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Vandita Chaurasia

Drama

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Vandita Chaurasia

Drama

एक वादा खुद से 'फिर से जीने का

एक वादा खुद से 'फिर से जीने का

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घर का काम करते-करते अचानक मेरी नजर सामने लगे आईने पर पड़ी, देखा तो "मैं" थी। फिर अनदेखा कर अपने काम में व्यस्त हो गयी। फिर अचानक से ऐसा लगा आईना मुझे बुला रहा है। मैंने हाथ में ली हुई झाडू वहीं पर छोड़ दी और आईने के सामने खड़ी हो गयी। अपने आप को देख रही थी, थोड़ी देर शांति से खड़े हुए देखने के बाद अपने आप से ही सवाल करने लगी..."यह मैं हूँ? कैसी शक्ल बना ली है मैंने? ये बिखरे बाल, ये आँखों के नीचे कालापन, बालों में सफेदी, चेहरे पर रूखापन, फटे होंठ, चेहरे पर इतनी थकान, शरीर अस्वस्थ, हाथों की त्वचा रूखी बेजान, पैरों की एड़ियां फटी हुई, रूखे से पैर, नेल पॉलिश 1, 2 उंगली में थोड़ी बची हुई, बाकी सब छूट चुकी थी। ये किस हालत में मैं हो गयी हूँ? मैंने अपने आप को कैसा बना लिया है ? मुझे तो अपने आप के लिए वक्त ही नहीं।" 

सुबह बहुत कोशिश करने के बाद भी 8 या 8:30 से पहले नींद नहीं खुलती, क्योंकि देर रात सोती हूँ और जब बच्चा रात में कई बार जगा देता है तो और भी नींद पूरी नहीं होती। उठते ही बिना कुछ खाए-पीये, सीधा साफ-सफाई, घर के काम, नहाना-धोना, फिर तुरंत ही खाना बनाने में लग जाती हूँ। समय से खाना बना लूं नहीं तो, पति को ऑफिस जाने में देर हो जाएगी। इसी बीच बच्चे को भी उठाना, उसकी दिनचर्या कराना, उसे भी खिलाना-पिलाना ये सब काम भी होते रहते हैं।

पति के साथ बैठकर खाना खा लेती हूँ, नहीं तो शायद उसके लिए भी सही समय न मिल पाये। खाना खाते ही दिमाग चलता रहता है, अभी मेरे लिए इतने सारे काम पड़े हैं, जल्दी-जल्दी उन्हें निपटाना है। पति को ऑफिस के लिए विदा कर झट बच्चे को नहलाने, खाना खिलाने उसकी देख-रेख में लग जाती हूँ और घर के कामों में, पर उठते ही जो मैं घर, पति और बच्चे की चिंता में व्यस्त हो जाती हूँ, खुद को भूल जाती हूँ, कि मैंने भी कुछ खाया है ? और जब खाली पेट काम में लगी रहती हूँ, ऊपर से बच्चा परेशान करता है तो फिर ज़ाहिर सी बात है बहुत गुस्सा आता है।

ऐसा लगता है कि "क्या यह जिंदगी नर्क सी बन गयी है, बस काम, पति, बच्चा। अब तो जैसा लगता है मेरे जीवन में कुछ रह ही नहीं गया है। बस यही रह गया है, यही करती रहूं मैं। अंदर ही अंदर इतना गुस्सा, इतना चिड़चिड़ापन होने लगता हैं कि पूछो ही मत। फिर वह थोड़ा-थोड़ा करके विकराल रूप में बाहर आने लग जाता है। इस गुस्से की वजह कोई और नहीं, मैं खुद होती हूँ पर इसका दोषारोपण मैं अपने बच्चे और पति कर कर देती हूँ। जबकि मैं खुद इस चीज की जिम्मेदार हूँ। आखिर मैं क्यों अपने आप को खो दे रही हूँ ? क्यों नहीं अपने लिए समय निकाल रही हूँ ? यह तो जीवन है, ऐसे ही चलता रहेगा। न ही घर का काम खत्म हो सकता है, न ही समय की रफ्तार कम हो सकती है।

मैं एक स्त्री के रूप में जन्मी हूँ ना, तो मेरी तो बहुत सी जिम्मेदारियां है। एक पत्नी हूँ, तो हर हाल में मुझे अपने पति का ध्यान रखना है, एक गृहिणी हूँ, तो मुझे ही अपना घर संभालना है और अब मैं एक "माँ" हूँ, जिसकी अनगिनत जिम्मेदारियां हैं, मेरे सिवा कौन यह सब संभालेगा ? यदि मैं खुद को ऐसे भुला दूंगी तो, मेरा यह संसार कैसे चलेगा ? सिर्फ अपनी पुरानी तस्वीरों को देखकर कि, मैं पहले कितनी सुंदर दिखती थी और मैं तो अपने कॉलेज टाइम में अपनी सुंदरता, अपनी प्रतिभा और अपने गुणों के कारण मिस के एम एम युनिवर्स चुनी गयी थी। और आज क्या हूँ ? सबकी चिंता, सबका ध्यान रखने में खुद हो ही भुला दिया है।

आज इतनी जिम्मेदारी उठा खुद को भूल गयी है कि कहाँ गया मेरा सुंदर सा, हंसता हुआ चेहरा ? कहां गया वह मेरा खुशमिजाज, बातूनी चंचल स्वभाव ? मेरे अंदर इतना गुस्सा, इतना चिड़चिड़ापन आ गया है कि, कभी-कभी ऐसा लगने लगता है कि व्यर्थ है यह जीवन। शरीर को कई बीमारियों ने घेर लिया है, कभी सर्वाइकल की समस्या से परेशान रहती हूँ, कभी साइनस से परेशान सुबह से छीकती-खांसती रहती हूँ, तो कभी कमर के असहनीय दर्द से। अकेले घर में रहना और यह सारी जिम्मेदारियां निभाना ऊपर से बच्चे को संभालना बहुत ही चुनौती भरा होता है। सच कहा जाता है, "बच्चे को जन्म देना आसान है ,पर पालन-पोषण उतना ही मुश्किल"। मैं न ही मन से शांत हूँ, न ही शरीर से और न हीं दिमाग से। न जाने मेरे जीवन में यह कैसे उथल-पुथल मच गयी है।

यह गुस्सा करना, चिड़चिड़ापन, चीखना-चिल्लाना मेरे दिल -दिमाग और शरीर पर हावी ही होता जा रहा था। फिर मैंने तय किया नहीं ऐसे काम नहीं चल सकता। यह मेरा जीवन नही है। मैं अपने आपको ऐसे नहीं खोने दे सकती हूँ। अपने मन और दिमाग को शांत करने के लिए मैं डॉक्टर से मिली और अपनी इन समस्याओं का समाधान मांगा। डॉक्टर ने कहा इन समस्या का समाधान सिर्फ तुम्हारे पास है, "तुम एक एक स्त्री हो और स्त्री की सहनशीलता अथाह होती है, ऐसे कैसे तुम टूट सकती हो? ऐसे कैसे तुम खुद को भूल सकती हो? अपने लिए समय निकालो, अपनी पहचान को ऐसे मत खो दो। जिम्मेदारियां संभालो, पर अपने को खोकर नहीं, अपने को पाकर। अगर तुम खुश रहोगी तो, तुम्हारे पति और तुम्हारा बच्चा खुश रहेंगे और अगर तुम खुद को ही खुशी नही दे सकती तो, तुम खुद बताओ तुम्हारा परिवार कैसे खुश रह सकता है"? ये ही बातें मेरे अपनो ने भी समझायी, ''हम भी माँं है, हम भी जिम्मेदारियां निभा रहे हैं। पर खुद को बुलाकर नहीं। तुम एक अच्छी पत्नी और एक अच्छी माँ बनने में खुद कर भूलती जा रही हो। तुम खुद को भूलो मत, खुद को संभाल कर, खुद का ख्याल रखकर अपने घर को संभालो, तब देखना तुम्हारा जीवन फिर से अच्छा हो जायेगा। तुम्हारी सुंदरता, तुम्हारा हंसमुख, बातूनी, सामाजिक व्यवहार, तुम्हारी चंचलता, सब कुछ तुम्हें वापस मिल जाएगी।''

फिर क्या था, मैंने अपने आपसे यह वादा कर लिया है कि, अब मैं खुद को नहीं भूलने दूंगी। किसी भी तरीके से अपने इस व्यस्त जीवन में से खुद के लिए मुझे समय निकालना है। मैं सेल्फिश बन रही हूँ, क्योंकि अगर मैं खुद खुश नहीं हूँ, तो मैं अपने पति और बच्चे को खुश नहीं रख सकती। अपनी दिनचर्या में मैंने परिवर्तन शुरू कर दिया। सुबह उठने के बाद, दैनिक कार्य करने के बाद, पहले पेट पूजा, फिर काम दूजा। घर का काम खत्म करना है पर आराम से, अब टेंशन लेकर नही। जितना काम कर सकूंगी करती हूँ, बाकी थोड़े समय के लिए छोड़ देती हूँ। म्यूजिक से सच में दिमाग को बहुत शांति मिलती है। शाम को जब मेरा लाडला बेटा सो कर उठता है तो, माँ और बेटे दोनों पागलों की तरह नाचते हैं। पर यह पागलपन सच में बहुत सुकून देता है। मुझे डांस करना बहुत पसंद है, मैं एक अच्छी डांसर भी हूँ।

काफी दिनों से मैंने थिरकना छोड़ रखा था, पर मैंने फिर से अपने पैरों में घुंघरू बांध लिये हैं और मैं अब ऐसे ही थिरकती रहूंगी। अपने इस खूबसूरत से शौक को ऐसे कहीं छोड़ नहीं सकती। काम करते-करते जैसे ही याद आया, 'अरे मैंने तो अभी बाल भी नहीं सवारे, काम किया किनारे और बैठ गई आईने के सामने, अपने को संवारने के लिए... बालों को सुलझाया, चेहरे को चमकाया, अपने प्यार और सुहाग की निशानी अपनी मांग में सिंदूर लगाया और लगने लग जाती हूँ "परी"।

लोगों की अक्सर शिकायत मिलती है कि तुम तो ईद का चांद हो गई हो, न ही मिलती हो, न ही कभी फोन करती हो। अब उनकी भी शिकायतें दूर कर रही हूँ। अपने सखियों को फोन कर गप्पे मारती हूँ। सच वह स्कूल कॉलेज के दिन, वह सखियों के साथ बिताए दिन, याद कर दिल गुदगुदा जाता है। वैसे पॉजिटिव सोच रखने वाले लोग सच ही कहते हैं कि अगर तुम पॉजिटिव सोचोगी, तो सब कुछ अच्छा लगेगा। मैंने भी अपने दिल दिमाग से निगेटिविटी को निकालना शुरू कर दिया है। न ही निगेटिव सोचना है, न ही निगेटिव करना है। हमेशा पॉजिटिव सोच रखनी है। मेरी एक बहुत बड़ी समस्या है मेरी कि ये सोचना, "मैं तो बुरी नहीं हूँ, न किसी का बुरा सोचती हूँ, न ही करती हूँ, पर मेरे लिए कुछ लोग क्यों बुरा कहते हैं"? यह मेरी नहीं, शायद बहुतों की समस्या होगी पर। क्या कर सकते हैं, ये जरूरी नहीं कि सभी हमारी अच्छाई को अच्छा ही कहें। उनके लिए सर फोड़ने से कोई फायदा नहीं। जो मेरे अंदर की सच्चाई है, मेरा व्यवहार है, वह चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा, अब मुझे इसकी परवाह नहीं। जिसे मुझे दिल से अपनाना है वह अपना सकता है और जिसे नहीं अपनाना वह न अपनाएं। जबरदस्ती किसी के दिल में मुझे अब जगह नहीं बनानी। मैं जैसी भी हूँ, जो कुछ भी हूँ, सही चीजों के लिए सही हूँ और गलत चीजें मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। सामने वाले को अगर मुझ में कोई कमी लगती है तो वह मुझे प्यार से समझा कर शायद बदल सकता है, पर अगर वह बात सही होगी तो।

अब मैंने जो अपने आपसे किया है एक वादा "फिर से जीने का" उस वादे को पूरा करना है। अब तो मेरी एक बहुत अच्छी सहेली है, "मेरी लेखनी" जिसका साथ मुझे बेहद पसंद आता है। जब मन करता है अपनी लेखनी उठा अपने मन की बातें शब्दों में पन्नों में उतार देती हूँ। वादा किया है खुद से अपने इस सफ़र को बेहद खूबसूरत बनाना है। अपना अस्तित्व नहीं खोना है और जीवन के सभी रिश्ते अच्छे से निभाना है। ऐसा है कुछ मेरा ये सफर।


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