एक मौसम दिल की बस्ती का

एक मौसम दिल की बस्ती का

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होने वाली सास ने उसका सिर पकड़कर दायें बायें घुमाया। 

"कहीं कोई नुक्स तो नहीं होने वाली बहू में। मेरा बेटा तो लाखों में एक है। पता नहीं क्या देखकर असद इसे अपना दिल दे बैठा, वर्ना ये कौन सा परियों की शहज़ादी है। बस क़ुबूल सूरत ही है," शायद उनके दिल में यही एहसासात उमड़ रहे थे। 


थोड़ा नाक मुंह सिकुड़ कर, तल्ख़ लहजे में उन्होंने इस शादी के लिए हामी भर दी। अफ़शीन की खुशी का तो कोई ठिकाना ही ना था। वो ही जानती थी की कितनी मुश्किलों के बाद उसकी शादी तय हुई थी। लड़के की सूरत चाहे कैसी भी हो, उसकी शादी में कभी कोई अड़चन नही आती। लड़की का रंग अगर हल्का गहरा भी हो, तो लोग क़यामत बरपा कर देते हैं। घर में दो बहनें और भी थीं। 


"ससुराल में कभी किसी का दिल ना दुखाना। सास ससुर की ख़िदमत में अपने शब ओ सेहर वक़्फ़ कर देना। एक शौहर और बीवी का रिश्ता एक नाज़ुक सी डोर से जुड़ा रहता है। वक़्त, बेइंतेहा सब्र, हिकमत और मोहब्बत से ही इस डोर को मज़बूत किया जा सकता है। और एक बात हमेशा याद रखना, कभी भी किसी बात पर ससुराल वालों से झगड़ कर घर वापस मत आना।" 

अम्मी की कही हुई एक एक बात को अफ़शीन ने अपनी याददाश्त में दर्ज कर लिया। 


अफ़शीन का सारा वक़्त को घर के कामों में कट जाता था। जो थोड़ी बहुत फ़ुर्सत मिलती, उसे वो अपनी डायरी के साथ बिताती थी। उसे शायरी करने का बड़ा शौक था। अपनी शादी के दिन उसने अपनी डायरी के ज़रिये अपना हाल ऐ दिल बयान किया :

"डरे डरे से, 

सहमे सहमे से हैं हम।

साकिन और कैद तमन्नाओं ने,

आज उम्मीद की उड़ाने भारी हैं,

तुम्हारे ख्यालों की कहकशां में,

गुज़रते हैं हमारे शब ओ सेहर।

ख़ुदा से हमारा रिश्ता तो बड़ा पुख़्ता है,

पर डरते हैं,

तुमसे आशनाई हमें ख़ुदा का मुनकिर ना बना दे।"


अफ़शीन ने अपना सारा वक़्त ससुराल वालों की ख़िदमत में लगा दिया। दिन रात चूल्हे के नज़दीक रहती, फिर भी सास उसे दिन के दो चार ताने दे ही देती थी। शुरू शुरू में थोड़ी तकलीफ़ होती थी, पर अब तो आदत सी हो चुकी थी। "बड़ों की बातों का क्या बुरा मानना," यही सोचकर अपने दिल को बहला लेती थी। जहाँ तक असद की बात थी, तो वो उस से बहुत मोहब्बत करता था, पर ना जाने क्यों, उसे ये महसूस होने लगा था की गुज़रते वक़्त के साथ, उनके रिश्ते में वो पहले जैसी शिद्दत नहीं बची थी। क्या मोहब्बत जिस्मानी दिलकशी की मोहताज है? क़ुरबानी, सब्र, लगन, क्या इनकी कोई अहमियत नहीं? 


असद की हमेशा ख़्वाहिश थी कि अफ़शीन थोड़ी मॉडर्न बने। वेस्टर्न आउटफिट्स पहनें, मगर अफ़शीन ने उसके इस मुतालबे को सिरे से ख़ारिज कर दिया। आज तक उसने अपने सिर से आँचल नहीं हटाया था, और असद ये चाहता था कि वो ग़ैर मर्दों के साथ घुले मिले। इसी बात को लेकर उन दोनो में एक दो बार झगड़े भी हुए। असद से बढ़ती दूरियों का एहसास अफ़शीन को अंदर ही अंदर खाये जा रहा था। अपनी परेशानियों का ज़िक्र वो करती भी तो किस से? अपने अम्मी अब्बू को वो परेशान नहीं करना चाहती थी। असद उस से ख़फ़ा था, और सास को तो बेटे की बुराईयाँ दिखती ही नही थीं। बस उसकी डायरी की उसका अकेला सहारा थी :

"कुछ इस क़दर हम उनकी मुस्कुराहट के मुन्तज़िर हैं,

बंजर ज़मीन को बादलों की आरज़ू हो जैसे।"


असद की फ़्लाईट का वक़्त हो चुका था। उसे USA में एक अच्छी नौकरी मिल गयी थी। उसने अफ़शीन से वादा किया था कि वो एक साल बाद उसे अपने पास बुला लेगा। अफ़शीन के दिल में एक अजीब बेचैनी थी। 


"प्लीज़ असद। आप रुक जायें। मुझे आपकी ज़रूरत है। आप जानते हैं कि मैं माँ बनने वाली हूँ। इस वक़्त मुझे आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। आपके वजूद का एक हिस्सा इस दुनिया में क़दम रखने वाला है। अपनी औलाद की एक झलक तो देख लें। कौन जानता है, ये मौका आपको ज़िन्दगी में फिर मिले ना मिले।"

असद की आँखों में एक अजीब खालीपन था। अफ़शीन की सारी मिन्नतों को ठुकराते हुए, वो अपनी गाड़ी की तरफ़ बढ़ा, और एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गया। अफ़शीन का दिल टूट गया। उसे यूँ लग रहा था मानो ये उसकी असद से आख़री मुलाक़ात हो। 

"अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें,

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।"


वक़्त गुज़रता गया। पहले तो असद हर हफ़्ते फ़ोन करता था। अपनी बेटी वफ़ा की आवाज़ भी सुनता था। कुछ वादे भी करता था। लेकिन धीरे धीरे राब्ता टूटता गया। दिन हफ्तों में और हफ़्ते सालों में तब्दील होते चले गए। एक दिन असद ने अफ़शीन को बता दिया की उसने किसी और लड़की के साथ रहना शुरू कर दिया है, एक live-in relationship में। उसके लहज़े में ना शर्म थी, ना अफ़सोस। अफ़शीन खामोशी से उसकी बातें सुनती रही। भले ही उसकी ज़ुबान खामोश थी, पर उसकी नम आँखें, उसकी तकलीफ़ के आलम को बख़ूबी बयान करती थीं। असद के आखरी अल्फ़ाज़ अफ़शीन के ज़हन में पैबस्त हो गए, "पैसे भेजता रहूँगा।" सिर्फ़ वफ़ा की ख़ातिर उसने अपने आंसूओं को रोके रखा है, कि कहीं वो पूछ बैठे, "अम्मी, आप रो क्यों रही हैं?" तो वो क्या जवाब देगी? कैसे बतायेगी वो उस छोटी सी बच्ची को की उसका बाप एक आवारा और बदचलन तबियत का इंसान है। अफ़शीन ने बड़ी मुश्किल से अपने जज़्बातों को काबू में किया। "अपने शौहर के लिए ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करने से पहले मेरी ज़ुबान कट क्यों नही गयी?" उसने अपने आप से कहा। मोहब्बत की असल क़ुव्वत तो ये है कि वो गुनाहों की परदपोशि कर देती है। अपनी डायरी में उसने ये मिसरे लिखे:

"इतनी मोहब्बत तुमने किसी इंसान से क्यों की अफ़शीन,

इस इंतेहा पे तो सिर्फ़ ख़ुदा का हक़ था।"


अफ़शीन ने वफ़ा को अपनी सारी ख़्वाहिशों और तमन्नाओं का सरमाया बना लिया। अपनी सारी उम्मीदें उस से वाबस्ता कर ली। अब उसकी बेसाख़्ता सी ज़िन्दगी का सिर्फ़ एक मक़सद था- वफ़ा की तालीम ओ तरबियत। हर हफ़्ते में कम से कम एक बार वो असद को ख़ुद फ़ोन करके उसका हाल चाल तलब करती थी। वो सिर्फ़ इतना पूछती, "आप कैसे हैं" और असद जवाब दे देता, "ठीक हूँ।" असद के ये दो अल्फ़ाज़, अफ़शीन के सियाह रुखसारों को रंगीन कर देते थे। बस कभी कभार, जब उसकी यादों को साहिल का दीदार नसीब नहीं होता था, तब वो अश्कों की शक्ल में उसकी आँखों से नुमाया होते थे। 

"अकेली तन्हा रातों में,

हम ख़ुद से बातें करते हैं,

थोड़ा ख़ुद को कोसते हैं,

कुछ बातें उनको कहते हैं

फ़िर जब हम थक जाते हैं,

तो उनकी याद आती हैं,

अश्कों के दरया बहते हैं,

और फिर हम खो जाते हैं,

 ख्यालों को उनके समेटते हैं

और फिर से खुद को कोसते हैं"


आप सोच रहे होंगे कि अफ़शीन को ख़ुद की इज़्ज़त का कोई ख़याल नहीं है। उसे असद को अपनी ज़िन्दगी से हमेशा के लिए बाहर निकाल देना चाहिए था। उसने ऐसा ही किया, बस तरीका थोड़ा अलग था। उसने ख़ुदा को अपनी ज़िन्दगी में शामिल कर लिया था। ख़ुदा हर रिश्ते, हर मोहब्बत की असलियत दिखा देता है, और फिर वो अपने बंदे से पूछता है कि अब बता, तेरा मेरे सिवा और कौन है? ख़ुदा सब्र और क़ुर्बानी का बदला देता भी है और हमारे साथ किये गए ज़ुल्म का बदला लेता भी है। उसकी इनायतें भी बेहिसाब होती हैं और उसका इंतेकाम भी बहुत सख़्त होता है। इंसानों के साथ मुश्किल ये है कि उनमें से अक्सर लोग बहुत जल्दबाज़ किस्म के होते हैं। नेकी करने के फ़ौरन बाद उसका सिला खोजते हैं। अफ़शीन को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। ख़ुदा के नज़दीक सजदे में गिरकर वो सिर्फ़ एक दुआ मांगती थी, कि उसके शौहर जहां भी रहें, जिसके साथ भी रहें, सेहत ओ सलामती के साथ रहें।


"एक मौसम दिल की बस्ती का- पार्ट 2"

20 साल बाद

आज वफ़ा की बीसवीं सालगिरह है। अफ़शीन की आँखों में आँसू थे। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी बेटी इतनी बड़ी हो गयी। 

"सालगिरह मुबारक हो बेटा। ख़ुदा तुम्हारी तक़दीर बुलंद करे, और हमेशा तुम्हें अपनी रहमत और शफ़क़त के साये में रखे," उसने अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। 

"इस साल मैं आपको कुछ देना चाहती हूँ अम्मी।"

"क्या," अफ़शीन ने मुस्कुराते हुए पूछा। 

वफ़ा ने एक किताब अपने बैग से निकली और अफ़शीन के हाथों में रख दी। अफ़शीन ने उस किताब के एक दो सफ़हे पलटे। ना जाने क्यों, इस किताब की नज़्में और ग़ज़लें बड़ी जानी पहचानी सी लग रहीं थी। किताब के कवर पर अपना नाम देखकर वो दंग रह गयी। 

"ये क्या है बेटा," उसने किताब जो वफ़ा की तरफ़ बढ़ाते हुए पूछा। 

"पिछले 20 सालों में शायद ही कोई ऐसा दिन गुज़रा हो अम्मी, जब आपने अपनी डायरी में कुछ लिखा ना हो। शायद ही कोई ऐसा पल गुज़रा हो जब आपने अब्बु को याद ना किया हो। ख़िज़ाँ और बहार के बेशुमार मौसम आये और गए पर आपकी मोहब्बत और वफ़ा का रंग आज भी आफ़ताब की तरह रोशन है। ये किताब उन्हीं एहसासात की ज़ुबान है," वफ़ा ने अपनी अम्मी का हाथ पकड़ते हुए कहा।

"पर बेटा...."


"मैंने आपसे वादा किया था अम्मी कि मैं अब्बु के बारे में आपसे कोई सवाल नही करूंगी। नहीं पूछूंगी आपसे कि क्यों आज भी उनका ज़िक्र होने पर आपकी धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। नहीं पूछूंगी आपसे कि क्यों इतने सालों बाद भी आपकी दुआओं में पहला ज़िक्र अब्बु का आता है। नहीं पूछूंगी आपसे कि क्यों आज भी आप उस शख़्स के नाम का कलमा पढ़ती हैं, जिसने पिछले बीस बरसों में आपका चेहरा तक देखना गवारा नहीं किया। मैं अपना वादा आगे भी निभाऊंगी अम्मी। आगे भी निभाऊंगी," इतना कहते हुए वो अपनी अम्मी के गले लग गयी। 

दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। अफ़शीन को एक पल के लिए ऐसा महसूस हुआ मानो उसकी दिल की धड़कनें रुक गयी हों।


असद ने सफ़ेद चेक शर्ट और उसके ऊपर से काला ब्लेज़र पहन रखा था। आगे के कुछ बाल सफ़ेद हो चुके थे लेकिन जुल्फ़े आज भी उतनी ही घनी थी जितनी बीस साल पहले थीं। उन दोनों की आँखें मिलीं और यूँ लगा मानो वक़्त भी थम गया हो। कोई भी अल्फ़ाज़ इन लम्हों की पाकीज़गी को बयान नहीं कर सकते थे। 


गुज़रे हुए वक़्त का असर अफ़शीन पर भी पड़ा था। ज़्यादातर बाल सफ़ेद हो चुके थे और आँखों पर चश्मा भी लग चुका था। कुछ मिज़ाज में भी तल्ख़ी आ चुकी थी। असद के साथ एक छोटी सी बच्ची थी। पिंक फ़्रॉक और लाल रंग के जूते पहने हुए थे उसने। होठों पर एक हल्की सी मुस्कान थी, और चेहरे पर मासूमियत का वो आलम था, जिसे देखकर कोई पत्थर दिल इंसान भी पिघल जाये। जिस तरह उसने असद का हाथ थामा हुआ था उस से उन दोनों के रिश्ते का अंदाज़ा लगाया जा सकता था।

"इस घर में तुम्हारी कोई जगह नहीं है," अफ़शीन की सास ने बुलंद आवाज़ में कहा।


एक माँ अपने बेटे को इतने सालों बाद देखकर ये रवैया इख्तेयार करेगी, ये भला किसने सोचा होगा। और फिर असद की अम्मी तो उसपर जान छिड़कती थी।

"तुम तो मेरे बेटे हो असद। मैंने तुम्हें जन्म दिया है, लेकिन औलाद होने का असल फर्ज़ तो मेरी बेटी अफ़शीन ने निभाया है। तेरे जाने के बाद भी इस लड़की ने इस घर को नहीं छोड़ा। कभी अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा। ज़ेहनी, माली, जिस्मानी, हर तकलीफ़ को सब्र के साथ सहती रही। कभी उफ़ तक नहीं किया इसने। क्या हक़ रह गया है तुम्हारा अब इन पर? बताओ मुझे असद। कौन सा रिश्ता रह गया है अब हमारे और तुम्हारे बीच? बताओ असद। बताओ।"

अफ़शीन की आँखों में आँसू थे। ख़ुदा अपनी क़ुदरत का ज़हूर ना जाने किन किन तरीक़ों से करता है। किसने सोचा होगा कि ऐसा भी दिन आयेगा जब असद की अम्मी अपने बेटे के ख़िलाफ़ अफ़शीन के साथ खड़ी होंगी? ये सब अफ़शीन के सब्र और कुर्बानियों का सिला था। ये ख़ुदा का वो बदला है जो वो अपने नेक बंदों को देता है।


शादी के बाद बीवी शौहर के हाथ में पकड़े तराज़ू के जिस पलड़े में जाकर बैठती है, वो पलड़ा बहुत हल्का होता है। दूसरे पलड़े में ससुराल वाले होते हैं। वो पलड़ा बहुत भारी होता है और बहुत सालों तक भारी रहता है। फिर आहिस्ता आहिस्ता सब्र, कुर्बानी और बर्दाश्त से बीवी का पलड़ा भारी होने लगता है। पहले ससुराल वालों के पलड़े के बराबर आता है, फिर उस से भारी हो जाता है। फिर हमेशा भारी रहता है। तवाज़ुन बदलता है। लेकिन ये काम सिर्फ़ और सिर्फ़ औरत का सब्र करता है। वक़्त करता है।कुर्बानी करती है। 

"अम्मी, आपको ख़ुदा का वास्ता। इन्हें अंदर बुला लें। अपनी बात कहने का मौक़ा तो दें," अफ़शीन ने अपनी सास से कहा।

वफ़ा ने उस छोटी सी बच्ची का हाथ थाम लिया।

"क्या नाम है आपका?" उसने पूछा

"ज़ोया," खिलखिलाते हुए उसने जवाब दिया। 

जाने क्यों वफ़ा को ऐसा लग रहा था कि उसकी ज़िन्दगी में जो खालीपन था वो आज खत्म हो गया।


"इस तिश्नगी की हक़ीक़त हमें बताओ असद,

"ये कैसी प्यास है जो दीदार ऐ सनम से भी ना बुझे।"


"तुम बिल्कुल नहीं बदली। आज भी बिल्कुल वैसी ही हो। सादा, मासूम और शुक्रगुज़ार," असद ने अफ़शीन से कहा। 

दोनो गार्डन में टहल रहे थे। चाँद आज अपने पूरे शबाब पर था। ऐसा मालूम हो रहा था मानो ज़मीन के हर ज़र्रे को आज चाँद ने अपनी रोशनी की आगोश में ले लिया हो। 

"मैं तो हमेशा से वैसी ही थी। 20 साल पहले भी वैसी ही थी। आज भी वैसी ही हूँ। मुमकिन है लोगों को परखने का आपका स्टैंडर्ड बदल गया हो," उसने असद से मुंह फेरते हुए कहा। उसके लफ़्ज़ों में कड़वाहट साफ झलक रही थी।


"स्टैंडर्ड...हाँ, मेरा स्टैंडर्ड बदला है। अफ़सोस तो सिर्फ़ इस बात का है कि ये सबक सीखने में मुझे बीस साल लग गए। जब तक हम अपनी सबसे कीमती चीज़ खो नहीं देते, हमें उसकी अहमियत का अंदाज़ा नहीं होता। ये इंसानी फ़ितरत है अफ़शीन। तुम से बिछड़कर मैंने जाना की मोहब्बत तो सिर्फ़ मैंने तुमसे ही की थी। उसके अलावा मेरी ज़िन्दगी में हर चीज़ की हैसियत सिर्फ़ एक सराब की है, जिस से उम्मीद तो जगती है, पर प्यास नहीं बुझती। माफ़ी तो ग़लतियों की होती है अफ़शीन। मैंने तो गुनाह किया है।"


"माफ़ी? आपको ये सब मज़ाक लगता है असद। आपको याद है, जब आप हमें छोड़ कर जा रहे थे, उस वक़्त मैंने आपकी कितनी मिन्नतें की थीं। जब मुझे आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, तब तो आप किसी ग़ैर औरत के साथ थे। मैं आपको क्यों माफ़ करूँ असद? दुनिया औरत के गुज़रे हुए कल को तो कभी नहीं भुलाती। उसे कभी माफ़ नही करती। फिर औरत से ये तवक़्क़ो क्यों की जाती है कि वो मर्द को माफ़ कर दे? मुझे जवाब दें असद। मुझे जवाब दें," अफ़शीन ने चिल्लाते हुए ये सब कहा।


"मेरे पास कोई जवाब नही है अफ़शीन। बस इतना कहूँगा कि मर्दों में इतनी ताक़त ही नहीं होती कि वो इतने बड़े गुनाह को नज़रअंदाज़ कर दें। ये सलाहियत सिर्फ़ औरतों में होती है। शायद इसी वजह से ख़ुदा ने औरतों का दर्जा इतना ज़्यादा बुलंद किया है कि जन्नत भी उसके क़दमों के नीचे आती है। तुम्हारी मिसाल तो बिल्कुल उस आफ़ताब की तरह है जो रात के वक़्त अपनी रोशनी का कुछ हिस्सा क़मर को दे देता है। इस से आफ़ताब की शान में कोई कमी नहीं आती, बल्कि, क़मर का मर्तबा, उसकी हैसियत बढ़ती है।"


"मेरा दिल इतना भी बड़ा नही है असद। आपने मेरे साथ जो किया सो किया। मुमकिन है उसके लिए मैं आपको माफ़ भी कर दूँ। पर आपने मेरी बेटी के साथ जो किया, उसके लिए एक माँ आपको कभी माफ़ नहीं करेगी। 20 साल मेरी बेटी को यतीमों की तरह ज़िन्दगी गुजारनी पड़ी। आख़िर क्यों असद? लौटा सकते हैं आप उसका खोया हुआ बचपन?"


अफ़शीन को एहसास ही नहीं हुआ की कब उसके पैरों में कांच के टुकड़े चुभ गए। असद ने उसके पैरों को अपने हाथों में थामा और उनमें से कांच के टुकड़े निकालने लगा। एक बार फिर कुदरत उन्हें एक दूसरे के क़रीब ले आई थी। कांच का एक टुकड़ा असद के हाथों में भी गड़ गया। अफ़शीन वापस जाने के लिए मुड़ी, की उसी वक़्त असद के हाथों ने उसके हाथों को थाम लिया और अपने जज़्बातों का इज़हार इन अल्फ़ाज़ में किया:


"मेरे लहजे में शामिल तू आज भी है,

तुझसे वाबस्ता मेरी ख़ुशियाँ आज भी हैं,

चाहा तो बहुत मैंने की भुला दूँ तुझको,

पर तेरी मोहब्बत में नादान मेरा दिल आज भी है,

याद आता है मुझको तेरा हर एक वादा,

उन वादों के एहसास की आस मुझे आज भी है,

मेरे ख़्वाबों में हर पल जागता है तू,

मेरी दुआओं में तेरे वजूद का पहरा आज भी है।

जानता हूँ नफ़रत है तुझे मुझसे, मेरे नाम से,

पर ऐ मेरे सनम, मुझे तुझसे मोहब्बत आज भी है।"


अफ़शीन अपने बुक लॉन्च के इवेंट पर अपनी सास के साथ पहुंची। वफ़ा ज़ोया के साथ वहां पहुंची। अफ़शीन की आँखें पूरी महफ़िल में सिर्फ़ एक शख्स को खोज रहीं थी। लोगों के इसरार पर उसने अपनी किताब से एक दो शेर पढ़े। अचानक उसने असद को महफ़िल में दाख़िल होते हुए देखा। उन दोनों के दरमयान 20 सालों का फ़ासला था। आज अफ़शीन ने एक बुलंद मर्तबा हासिल कर लिया था। अब वो किसी भी पहचान की मोहताज नहीं थी। ये उसकी जीत का लम्हा था। एक गहरी साँस भरते हुए उसने कहा: 


"जब कांच उठाने पड़ जायें,

तुम हाथ हमारा ले जाना।

जब समझो की कोई साथ नहीं,

तुम साथ हमारा ले जाना।

जब देखो की तुम तन्हा हो

और रास्ते हैं दुशवार बहुत,

तब हमको अपना कह देना,

बेबाक सहारा ले जाना।

जो बाज़ी भी तुम जीतोगे,

जो मंज़िल भी तुम पाओगे,

हम पास तुम्हारे हों ना हों,

एहसास हमारा ले जाना।

अगर याद हमारी आ जाये,

तो पास हमारे आ जाना,

बस एक मुस्कान हमें देना,

तुम जान हमारी ले जाना।

जब कांच उठाने पड़ जायें,

तुम हाथ हमारा ले जाना।"


अपनी जीत के लम्हे में उसने असद को माफ़ कर दिया। और बेशक ये काम सिर्फ़ एक औरत कर सकती है।


वफ़ा असद के सामने खड़ी थी। सिर पर दुपट्टा था और आँखें झुकी हुईं थी। बीस सालों का हिसाब देना था आज असद को। एक बाप अपनी बेटी के सामने इस तरह से रुस्वा हो, ये अफ़शीन को बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं था। 

"असद, आपकी बेटी है। आपसे कोई सवाल नहीं करेगी। आज वफ़ा का वजूद मुकम्मल होने जा रहा है। माँ की मोहब्बत के साथ साथ बाप की शफ़क़त का साया भी उसके सिर पर होगा। मैं इतनी ख़ुदग़र्ज़ नहीं हूँ असद कि एक बाप को उसकी बेटी के सामने रुस्वा होते हुए देखूं," अफ़शीन ने कहा। 

असद ग़ौर से अफ़शीन को देख रहा था। शायद फ़रिश्ते भी अफ़शीन के किरदार से रशक करते होंगे। कोई इतना रहीम कैसे हो सकता है?

वफ़ा की आँखों से आँसू जारी थे। उसने दो क़दम अपने वालिद की ओर बढ़ाये। 


"मैं तो ये भी हक नही रखता कि तुम्हें बेटी कहकर बुलाऊँ। बाप का आख़िर कौन सा फ़र्ज़ अदा किया है मैंने? मैं भागते भागते उस मोड़ पर पहुंच चुका हूँ जहां मेरा अक्स भी मेरा साथ छोड़ चुका है। बस एक गुज़ारिश है तुमसे। तुम भले ही मुझसे ज़िन्दगी भर नफ़रत करो, लेकिन सिर्फ़ एक बार मुझे इस बात का एहसास दिलाओ कि मेरी दो बेटियाँ हैं।"

"सिर्फ़ आपकी नही। हमारी दो बेटीयाँ हैं असद," अफ़शीन ने असद का हाथ पकड़ते हुए कहा। 


"मर्द तो जल्दबाज़ी और जज़्बात में आकर कोई फ़ैसला ले लेते हैं, मगर ये औरत है जो कभी सब्र से, कभी अपनी कुर्बानियों से और कभी अपने हुस्न ऐ अमल से घर को जोड़े रखती है। इस छोटी सी सच्चाई को समझने में मुझे बीस बरस लग गए अफ़शीन," असद ने मुस्कुराते हुए कहा।

अफ़शीन चुप थी। बस खामोशी से असद के पीछे चल रही थी। रब ने उसकी इज़्ज़त और कुर्बानियों की लाज रख ली। यही उसके लिए काफ़ी था। 


"मैं तुम्हें बिल्कुल भी deserve नहीं करता अफ़शीन। ना जाने मैंने कौन सा ऐसा नेक अमल किया था, जिसके बदले में तुम मुझे मिली थी। और आज मैं तुम्हारे सामने एक एतराफ़ करना चाहता हूँ। मिस अफ़शीन असद खान, मुमकिन है आप मुझसे कभी मोहब्बत ना करें, मुझे कभी माफ़ ना करें, मगर मैं अपनी आखरी साँस तक सिर्फ़ आपसे मोहब्बत करता रहूँगा। अगर मेरा मज़हब मुझे ख़ुदा के सिवा किसी और के सामने सजदा करने की इजाज़त देता तो वो सजदा मैं तुम्हारे सामने करता।"

अफ़शीन खामोश थी। 


अचानक तेज़ बारिश शुरू हो गई। अफ़शीन को बरसात बहुत पसंद थी। मगर इस बरसात की बात ही कुछ और थी। ऐसा मालूम पड़ता था मानो बारिश की हर एक बूंद उसकी रूह तक पहुँचकर उसके सारे ज़ख्मों पर मरहम लगा रहीं थीं। दिल की इस बस्ती का साबका हर मौसम से पड़ा था। इसने ग़मों की तेज़ धूप भी देखी थी और उम्मीद की दिलकश ख़िज़ाँ भी। अब मोहब्बत की रिमझिम फुआरों की बारी थी।








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