एक मोहब्बत ऐसी भी

एक मोहब्बत ऐसी भी

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हमारे घर में सिर्फ़ दो कमरे हुआ करते थे। एक कमरे में मैं अब्बा के साथ सोता था, और दूसरे कमरे में अम्मी मेरी बहनों के साथ फ़र्श पर सोती थीं। हवा का कोई ठंडा झोंका शायद ही कभी हमारे घर के अंदर आने की तकलीफ उठाता था, बस दरवाज़े से ही रुख़सत हो जाता था। जब गर्मी हद से ज़्यादा बढ़ जाती तो हम सब भाई बहन अम्मी के साथ छत की तरफ़ भागते थे। हमारी छत भी हमारी किस्मत की तरह छोटी थी। मुश्किल से पांच हाथ की चौड़ाई और चार हाथ की लंबाई, और ऊपर से वो मच्छर। दिल तो करता था कि एक एक मच्छर की बोटी बोटी करके कुत्तों को खिला दूँ। थोड़ा होश संभाला तो ये एहसास हुआ कि ये एक नामुमकिन काम है।

ज़िन्दगी में सिर्फ़ दो ऐसे मरहले आते हैं जब इंसान ऐसे बचकाने ख्वाब देखने की हिम्मत करता है। एक तो तब जब वो एक नासमझ बच्चा होता है और दूसरा तब जब वो मोहब्बत की वादियों में गिरफ़्तार हो जाता है। 

अम्मी हमारी थीं अव्वल नंबर की manager। घर का खर्चा हो या कोई अहम बात - मामले को संभालना उन्हें अच्छी तरह आता था। अब्बा की कमाई में तो हमें सिर्फ़ दाल नसीब होती थी, लेकिन अम्मी दाल में भी तरह तरह की varieties खोज लेती थीं। कभी दाल में आलू मिला देतीं तो कभी भिन्डी। एक दिन गोभी की सब्ज़ी बनती तो दूसरे दिन उनके पत्तों की। पाव भर सोयाबीन खरीद के लाती थीं और सब्ज़ी में मिला देतीं, तो यूँ लगता मानो हम लोग चिकन खा रहे हों। लेकिन एक बात है, मैंने कभी भी अब्बा को या फिर अपनी बहनों को खाने के बारे में कोई शिकायत करते नहींं पाया। शायद इसलिए क्योंकि शिकायत वो लोग करते हैं जिनके पास ऑप्शन्स होते हैं। जिन के घरों में इस बात का भी भरोसा ना हो कि अगले वक्त का चूल्हा जलेगा या नहींं, उनकी ज़ुबान हर तरह के खाने में लुत्फ़ खोज लेती है। 

जब कभी सब्ज़ी कम पड़ जाती तो अम्मी रोटी के साथ प्याज़ और अचार की एक डिश तैयार करती थीं और बड़े मज़े लेकर खाती थीं। हमसे कहतीं, "इस डिश का मज़ा तुम लोग क्या जानो ?" प्याज़ और अचार की डिश का ज़ायका कैसा होता होगा ? शायद कड़वा। मगर अम्मी ही थीं जो उसमें भी मिठास खोज लेती थीं। 

हम चार भाई बहन थे। आमिना बाजी, मैं, अफ़ज़ा और आरफ़ा। हर हफ़्ते सन्डे के दिन, अब्बा मुझे बीस रुपये देते और कहते, जाओ जाकर इनकी जलेबी ले आओ। मैं ठाट बाट से दुकान पर जाता और बीस रुपये की जलेबियां लेकर आता था। उस वक़्त बीस रुपये में छ: जलेबियां मिलती थीं। अम्मी, अब्बा और आमिना बाजी जलेबियां नहींं खाते थे, या फिर यूँ कहिये कि अपना हिस्सा हमें दे देते थे। आरफ़ा, जो मेरी सबसे छोटी बहन थी, वो हमेशा टकटकी भरी निगाहों से मेरे हिस्से की जलेबियों को देखती रहती थी। 

तुतलाती हुई आवाज़ में कहती, "आलिफ़, मुझे जलेबी दो ना।"

और मैं अपने हिस्से की एक जलेबी उसे दे देता। अफज़ा से मांगने की हिम्मत वो कर नहीं सकती थी, वरना अफज़ा उसे दो हाथ देती।

"आपने इसकी आदतों को बिगाड़ा हुआ है आरिफ़ भाई," अफज़ा मुझसे कहती।

"जाने दो ना अफज़ा। सबसे छोटी है वो।"

ग़रीबी थी, खाने को कम मिलता था, दूसरे बच्चों के खिलौनों को हसरत भरी निगाहों से देखा करते थे, ईद की मेहरूमियाँ भी झेलते थे, लेकिन फिर भी, साथ मिल जुल कर छोटी छोटी चीजों में अपनी खुशियाँ ढूंढ ही लेते थे। कपड़े पीटने वाले को बैट बना लेते थे, फटे पुराने कपड़ों को बांध कर बॉल बना लेते थे, और क्रिकेट खेलते थे। बक्से को तबला बना लिया और गाने गा लिए। 

ग़रीबी उस वक़्त तक क़ाबिल ऐ बर्दाश्त रहती है जब तक हालात नॉर्मल रहें। जैसे ही वक़्त ने पलटी मारी, ग़रीबी का ज़हर जिस्म के हर हिस्से में ऐसा दर्दनाक दर्द पैदा करता है कि खुदा के सबसे इबादतगुज़ार बंदे की भी रूह कांप उठे। ना जान निकलती है, ना सब्र किया जाता है। ज़िन्दगी और मौत के दरम्यान झूलता रहता है वो इंसान।

आमिना बाजी का सिर बुखार से तप रहा था। मैं भागा भागा अब्बा के कारखाने गया। हम सब उसी वक्त शहर के एक जाने पहचाने सरकारी अस्पताल पहुंचे। वहाँ पहुंचे तो पता चला कि हमारे जैसों की तादाद तो वहाँ सैकड़ों में थी। कुछ ज़मीन पर लेटे हुए थे। कुछ चिल्ला रहे थे। कुछ इधर उधर भाग रहे थे। डॉक्टर का कुछ पता नहीं और यहाँ बाजी की हालत बिगड़ती जा रही थी। कोई कहता था कि डॉक्टर साहब आपरेशन कर रहे हैं तो कोई दूसरा कहता की अभी वो "अपने" क्लीनिक पर हैं। किसी private अस्पताल में जाने की हमारी हैसियत नहींं थी और सरकारी अस्पताल में इंसान कीड़े मकोड़ों की तरह भरे पड़े हुए थे।

अम्मी के कुछ ज़ेवरों को कौड़ी के दाम बेचकर कुछ पैसों का इंतज़ाम हुआ तो बाजी को private अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने बताया की उन्हें टी.बी है। हम बच्चों ने तो बस टीवी का नाम सुन रखा था। पता नहीं टी.बी क्या चीज़ थी। सिर्फ़ इतना मालूम था कि बहुत बुरी चीज़ थी। ये नौबत आन पड़ी की अब्बा को दूसरे लोगों के सामने अपनी झोली फैलानी पड़ी। वो हर दरवाज़े पे जाते और कहते, "मेरी बेटी बहुत बीमार है। आपको अल्लाह का वास्ता। कुछ मदद कर दीजिये।"

ज़्यादातर लोग दुत्कार देते। कुछ लोग कहते, "धंधा बना लिया है तुम लोगों ने," जबकी कुछ लोग कहते, "काम करके पैसे जमा करो। भीख मत मांगो।" 

जो लोग मस्जिद के लिए दस हज़ार तक की रक़म देते थे उन्होंने हमें दस रुपये दिए। ऐसे ही एक शख़्स ने मुझसे कहा, "बच्चे, ये लो, पाँच रुपये और ऐश करो। ऐसी कहानियाँ बहुत सुनी हैं हमने।" 

जैसे ही वो पीछे मुड़ा, मैंने एक झटके में उसकी पीछे वाली जेब से उसका वॉलेट खींचा और वहाँ से भागा। उस वक्त मेरी नज़रों के सामने सिर्फ़ आमिना बाजी का चेहरा था। सही और ग़लत की तमीज़ भूल चुका था मैं। ज़मीर, अंतरात्मा, conscience - सब ढेर हो चुके थे। याद था तो सिर्फ़ एक नाम, आमिना बाजी।

"चलो ना अम्मी, आज छत पर सोते हैं," मैंने अम्मी से कहा।

"देखो ना अम्मी। आज छत पर सोने की कितनी जगह है। आज तो हम सब पाँव पसार के सोयेंगे। कोई मुश्किल नहींं होगी अम्मी। खाने को भी ज़्यादा मिलेगा। सबके हिस्से में एक एक रोटी ज़्यादा आयेगी। और तो और, आज ना जाने कैसे, हवाएँ भी हमारे घर का रास्ता भूल बैठी हैं।"

इतना कह कर मैं अम्मी के गले लग गया। हम तो रो भी नहींं सकते थे कि कहीं अफज़ा और आरफ़ा पूछ ना बैठें कि आप दोनो क्यों रो रहे हैं तो हम क्या जवाब देंगे। जब आरफ़ा ने मुझसे आमिना बाजी के बारे में पूछा तो मैंने कह दिया कि वो सितारों की वादियों में गयी हैं ख़ास मेहमान बनकर। वहां से वापस आयेंगी तो उसके लिए खिलौने लायेंगी। मैंने वॉलेट निकाला और उसे आग के सुपुर्द कर दिया। वो पैसे मेरे किसी काम नहींं आये थे। मैंने तो सिर्फ़ किसी के पैसे चुराए थे। ख़ुदा ने तो मेरी बाजी की सांसें ही चुरा लीं।

रोज़ शाम को मैं और आरफ़ा छत पर कुछ वक़्त साथ गुज़ारा करते थे। उस वक़्त ठंडी हवा सीधे हमारे मुंह पर लगती थी। उसे खिलखिलाता हुआ देखता था तो ऐसा लगता था मानो कुछ पल के लिए मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया हो। आरफ़ा को ड्राइंग का बड़ा शौक़ था। रोज़ अपनी नई नएईओड्राइंग मुझे दिखाया करती थी। अब्बा की नौकरी खत्म हो जाने की वजह से घर की हालत बहुत बुरी हो चुकी थी, लेकिन फिर भी, हम ने इसका इल्म दोनों बच्चियों को नहींं होने दिया।

मेरा दिल बैठा जा रहा था। आरफ़ा का बुखार उतरने का नाम नहींं ले रहा था। सजदों में रो रो कर मैंने उसके लिए दुआयें मांगी। अगर उसे कुछ हो गया तो ग़म ओ रंज से तो मेरी जान ही निकल जायेगी। ऊपर से ये बेरहम मौसम। ऐसी तपिश थी फ़िज़ा में मानो ज़मीन को जला कर राख कर दे। लोगों की पलकें बारिश के इंतज़ार में पथरा गयी थीं। बादल आते थे, उम्मीदों की उमंगें जगाते थे और फिर एक अनजान मुसाफ़िर की तरह वापस चले जाते थे। 


अंदर से अम्मी के रोने की आवाज़ आ रही थी, और अब्बा सिसक सिसक कर उन्हें कुछ समझाने की कोशिश कर रहे थे।

"मगर आरफ़ा ही क्यों ?" आरिफ़ क्यों नहींं ? अफज़ा क्यों नहींं ?" अम्मी ने सवाल किया।

"अफज़ा और आरिफ़ मुश्किलों को झेल सकते हैं। आरफ़ा कमजोर है। मुझे तो डर है कहीं वो भी...." अब्बा ने कहा। 

"आपको ख़ुदा का वास्ता। ऐसा मत कीजिए," अम्मी ने अब्बा से मिन्नतें कीं।

"तुम्हें अपना कलेजा मज़बूत करना पड़ेगा। मोहब्बत ने तुम्हें खुदगर्ज़ बना दिया है। कभी कभी हाथ को बचाने के लिय उंगली काटनी पड़ती है।"

"आलिफ़। मुझे आज कुछ अच्छा नहींं लग लहा," आरफ़ा ने कहा।

"क्यों आरफ़ा, क्या हुआ ?" मैंने उस से पूछा।

"तुम लेटी रहो। अभी तुम्हारा बुख़ार उतरा नहींं है," मैंने उस से सख्ती से कहा।

"तुम मुझे छोल के तो नहींं जाओगे ना।"

"नहींं आरफ़ु। मैं यहीं हूँ। तुम्हारे पास।"

मुझे वो दोपहर आज भी याद है। धूप की तपिश से इंसान तो इंसान, जानवर भी जान बचाते फिर रहे थे। चीख पुकार की आवाज़ें सुनी तो मैं अपने कमरे से बाहर निकला। देखा की आरफ़ा अब्बा की गोद में रो रही थी और वो उसे कहीं ले जा रहे थे। अम्मी भी रो रहीं थीं। मुझमे इतनी हिम्मत कहाँ कि अब्बा से पूछूँ की वो इस सख़्त गर्मी में आरफ़ा को लेकर कहाँ जा रहे थे। मैं खामोशी से उस मंज़र को देखता रहा, और अपना दिल को दिलासा देता रहा की फ़िक्र की कोई बात नहींं है। मुमकिन है कि आरफ़ा ने जलेबियों की ज़िद की हो। मुमकिन है कि उसका दिल बहलाने के लिए अब्बा उसे बाहर ले जा रहे हो। उन नन्हीं, गोल मटोल आँखों में एक अजीब सा सूनापन था। आरफ़ा चिल्लाती रही और मैं उन दोनों को जाते हुए देखता रहा। फिर वो दोनों मेरी नज़रों से ओझल हो गए। मैं भागा, लेकिन उन दोनों का कहीं कोई नाम ओ निशान ना था। 

अचानक सूरज की तपिश बिल्कुल मद्धम हो गयी और तेज़ हवाएँ चलने लगी। बादल गरजने लगे, और बारिश की बूंदों ने बंजर ज़मीन को अपने वजूद की ठंडक से शादाब किया। सभी लोग खुशियाँ मनाने लगे। लेकिन मैं वहीं खड़ा बारिश में भीग रहा था। जब भी मौसम बदला है, मेरी ज़िन्दगी में एक ऐसा तूफ़ान आया है जिसने मेरे तमन्नाओं के अंजुमन को ताश के पत्तों की तरह बिखेर दिया है।

अब्बा अकेले घर वापस आये। अम्मी को तो मानो, इस बात से बिल्कुल कोई फ़र्क नहींं पड़ा। मेरी बेचैनी को देखकर अब्बा मेरी अंदर की कशमकश को समझ गए।

"आरिफ़, मेरे पास सिर्फ़ दो रास्ते थे। आरफ़ा की ज़िन्दगी या मौत। उसकी ज़िन्दगी के लिए हम सबको एक भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। मैं उसे एक अनाथालय में छोड़ आया हूँ, यहाँ से कोसों दूर। शहर के एक बड़े बाबू साहब हैं। वो हमारी आरफ़ा को गोद ले लेंगे। बस शर्त सिर्फ़ इतनी है कि हम में से कोई भी दोबारा आरफ़ा से मिलने की कोशिश नहींं करेगा," अब्बा ने मुझसे कहा।

मेरा दिल बैठ गया। कुछ पल के लिए तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे जिस्म की सारी ताक़त किसी ने छीन ली हो और मैं अभी इसी वक़्त यहाँ गिर पडूंगा। 

"वो कमजोर थी बेटा। आमिना के बाद अगर आरफ़ा को कुछ हो जाता तो मैं तो जीते जी मर जाता। मोहब्बत में ज़िद और खुदगर्ज़ी नहींं होती बेटा। मोहब्बत तो क़ुरबानी के उस जज़्बे का नाम है जिस की क़ुव्वत के आगे सभी को अपना सिर झुकाना पड़ता है। तो क्या हुआ अगर वो हमारे पास नहींं। हमारी हर दुआ में पहला ज़िक्र आरफ़ा का रहेगा। दिल के रिश्ते भी कभी टूटते हैं भला ? हम तो अपनी पूरी ज़िन्दगी सिर्फ़ इस एहसास के सहारे काट लेंगे कि हमारी आरफ़ा को वो सारी खुशियाँ मिलेंगी जो शायद हम उसे कभी नहींं दे पाते।"

मेरी आँखों में आंसू थे। सिर्फ़ ये फ़ैसला नहीं कर पा रहा था की ये अश्क ग़म के थे या खुशी के। 

सोलह साल बाद।

"आज आरफ़ा पूरे अठारह साल की हो गयी होगी। परी की तरह खूबसूरत हो गयी होगी मेरी बच्ची," अम्मी ने मुझसे कहा। 

"सच में। आज हमारी आरफ़ा पूरे अठारह साल की हो गयी होगी। क्या वो हमें याद करती होगी ?" मैं यही सोचता रहा।

घर के हालात बेहतर हो गए थे। पिछले साल अफज़ा की भी शादी हो गयी। बस आरफ़ा की कमी है। बस ये सोच कर खुश हो जाता हूँ कि मेरी बहन को वो सारी खुशियाँ मिल रही होंगी, जिनकी वो हक़दार है। शाम को छत पर बैठता हूँ तो ऐसा लगता है मानो पश्चिम से आने वाली ठंडी हवा अपने साथ आरफ़ा की खुशबुओं को समेट कर लायी है।

"तेरी खुशबू का पता करती है,

मुझ पे एहसान हवा करती है,

शब की तन्हाई में अब तो अक्सर,

गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है।''

उस की जुदाई का ग़म तो बहुत है मगर मोहब्बत की ताक़त के सहारे मैं खुद को संभाल लेता हूँ। बस, वो जहाँ रहे, खुश रहे, यही मेरी दुआ है। मुझे ख़ुदा से और कुछ नहींं चाहिए। 

"से पुकारा तो होंठों पर कोई नाम ना था,

मोहब्बतों के सफ़र में अजब फ़िज़ा आई,

कहीं रहे वो मगर खैरियत के साथ रहे,

उठाये हाथ तो याद एक ही दुआ आई।"

हिन्दुस्तान के किसी कोने में आयेशा का ध्यान अपने स्मार्टफ़ोन पर था। सामने से आते हुई तेज़ रफ़्तार गाड़ी, से वो बेखबर थी। गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ सुनकर उसने अपनी नज़रें उठाई। गाड़ी उसके बहुत करीब पहुंच चुकी थी। ड्राइवर ने ब्रेक मारते हुए उसके दायें साइड से गाड़ी निकाल ली। 

उसकी सहेली दौड़ते हुए उसके पास आई।

"तुम ठीक तो हो ?"

"I am fine."

"रोड़ पर ध्यान दिया करो बच्ची। मरोगी तुम किसी दिन अपनी लापरवाही की वजह से।"

"जब तक मेरे मम्मी पापा हैं, मुझे कभी कुछ नहींं होगा। उनकी दुआयें साये की तरह हमेशा मेरे साथ रहती हैं।"

"अच्छा। आज तो कॉलेज का पहला दिन है। तुम अपना इंट्रोडक्शन कैसे दोगी ?"

"इसमें क्या मुश्किल है। आयेशा अहमद, first year, bachelor of fine arts. I am serene yet wild, simple yet irresistible, and I hope that the class will develop a taste for my sense of humor. In any case, it takes time to develop a good taste."

"Such swag. Much wow," आयेशा की सहेली ने कहा।

कॉलेज के बाद आयेशा अपने दोस्तों के साथ कैंटीन पहुंची।

"ऋषभ, बहुत भूख लग रही है। जलेबी खिलाओ बच्चे," आयेशा ने कहा।

"आयेशा। I am totally broke. सिर्फ़ 20 रुपए हैं मेरे पास। भैया, इस लड़की को बीस रुपये की जलेबियां खिला दो," ऋषभ ने कहा।

सभी दोस्त ठहाके मार के हँसने लगे। सिर्फ़ आयेशा गहरी सोच में डूब गयी।

"बीस रुपये की जलेबी ?" आयेशा ने कहा।

"आरिफ़ भाई......." सहसा उसकी ज़ुबान से ये नाम निकला।

"ये आरिफ़ भाई कौन हैं ?" ऋषभ ने पूछा।

"पता नहींं," आयेशा ने जवाब दिया।

"Relax Aysh. कॉलेज का पहला दिन था ना। इस वजह से तुम थक गयी हो। अपनी जलेबियों पर concentrate करो," ऋषभ ने कहा।

"Perhaps, you are right. I need some rest," आयेशा ने कहा। 

दूर, कहीं किसी दूसरे शहर में आरिफ़ ने फिर आरफ़ा की सलामती की दुआयें मांगी।


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