हाय रे प्रथा (मजेदार)

हाय रे प्रथा (मजेदार)

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बड़े ही धूम-धाम से हमारी बारात हमें लेने पहुंची थी। आखिर सपनों वाला राजकुमार हमें भी मिल ही गया था तो हम भी निकल लिए ब्याह कर अपने ससुराल। सोचा था हमारा राजकुमार हमें अपनी रानी बना कर रखेगा और ससुराल वाले भी अपनी पलकों पर बिठाएंगे हमें, जैसा कि फिल्मी कहानियों में होता है।


यही सोचते-सोचते ससुराल की दहलीज पर पहुँच गए हम, स्वागत भी बड़े अच्छे से हुआ हमारा। बगल में खड़े अपने राजकुमार को निहारते-निहारते कब रस्म पूरी हुई और हमें अपने कमरे तक पहुंचा दिया गया, हमें तो पता भी न चला। अंदर गए तो देखा, कमरा सजा हुआ ही नहीं था, अब क्या करते? फिल्मो में तो देखा था कि कमरा सजा हुआ होता है पहली रात। पर यहाँ तो ऐसा कुछ भी न था, मरते क्या न करते, ये बात तो किसी से पूछ भी न सकते। वहीँ पलंग पर एक किनारे होकर बैठ गए।


तभी ननद रानी आ गयी, "भाभी, हमारे यहाँ प्रथा है जब तक गांव के पंडित जी पूजा न करवा लें, तब तक आप और भैया एक कमरे में नहीं रह सकते।” उनकी बात सुनकर हमने भी शरमाते हुए ननद से कहा, "आप भी न, मजाक न उड़ाओ हमारा।” पर तभी अचानक सासुमां प्रकट हो गयी, "ईला ठीक कह रही है श्रद्धा (हाँ, हम ही हैं श्रद्धा) हमारे यहाँ यही प्रथा है। खैर तुम ये भारी कपड़े बदल कर कुछ हल्का-फुल्का पहन लो और ईला के साथ सो जाना। कल सुबह तुम्हे रसोईघर में पहला भोज बनाना है।” इतना कहकर सासूमां वहाँ से जाने कहाँ नदारद हो गयी।


"हाय रे प्रथा!" यह बात सुनते ही मानो हमारा कलेजा फटने को हुआ। इससे पहले कि हमारा कलेजा फुदक कर बाहर आ कर हमारे दिल का हाल ननद रानी को सुना दे, उससे पहले ही हमने खुद को संभाल लिया। हमें तो पूछने का मौका भी नहीं दिया कि पूजा कब होगी, ताकि हम अपने सैयां यानि कि राजकुमार से मिल सकें।


ननद रानी वहीं खड़े हमारे कंगन देखने लगी, मानो अभी वो हमारे माँ के दिए हुए कंगन झपट कर ले लेगी। हमने फिल्मों में देखा था और सुना था कि, ननद रानी बहु के सामान पर अपना हक़ जताती है। ऐसे तो हम कोई और चीज़ होती तो दे भी देते, पर वो हमारी माँ के कंगन थे, तो इससे पहले वो कंगन हमारे हाथ से निकल कर ननद रानी के हाथ में चले जाये, हमने तुरंत सारे गहने उतारकर अपने बैग में रख दिए और किसी तरह पहली रात अर्ध सुहागन बने गुजार दी।


अगले दिन फिर से सज धज हम तैयार हो गए। सोचा दरवाजे के पर्दों के कोनो से झांक कर देखें कहीं राजकुमार की एक झलक ही मिल जाये। जैसे ही नज़रें उन कोनों पर टिकाई, वैसे ही हमने अपने भाग्य को कोसा, "कितना तड़पायेगी तू भी, देखना चाह रहे थे हम सैंया, पर दिख गयी उनकी मैय्या!" दबे पाँव अपने कदम पीछे किये और अपनी फूलती हुई सांस (सासूमाँ नहीं) को धीमा किया। सासूमां अंदर आयी, "तैयार हो गयी बहु? चलो आज रसोई में तुम्हारा पहला भोज होगा। सारे पकवान तुम्हे ही बनाने हैं।” कहकर फिर से नदारद होने ही वाली थी कि हमने उनसे पूछ ही लिया, “माँ, पूजा कब होनी है? आप बता देंगी तो मैं फिर से हलके कपडे पहन लूंगी। रसोईघर में ये भारी कपड़े चुभने लगेंगे।” (अब कैसे बताते उन्हें कि कपड़े वपड़े तो बहाना है, हमें तो सैंया से मिलने जाना है) मन ही मन सैंया का ख्याल आते ही हमें जैसे आसमान में उड़ने लगे और उड़ते-उड़ते सैंया भी पीछे आ रहे थे हमारे। हम दोनों उड़ ही रहे थे कि तभी कोई हाथ पकड़ कर हमें नीचे खींचने लगा और हम धम्म से नीचे गिर पड़े। "बहु, ऐ बहु कहाँ खोयी हो? हम कबसे कह रहे हैं कि कपड़े सादे ही पहनो। पूजा होने में कितना वक़्त लगेगा ये तो हम भी नहीं जानते। पंडित जी गांव गए हैं, तो उन्हें आने में समय है।"


इतना कहकर सासूमां तो चली गयी और हमारे सारे अरमान तो मानो जमीन पर यहाँ वहाँ बिखर गए। सोचा कह दें कि, एक ही पंडित है क्या? किसी और पंडित को बुला के करवा लो पूजा। फिर सोचा हम काहे पीछे पड़े रहें? हमारे राजकुमार को हमारी नहीं पड़ी क्या? आखिर आग तो बराबर की होगी। सोचकर हम भी चुप बैठ गए और सासूमां के पीछे पीछे रसोईघर को हो लिए। तभी अचानक से किसी ने हमें जोर से अपनी तरफ खींच लिया। हम चिल्लाने ही वाले थे कि देखा ये तो हमारे सैंया हमारे राजकुमार जी हैं। पहले तो गुस्सा आया कि पूछे कहाँ लापता थे दो दिनों से, पर इससे पहले कि हम उन्हें कुछ पूछते, उन्होंने हमें अपने आलिंगन में भर लिया और कहा, "जानेमन, तुम्हें नहीं पता मैं तुमसे मिलने के लिए कितना तड़प रहा हूँ। मैंने आज ही एक पंडित से बात की है और पूजा कल ही होगी। उसके बाद बस तुम और मैं और हम मानो उनके आलिंगन से ही पूर्ण सुहागन बन गए।”


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