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ईंटों के आँसू

ईंटों के आँसू

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शहर के एक निर्माणाधीन मंदिर के लिए निर्माण-स्थल के सामने ईंटों के ढेर लगे हुए थे।

ढेर में से एक ईंट ने सामने की ईंट से पूछा "यहाँ की तो नहीं हो?....बाहर की लगती हो!"

"हाँ, करीमगंज की हूँ"

"किसने गढ़ा है तुम्हे?"

"रहमतमियाँ ने....और तुम्हे?"

"मैं तो यहीं की हूँ...शिवराम ने हमें ज़िन्दगी दी है"

"भई, हम कहाँ के हैं, हमें किसने गढ़ा- इन सब बातों के क्या मायने?" ढेर की तीसरी ईंट ने विनम्र लहजे में हस्तक्षेप किया, "हम एक दूसरे के सीने से लगकर एक मजबूत दीवार बने, यही मतलब की बात है। हमारी ज़िन्दगी का यही असली मकसद है।"

'हाँ भई, सही फरमाती हो। चलो, हम मिलकर अपने जीवन को सार्थक करें।"

इसी दरम्यान बदकिस्मती से शहर में दो सम्प्रदायों के बीच बलवा हो गया। सारा शहर ख़ूनी जंग लड़ने लगा। वहशियत का खौफ़नाक मंज़र देखकर ईंटों के भी दिल दहल उठे। ख़ूनी जंग का दृश्य और भी ह्रदय विदारक हो गया। जब ईंटों ने देखा कि उनको ज़िन्दगी देने वाले रहमतमियाँ और शिवराम की क्षत-विक्षत लाशें भी ज़मीन पर पड़ी है।

लंबे समय बाद हिंसा और आतंक का माहौल ख़त्म हुआ। स्थिति काबू में आयी और मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ हुआ।

शिवराम द्वारा बनायी गयी ईंटें, रहमतमियाँ के हाथों गढ़ी गयी ईंटें एक दूसरे से जुड़ी और कालान्तर में एक मजबूत दीवार बनी। परन्तु ईंटों की आँखों से बहते खून के आंसुओं को कोई देख नहीं पा रहा था जो इस दुःख के कारण बह रहे थे कि उन्हें ज़िन्दगी देने वाले शिवराम और रहमतमियाँ उनकी तरह आपस में क्यों नहीं मिल पा रहे हैं। 


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