गाँधी - महात्मा या मिथ्या?
गाँधी - महात्मा या मिथ्या?
2 अक्टूबर का दिन, राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गाँधी का जन्मदिवस। पर आज की तारीख़ में ये बच्चों के लिए सिर्फ एक छुट्टी का, नेताओं के लिए गाँधी जी पर बड़े बड़े व्याख्यान देने का और युवाओं के लिए सुबह आराम से उठकर, शौपिंग कर के, कोई अच्छी सी पिक्चर देखने का दिन है।
भारत पाकिस्तान की तरह, गाँधी को लेकर भी देश दो हिस्सों में बंटा हुआ है, एक तबका है उन लोगों का जो मानते है गांधीजी का आज़ादी में कोई हाथ नहीं है और अन्य शहीदों का गुणगान गाते है और बाकी हैं वो लोग जो गाँधी का सम्मान करते हैं उनके आदर्शों की सराहना करते हैं, उनसे जब पूछा जाता है भाई क्यों गाँधी को पूज रहे हो, तो एक असहज और गुदगुदाने वाला जवाब मिलता है "क्योंकि सब कर रहे हैं " वो बेचारे हमारी ही तरह शाला में पढ़ाई गई कुछ बातों से ज़्यादा बापू के बारे में नहीं जानते.
भारत आने की पूर्व ही साउथ अफ्रीका में गांधीजी ने तरह तरह के जुल्म देखे, दूसरों और खुद पर भी, कभी रंग भेद की वजह से उन्हे ट्रैन से धक्के मार निकाल दिया गया तो कभी फूटपाथ पर चलने पर पीटा गया लेकिन गाँधी ना हताश होते ना हिंसक। क्रोध रूपी भयानक जानवर का शिकार ना होते हुए उन्होंने उस क्रोध को पालतू जानवर जैसे पाला, सदैव आत्म मंथन किया, बुराई की बुनियाद को जाना फिर उसके खिलाफ खड़े हुए और अपने तरीके से लड़े।
गाँधी हमेशा कहते थे की पीड़ितों को पहली लड़ाई खुद से लड़नी चाहिए, सुनने में अजीब सा लगता है पर उनकी इस बात का सन्दर्भ जानना आज की युवाओं के लिए अत्यंत आवश्यक है.
इस बात को यूँ समझें की जब हम किसी पर ऊँगली उठाते हैं तो बाकि 4 उंगलियाँ खुद ही की तरफ इशारा करती हैं, बिना ग्लानि और झिझक के जब कोई खुद के अंतरमन को टटोलता हैं उसे साफ करता है, तब बनता है आत्मविश्वास और असीमित साहस का वो पुल जिस पर चलकर इंसान भयमुक्त होकर जो सही है उसके लिए लड़ पाता है।जिस व्यक्ति का मन आत्मविश्वास से परिपूर्ण है, उसे ना दुनिया सता सकती है ना वो खुद। कई लोग बड़ी बेबाकी से गाँधी को कायर कहने से नहीं कतराते, उनकी नज़र में हिंसा का जवाब हिंसा से ना देना डर का प्रतीक है। आज़ादी की लड़ाई में जो लोग गांधी की राह पर अहिंसा को हथियार बना कर लड़े, वह लोग निहत्थे, हाथ में लाठी लिए हुए अंग्रेज़ सैनिकों का रास्ता रोक, मुस्कुरा कर उनकी आँखों में आँखें डाल कर, अपने सिर पर लाठी पड़ने के लिए खड़े होते थे, जब एक लहूलुहान होकर गिरता तो दूसरा उसकी जगह ले लेता था, यह अहिंसक लेकिन साहस से लबरेज़ जटिल संघर्ष को दर्शाता है।यह घटनाक्रम हमें किसी अलग ही स्तर की निर्भयता का परिचय देता है।गाँधी कहते हैं हिंसा का जन्म आक्रामकता से होता है यानि किसी भी कीमत पर अपने आपको बचाये रखने की स्वार्थ से भरी इच्छा जो कायरता को जानती है, इसीलिए असली साहस हिंसा का जवाब हिंसा से ना देने में है। रोज़मर्रा के जीवन में कई बार हम सब मानसिक, वाचिक आदि हिंसाओं का सामना करते हैं और अपनी ओर से भी हिंसक प्रतिक्रिया देते हैं, फलस्वरूप हमारे मन में कोहराम सा मच जाता है जो धीरे-धीरे मन को असुरक्षा, ग्लानि और भय से भर देता है जिसके चलते कई बार हमारे प्रतिद्वंदी के वो अवगुण हमारे भीतर आ जाते हैं, जिस वजह से वो कभी हमारे लिए घृणा का पात्र बना था।
गाँधी, जिन्हे तीन देशों ने समझा एवं अपनाया, उन्ही की भूमि पर हम में से कई लोग, आज़ादी के समय उनके लिए गये फैसलों पर चाहे वो विभाजन से सम्बंधित हों या भगत सिंह की फांसी के सन्दर्भ में, आज उन्हें पानी पी -पी कर कोसते हैं । गाँधी या अन्य कोई भी महापुरुष आलोचना से परे नहीं है क्योंकि ना तो ये देवता हैं ना ही भगवान। चलो जमकर गाँधी की आलोचना करें, उनके विचारों से मुठभेड़ करें लेकिन उसके लिए आओ पहले गाँधी को जाने, उन्हें पढ़ें, फेसबुक, वाट्स एप, ट्विटर पर पढ़े लेख के आधार पर अपनी राय बनाना गलत होगा।उनकी किताबों में उन गुणों का अवलोकन कीजिए, जिसने एक गाँधी को महात्मा की उपाधि प्राप्त करायी और फिर तय कीजिए की गाँधी एक महात्मा हैं या मिथ्या.