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Sonal Kant

Inspirational

5.0  

Sonal Kant

Inspirational

एक जन्मदिन ऐसा भी

एक जन्मदिन ऐसा भी

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25 सितंबर 2018, सितंबर !अरे हाँ ! सितंबर का ही तो महीना है, उसके भी इतने दिन बीत गए ?

वक़्त का तो पता ही नहीं चला, कब ये साल शुरू हुआ और अब तो ख़त्म होने को भी आया।

कहते हैं ज़िन्दगी में कोई चीज़ हमें जब सही समय पर मिल जाती है और उसमें तक़दीर अगर ख़ुशियों की लड़ी लगा दे तो वक़्त को जैसे पर लग जाते हैं।

पिछले साल 25 सितंबर को मेरे बेटे के एक दोस्त का जन्मदिन था। उसके माता-पिता हमारे अच्छे मित्र हैं तो उन्होने हमें भी बुलाया था।

हम सब जन्मदिन पर जाने के लिए तैयार थे। हमें उन्होंने जहाँ बुलाया था वो इस बार हममें से किसी को भी नहीं पता था। जानी पहचानी जगह भी नहीं थी। किसी पार्क का पता दिया था। लैंडमार्क के तौर पर।

उन्होंने इतनी गुज़ारिश ज़रूर की थी कि कोई तोहफ़ा नहीं लाएगा। इस बार उन्होंने कुछ बहुत ही क़रीबी लोगों को ही बुलाया था। हम जब निर्धािरत जगह पर पर पहुँचे तो इतना प्यारा वातावरण देखकर मन मोहित हो गया। पहुँचते ही एक बड़ा बगीचा मिला। बगीचे में फूल और घने पेड़-पौधे तो थे ही, साथ ही बच्चों के तरह तरह के रंग-बिरंगे झूले भी थे। पास ही बहता प्यारा सा छोटा फव्वारा भी था। कुछ देर के लिए लगा ही नहीं कि हम इतने शोर-शराबे वाले इस तेज़ी से भागते-दौड़ते शहर में रहते हैं।

वहीं हमारे स्वागत के लिए इनके मित्र और उनकी पत्नी खड़े थे। उन्होंने हमें पास के एक घर में जाने को कहा। हम कुछ हिचकिचाते हुए गए। कुछ क़दम चलते ही एक बड़ा सा हौल मिला और वहाँ मिले हँसते, खिलखिलाते बहुत सारे प्यारे-प्यारे बच्चे। बच्चे हर उम्र के थे। १३-१४वर्ष की उम्र से लेकर साल भर तक के। मुझे थोड़ा अटपटा लगा।

पर जल्दी ही मुझे समझते देर नहीं लगी। कुछ बच्चों के साथ किसी उम्र दराज़ औरत को देखा था। यह जन्मदिन वाक़ई बहुत अदभुत था। हम एक अनाथआश्रम में आए थे। अनाथ आश्रम और उनके बच्चों के बारे सुना तो बहुत था पर उनसे रू-ब- रू होने का मौक़ा, आज मिला था। इतने क़रीब से उन्हें पढ़ने और समझने का मौक़ा मिला था। इतने सारे बच्चे ! कैसे सब हमसे घुल -मिलकर ख़ुशी से खेल रहे थे। आज की तारीख़ में उनके माता-पिता हैं या नहीं इससे वे बिलकुल बेपरवाह थे। वहाँ की वॉर्डन जो थी इन सब के लिए। एक साथ इतने बच्चों के माता-पिता का औहदा संभालना अपने आप में बहुत गर्व की बात है। मेरे दोनों बच्चे भी इन बच्चों के साथ खेल रहे थे। हँसी के फ़व्वारे उस वातावरण में ऐसे घुल रहे थे जैसे हरे-भरे बाग़ में चिड़ियों की चहचहाहट। तभी मेरी निगाह एक साल भर की बच्ची पर पड़ी। हम दोनों की निगाहें मिली और लगा जैसे उसकी प्यारी आँखें मुझसे कुछ कह रही हों। वो जब भी चलने की कोशिश करती हर दो क़दम पर गिर जाती। मैं कुछ देर तक तो दखती रही पर मुझसे और न रहा गया। शायद मेरे भीतर की ममता उमड़ पड़ी थी। मैंने दौड़कर उसे झट से अपनी गोद में उठा लिया। गोद में आते ही वह मेरे गले में लटके चेन से खेलने लगी, ठीक वैसे ही जैसे सालों पहले मेरे बच्चे खेला करते थे। मैं कुछ देर उसके साथ खेली और फिर मुझे किसी ने आवाज़ दी। मैं उस बच्ची को वहीं बैठाकर दूसरी तरफ़ चली गयी।

बच्चों को खाने के लिए बैठाना था। मैं आश्रम के इन बच्चों को देखकर हैरान थी।कितने अनुशासित थे ये बच्चे ! वॉर्डन के एक इशारे पर सभी क़तार में जाकर बैठ गए। हमें उनकी अपेक्षा थोड़ी मशक़्क़त करनी पड़ी पर सभी खाने के लिए बैठ गए। खाना वहीं बनाया गया था और बहुत ही स्वादिष्ट बना था, जैसे बहुत प्रेम भाव से बनाया गया हो।

खाना अगर स्वादिष्ट हो तो भूख तो अपने आप ही लग जाती है। मैं तो इन बच्चों को देखने में मग्न थी पर शायद किसी की निगाहें मुझे ढूँढ रही थीं। मेरी नज़र उस बच्ची पर पड़ी तो वो इशारे से बाँहें पसारे मुझे बुला रही थी। मैंने उसे अपने गोद में बैठा लिया। उस बच्ची को मुझमें शायद उसकी माँ नज़र आने लगी थी। वो कभी मेरी कान की बूंदों से खेलती,कभी बिन्दी से, कभी गले की चैन से तो कभी मेरे दुपट्टे से। यूँ ही खेलते-खिलाते कितना समय बीत गया खुद हमें भी पता नहीं चला और अब वक़्त हो चला था इन बच्चों से विदा लेने का।

आश्रम की वॉर्डन ने बोला, "चलो बच्चों अब अंकल,आन्टी और फ्रेन्डस् को गुड नाईट और थैन्क्यू बोलो।" सभी बच्चों ने जब एक साथ एक ही सुर में बोला तो ह्रदय जैसे पिघल सा गया। शुक्रिया तो हमें अदा करना था इन बच्चों का। इतना कुछ जो सीखा हमने इनसे इन चन्द लम्हों में !

छोटे बच्चों को ले जाने के लिए दूसरी और आया भी आईं। मेरे हाथ से उस बच्ची को ले जाते हुए कहा, मैडम अब इसके सोने का समय हो गया है, मैं ले जा रही हूँ। ये सुनकर एक पल के लिए मुझे झटका सा लगा। एक अजीब सा खिंचाव था उसमें। वो बच्ची भी मेरा दुपट्टा छोड़ने को तैयार न थी। आया ने ज़बरदस्ती छुड़ाया और ले गई उसे दूर मेरी नज़रों से।

हमने सबसे विदा ली और घर चल पड़े। रास्ते भर मेरी आँखों के सामने उसका चेहरा घूमता रहा। बहुत बेचैन हो गई थी मैं। उस दिन रात भर सो नहीं पाई थी मैं। पहली बार एहसास हुआ था अपने सिर पर माता-पिता के साय के महत्व का।

मेरे बच्चों पर भी गहरा असर हुआ था उन सब का। महसूस किया था उन्होंने, कैसा होता है बिन माँ-बाप का जीवन ! अगले हफ्ते मेरे घर पूजा है, अपने क़रीबी मित्रों को बुलाया है मैंने। अरे ! बताया नहीं मैंने ?......मेरी गुड़िया, आज २ साल की हो जाएगी। जी हाँ ! वही नन्ही बाँहे जिन्होंने रात भर मुझे सोने नहीं दिया था। आज वो अपने पापा की दुलारी बेटी और दोनों भाइयों के आँखों का तारा बन चुकी है और मैं......मैं ख़ुश हूँ, बेहद ख़ुश।।


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