़े प्यार से पूछा "हमारी बिटिया ने खाना खाया?"

"ये आपके बिना खाने से रहे, चलो अब हाथ पाँव धो लो मैं खाना लगा देती हूँ , अब छोड़ो पापा को उन्हे अंदर भी आने दोगे" हंसा ने बच्चो को हरीराम के कंधे से उतारते हुए कहा

"सुन तो ज़रा, ये कुछ खिलोने है थैली मे बच्चो के लिये और उसीमे तेरे लिये एक साड़ी भी है, बाज़ार गया था तो सोचा कुछ ले आऊ" हरीराम ने कहा

"क्या बात है. लगता है पाक अच्छा हुआ है इस बार?" हंसा से प्रेमभाव से पूछा

"हा! बस ऐसा ही समझ. किसीकि मेहनत रंग लाई" हरीराम ने कहा

"अच्छा जी. और इस थैली मे क्या है? " हंसा ने दूसरी थैली की और इशारा करते हुए कहा

"ये मुकेश के लिए सायकल की घंटी है सोचा वो तो बाज़ार जाने से रहा तो मैं ही लेता चलु. उसे कोई धक्का ना पड़े"

"हा सही किया आपने, उसे फ़ुर्सत कहा अब बड़ा जो हो गया है. मे अभी उसके लिए खीर बनाती हूँ . आप जाते हुए खीर ले जाना उसे मेरे हाथ की खीर बहोत पसंद है"

हरीराम ने मुस्कुराकर हाँ कहा और हाथ-मुँह धोने लग गया और हंसा भी बच्चो के हाथ खिलोने थमाते हुए रसोई की और चल दी

मुकेश ने जो पैसे दिए थे उससे हरीराम ने ज़मीदारो का सारा क़र्ज़ चुकता कर दिया था और निमकी की पढ़ाई भी शुरू करवा दी थी. यहा तक की अगले बरस से पाक भी अच्छी होने लगी तो फिर थोड़ा थोड़ा करके हरीराम मुकेश के पैसे भी लौटाता रहा और यही पड़ोस वाले गाँव मे एक ज़मीन का टुकड़ा भी खरीद लिया. इस तरह आज मुकेश की समझ ने एक पूरे परिवार को नयी ज़िंदगी दे दी।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama