गोरमेंट बॉयस अस्कूल

गोरमेंट बॉयस अस्कूल

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भागना नहीं आसाँ, इतना ये समझ लीजे

नुकीली रेलिंग है, और फांद के जाना है.

 

पीरियड क्या होता है, टाइम-टेबल क्या होता है, क्लास टीचर क्या होता है- ये सब बाद में समझा, स्कूल से भागना कैसे है, ये पहले ही दिन से  समझ गया था. फिर माशाअल्लाह हमारे क्लास टीचर डी. डी. बॉक्स थे, मतलब वी. डी. वत्स थे. उनका सही नाम मुझे तब ज्ञात हुआ जब मैंने कुछ क्लासें पास कर लीं. जब छोटी क्लास के बच्चों को समझाया जाता कि उसका नाम डी. डी. बॉक्स नहीं, वी. डी. वत्स है , तो बच्चे हंस के कहते- भाई रहने दे.. ये भी कोई नाम होता है... हे हे हे...   

फिलहाल इन्हें यही छोड़ देते हैं. इनकी महानता अलग से कहीं तसल्लीबख्स  कर दी जायेगी. बात करते हैं स्कूल से भागने की I

 

वो उम्र और वक़्त ही ऐसा था , जितना भी भाग लो, कोई  फेल नहीं होत था I आधी छुट्टी की घंटी बजते ही अस्कूल नई चप्पलों और जूतों की तरह काटने लगता था. उस वक़्त पता नहीं क्या खुजली  मची रहती थी I टाट पे हमारी टिकती ही नहीं थी I उसका एक कारण ये हो सकता है कि हमें लगता था, बड़े स्कूल में आने के बाद डेस्क मिलेंगे बैठने को I

सरकारी स्कूल का बच्चा किसी चीज़ से रखे न रखे, इस बात से ज़रूर इत्तेफाक रखता है कि स्कूल से भागने का जो रोमांच है, वो न तो बंक मारने में है, न पीरियड गोल करने में i  और अगर कोई सरकारी स्कूल का बच्चा कहता है कि वो कभी स्कूल से नहीं भागा तो आप समझ लें कि (गोरखाओं से माफ़ी सहित) या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो उन दो-चार बच्चों में से है, जो हर सूरत में पूरे आठ पीरियड अटेंड करते हैं, चाहे स्कूल में भूकम्प क्यों न आ जाए I वो अलग बात है कि अगले दिन पिटाई और डांट खाने के बाद, ऐसे पढ़ाकुओं  की अच्छी-अच्छी गालियों से ख़ातिर कर दी जाती थी. वैसे मैं आपको बता दूँ कि भागने में भागने का इतना रोल नहीं है, जितना कि सावधानी और फुर्ती का है. उस वक़्त खास तौर से जब सामने कोई आपातकालीन स्थिति प्रकट हो जाए.

आप तो जानते हैं कोई भी रोमांच बिना ख़तरे के पूरा नहीं होता. तो इस भागने में जितने ख़तरे हो सकते थे, उतने मौजूद थे. जैसे, कोई टीचर या प्रिंसिपल न देख ले. कोई बड़ी क्लास का बच्चा या वो बच्चा न देख ले, जो आपसे जलता हो. और सबसे ज़्यादा उस बच्चे से बचना पड़ता था जो आपके साथ ही भाग रहा होता था लेकिन किसी टीचर की नज़र पड़ने पे वही आपकी टांग पकड़ के कहता था- सर... जल्दी आ जाओ, मैंने इसे पकड़ रखा  है.

ये ख़तरे तो गेट फांदने से पहले के थे. गेट फांदने के बाद ये ध्यान रखना पड़ता था कि कोई सुधारु या सनकी बंदा न धर ले. क्योंकि दोनों ही हाल में प्रिंसिपल के पास पकड़ के ले जाना पक्का था. बस फर्क इतना था कि सुधारु सुनाते हुए और सनकी पीटते हुए ले जाता था. इतना ही नहीं, सबसे रोमांचकारी वो पल होते थे जब भागते वक़्त गेट के ऊपर लगी लोहे की नुकीली रेलिंग से हाथ-पैर बचाते हुए कूदना पड़ता था. हाथ-पैर तो बच जाते थे, लेकिन कभी-कभी  कमीज़ या पैंट एल शेप में फट जाया करते थे . कितनों की कितनी ही पेंट और कमीज़ें इस रोमांचकारी काम को सरअंजाम देते हुए ज़ख़्मी हुई होंगी, इसकी गिनती नहीं. शायद आगे इसी नुकसान से तंग आकर बच्चे दीवार तोड़ कर भागने लगे थे. 

गेट एक था, दीवारें ज़्यादा. इसलिए बच्चों ने अपने-अपने घर की नज़दीकी को देखते हुए यहाँ -वहाँ से रास्ते बना लिए थे. जैसे पीछे की दीवार हौज़रानी और टूट सराय के लड़कों ने तोड़ी थी. उसी तरह पीछे के एक कोने की दीवार जो निल ब्लॉक में खुलती थी और बेगमपुर की ओर जाती थी, उसे हो न हो वहीं के लड़कों ने तोड़ा था. ऐसा नहीं हुआ कि गेट फांदकर भागना बंद कर दिया हो. लेकिन कई लड़कों ने पाया कि गेट से भागने पे पकड़े जाने या पकड़े जाने की स्थिति में चोट लगने के पूरे चांस थे. इसलिए लड़कों  ने तोड़ी गई दीवारों को ही भागने का माध्यम बनाया.

बारह  इंच की मोटी दीवार को तोड़ने का काम फुर्सत से छुट्टी के दिन किया जाता था. हम  छुट्टी वाले दिन स्कूल में बैट-बॉल खेलने जाते थे. जिस पिच पर हम खेल रहे थे, उसके सामने की दीवार पे रिज़वान डेस्क में लगने वाली रॉड चला रहा था. मैंने भी उस कार्य में पूरी रूचि दिखाते हुए, वहाँ से चार-पांच ईंटें हिला दीं. और देखते ही देखते ढाई फुट चौड़ा और लगभग उतना ही लम्बा, दीवार में गढ्ढा हमने बना दिया. जो सीधा हमें मालवीया नगर की मार्किट में पहुंचाता था. वैसे कई हमसे भी ज़्यादा हरामी बन्दे थे, जिन्हें दीवार तोड़ने-फोड़ने के लिए छुट्टी के दिन की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. वो पीरियड गोल करके ही ये काम कर आते थे.

ये तोड़ी हुई दीवारें आने वाले टाइम में इतनी कारगर सिद्ध हुई कि हमारे साथ-साथ, कुछेक टीचर भी बाक़ायदा इसे अपनी आवाजाही के लिए इस्तेमाल करने लगे. वो आधी छुट्टी के दौरान मार्किट में चाय-बीड़ी सूटते और लौटते वक़्त इसी जगह से अस्कूल में दाखिल होते. इस वजह से लड़कों को अब यहां भी एहतियात बरतनी पड़ती थी कि कहीं भागते हुए उस टीचर से सामना न हो जाये.

शुरू में तो इन दीवारों की चुनाई होती रही. लेकिन इन दीवारों से भागने की आदत ऐसी लगी कि ये दीवारें टूटती भी रही. और काफी बाद में इन दीवारों को इनके टूटे हाल पे छोड़ दिया गया. जब तक कि प्रिंसिपल तनेजा नहीं आ गए जिनकी एक आंख फड़कती रहती थी I वो भागते हुए बच्चों की फोटो खींच लिया करते थे, कुछ इस तरह हाथ हिलाते हुए- रुक जा हरामज़ादे.. रुक जा, मैंने तेरी फोटो खींच ली है.....

 

 

 


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