एक रोटी ... पाँच रुपये की !
एक रोटी ... पाँच रुपये की !
एक रोटी ... पाँच रुपये की ! एक रिक्शेवान अपने किसी सरकारी काम से सरकारी दफ्तर गया । जिसके मंजिलों , सीढियों से वो भलीभांति परिचित हो चुका था ... परिचित इसलिए .. अरे भाई ! कोई सात – आठ बार वहां जायेगा .. तो अपने आप दोस्ती और परिचय हो जाता है ... और कभी – कभी तो .... तीसरी मंजिल कमरा न . ३१३ भू – अभियंता ये तीन पंक्तियाँ उसके दिमाग में कौंधने लगती थी .. जब भी वो उस लाल रंग के चार मंजिली दफ्तर के गेट से दाखिला लेता था । उसने उस फार्म को कस के अपनी हथेली मे पकड़ा.... और चल पड़ा अपनी मंज़िल की ओर ! उसे आज न जाने क्यूँ , उस बदरी के मौसम मे एक उम्मीद की किरण नज़र आने लगी थी , पर इंद्र देवता आज बरसने को आतुर थे । “आज बारिश होय से पहले आपन कमवा होइए जाए के चाही...” ऐसा सीढ़ियों पर चढ़ते हुये उसने सोचा । जैसे ही वो उस भू – अभियंता के कमरे मे दाखिल हुआ .... वो चौंक गया ! सभी साहब लोग अपने काम मे मशगूल थे। मानो आज उनका 2 घंटे बाद इंतिहान हो ! फिलहाल वो अपने माथे की रेखाओ को थोड़ा आराम देते हुये ... शर्मा जी के डेस्क के नजदीक पहुँचा । अपना फार्म उसने शर्माजी की तरफ बढ़ाया । “ प्रणाम साहेब ! “ अपनी उम्र को चुनौती देते हुये उसने शर्मा जी से कहा । शर्मा जी ने उसके इस अभिवादन को सहर्ष स्वीकार किया । “हमार कमवा होइए ग्वा .... जौन...” (उसको बीच मे ही रोकते हुये... ) शर्माजी ने उसका फ़ार्म डेस्क पर रखते हुये कहा “अरे हो गया भाई ... निकालो 48 रुपये । “ फिर शर्माजी ने उस फार्म पर हस्ताक्षर कर दिये । रिक्शेवान सोचने लगा ... “चला ... आठ बार बादे ही सही ... हमरा कमवा तो होइ ग्वा .... मालती तो यूं ही बकथ है ... मैं किसी काम का नही ... आज बताऊँगा उसे ।” “ अरे... तू कहाँ खो गया ... निकाल जल्दी 48 रुपये ... आज बहुत काम है “ शर्मा जी ने कहा । फिर उसने जल्दी से अपने जेब मे हाथ डाला ... और अपने चार – पाँच नोटों के गट्ठर के बीच मे से 50 का नोट बाहर निकाला । जो की दिखने मे काफी भद्दा था , पर आज काम का था । शर्माजी ने लपक के नोट पकड़ा ... फिर अपना सलीके से दराज खोला .... जिसमे सभी नोट बड़े व्यवस्थित ढंग से रखे थे .... 100 का नोट अलग ... 500 का नोट अलग... 1 और 2 के कुछ सिक्के अलग ! ये देखकर वो सोचने लगा ... ( साहेब लोग कितना स्याटेमातिक ढंग से नोटवा सजाये राखात हैं ... बस स्यसटमवा ही गड़बड़ है ... और मैं..) “ ठीक है .... तुम अब जा सकते हो “ शर्मा जी ने कहा “ साहब ... हमरा 2 रूपिया ! “ रिक्शेवान बोला । “ अरे... जाओ यार ... क्या 2 रुपये के लिए तुम भी ... आजकल 2 रुपये की क्या कीमत है। “ “ अगर साहेब कौनों कीमत नहीं ... तो दे काही नहीं देते “ रिक्शेवान ने व्यंगवश कहा । “छुट्टा नही है यार ... जाओ यहाँ से । “ पर आपके दर्जवा मे तो है ... हमने अभिहि देखा ।” रिक्शेवान ने कहा । “अरे यार ... तुम्हें एक बार मे समझ नही आता ...... “..... तुम्हें किस बात की सरकार से तनखव्फ़ मिलती है ... इस पागल को बाहर निकालो “ शर्माजी ने गुस्साते हुये उस गेटकीपर से कहा । ( जो कुर्सी पर बैठा - बैठा जम्हाई ले रहा था ) “साहेब ... आप बेवकूफ हो “ रिक्शेवान ने बड़ी सहजता से कहा । “क्या ?... कह रहा है अबे तू “ शर्माजी ने गुस्साते हुये कहा । “हा साहेब ... आपके लूटे नाही आवत , मन्नू के दुकान पे एक रोटी 5 रुपैया के मिलत है... 2 रुपैया के नाही! आपके और लूटे के पड़ी । आप अफसर कैसे बन गए ... जरूर घूस दे के आए होंगे । “ ये सुनकर शर्माजी शर्मिंदा हो गए । अब उनका गुस्सा ठंडा हो चुका था । अब उनकी नजरे झुकी हुयी... पर उस काँच के खिड़की पर केन्द्रित थी । न जाने क्या वो उस अदानी सी खिड़की मे ढूंढ रहे थे । मानो आज वो पूरे संसार के सार को एक पल मे समझ लेना चाहते थे , पर वो अदनी सी खिड़की सिर्फ उन्हे मोटर , कारों, भीड़, बारिश और कुछ बहुमंज़िली इमारतों से ही परिचय करा सकती थी । इस परिचय के बीच मे वो गेटकीपर , रिक्शेवान को धक्के देकर बाहर कर देता है , और वो फार्म उस डेस्क पर पड़ा रह जाता है .... ....शायद उस रिक्शेवान... के इंतज़ार मे ।