हाउस अरेस्ट
हाउस अरेस्ट


वैसे तो मैं घुमंतू नहीं हूँ, ना ही कोई हमारी फैमिली में कोई और घूमने का शौक रखता हो, पर भला घर में बंद होना किसे पसंद है?
जैसे ही घर पर टीवी चैनल पर लॉकडाउन की खबर सुनी, मन बैचेनी से भरा! अनायास ही कभी क़ैदियों की तरह जेल में बंद होने का खयाल आया, कभी लगा चिड़ियाघर में बंद पशु पक्षियों समान हो जाएगा। आखिर खुद को हमेशा समझा तो हमने शेर ही था ना, भला शेर को कैसे कोई कैद कर सकता है? पर जनाब वक्त कभी किसी से पूछ कर थोड़े ही आया हैं!
ख़ैर लॉकडाउन शुरू भी हुआ, और इस शेर की परेशानियाँ भी। नहीं नहीं कहने का तात्पर्य यह है कि इस कठिन समय ने कुछ सबक सिखाए, कुछ अपनों से मधुर संबंध बनाए, मेहनत भाव भी सीखे और परिवार की महत्ता भी।
सबसे पहली मुसीबत आयी इस स्वाद लोलुप जीभ को काबु करने में। घर से दूर रहते बच्चों के लिए अक्सर बाहर का चटपटा खाना ही आदत सा बन जाता है, जो ना ही स्वास्थ्य के लिए अच्छा है ना ही जेब ख़र्च के लिए। पर इस जीभ की विडंबना कोई कैसे समझे? लॉकडाउन होते ही बाहर जाना बंद, तब सोचा मम्मी से ही कुछ व्यंजन बनवाये जाए, फिर क्या था, रेसिपी खोली और कब मम्मी की मदद करने लग गई पता ही नहीं चला। खाना तो बना ही सही, साथ में मीठी सी यादें भी बन गई। मम्मी भी अब कम थक जाया करतीं हैं। और मैंने एक नयी 'स्किल' भी सीख ली।
अगली परीक्षा तब आयी तब काम वाली आंटी जी की, पापा ने एडवांस पैसे दे कर छुट्टी करवायी। ताकि वो भी रहे इस बीमारी से दूर, और थोड़ा समय वो भी बिना चिंता के घर परिवार के साथ बिता सके। अच्छा तो लगा जानकर कि वो ठीक रहेगी अब, पर घर में झाड़ू पोछा बर्तन अब कैसे करेंगे सब?
पहले तो लगा की क्या आफ़त है ये आयी, पर जब सुबह उठकर भैय्या ने और मैंने कमरे बाँट कर झाड़ू लगाई, ऐसा लगा मानो कोई मज़ेदार प्रतियोगिता हैं ये तो भाई।
धीरे-धीरे यह करना आदत ही बन गयी, मम्मी पापा देखे स्तब्ध हो कर की बच्चों को क्या हो गया है भाई? कभी जो पीने का पानी भी माँ से माँगा करते थे, आज वो माँ को पानी लाकर देने लगे हैं।
बर्तन धोने के बहाने मम्मी से उनके बचपन की कहानियां रोज़ लगी सुनने, इतना मुश्किल काम भी अब लगने लगा था हँसी ठिठोली वाला।अगला मुश्किल पड़ाव मेरे लिए तब आया, जब मम्मी के पैरों में दर्द उठ आया। मम्मी को आराम से बिठा कर रसोई मैंने संभाली, उस दिन जो बनाई खिचड़ी सबको बहुत भाई।
इस सब के चलते मोबाईल चलाना भी कम हुआ। टीवी पर अक्सर रामायण महाभारत देखने का प्रसंग हुआ। पूरा परिवार मिल बैठ समय संग बिताने लगे, कभी न्यूज की चर्चा कभी किस्से सुनाने लगे। लुडो, सांपसीढ़ी और ताश से हुयीं बचपन की यादें ताजा, हरना-जीतना और रूठना-मानना भी होने लगा थोड़ा ज्यादा।
दोस्तों की जब आयी याद ज्यादा, कर लिया वीडियो कॉल और की बातें बेतहाशा। नानी - दादी की कहानियां आज भी लगतीं है रोमांचक, ये मैंने जाना, कभी खेतों की बातें तो कभी कुओं की कहानियाँ। किताबें पढ़ने का शौक भी मेरा जागा, रोज पढ़ने लगी इन्हें बिना नागा। एक पुराने स्पीकर पर पुराने से गाने बजा कर गुनगुना लिया करते थे हम तीनों पीढ़ी के लोग, 'जनरेशन गैप' तो जैसे दब गया हो बीच गाने के शोर में।
पापा संग की छत पर फूलों पौधों की देखभाल, और छत पर चक्कर भी लगा लिए चार। हर शाम सूरज ढलते देखना हो गया आदतों में शुमार, लगने लगा लॉकडाउन इतना भी बुरा नहीं है यार।
इस सबके बीच हमने रखा सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल, जब भी आयी घर में दूध-सब्ज़ी उनको धोया खूब और किया ग्लवज़-मास्क का इस्तेमाल। ख़ूब धोए हाथ भी और किया फ्रंटलाइन कर्मचारियों का सम्मान, ऐसे ही हैं हमारे लॉकडाउन के हाल।
बहरहाल, अंत में समझ गयी मैं की देश पर संकट जो आया है उसके लिए घर पर रहना ही सच्चे शेर-दिल की पहचान है। अब 'हाउस अरेस्ट' ना हो कर यह शेर गुफा की शान हैं।