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Prasenjit Sarkar

Tragedy

4.5  

Prasenjit Sarkar

Tragedy

एक इंतजार ऐसा भी

एक इंतजार ऐसा भी

7 mins
359


दि. 03. अगस्त

“आज फिर से बरसात हुई. यही कुछ बीस तीस मिनट तक. देखकर मन को बहुत अच्छा लगा. मन थोड़ा शांत हुआ. घबराहट होती है आजकल. मानो ऐसा लगता है की कल ही तो मैं आया था यहाँ. कल की ही बात होगी शायद से. हाँ , कल ही तो मैंने कागजों पर दस्तखत किए थे. पता नहीं, शायद रघु ने कुछ इंतजाम किया होगा मेरा. यहाँ के लोग भी ठीक ही है. मालती जैसे नहीं, की हर बात में टोकते रहे. घर में कितने बार कहा हुआ है कि झाड़ू हमेशा बाहर के कमरे में दरवाजे के पीछे रखा करो, मेहमानों को दिखना नहीं चाहिए, अशुभ होता है। यहाँ देखो, कितने अच्छे से साफ़ सफाई के बाद ऊपर से कवर करके रखते है। यहाँ कहते है की सब कुछ ढका होना चहिये। वह क्या बोलते है.. हां.. संक्रमण होने की संभावना होती है. वैसे भी आजकल हर कोई अपने सिर पे झाड़ू ही लेके चल रहा है। यहाँ दिल्ली में तो हर तरफ इतनी धूल है... इतनी धूल है की बस राजनीति में भी लोगों को झाड़ू ही नजर आती है. मालती रोटियां बहुत अच्छी बनाती थी. कभी-कभी पूरी भी तल देती थी. पूरी के साथ वह टमाटर की तीखी खट्टी सब्जी...अरे वाह वाह. यहाँ की दाल भी अच्छी ही होती है. बस आजकल चावल खाने की आदत पड़ चुकी है. आदत पड़ना अच्छी बात नहीं है. आदमी को आदत लग जाए तो बाद में पछतावा बहुत होता है.

अच्छा हुआ बरसात हुई. मिट्टी की खुशबू आजकल बंद कमरों में कहा मिलती है. बंद कमरों में तो बस मरीज दिखते है. हर आदमी आजकल एक मरीज बन चुका है. हर मरीज के लिए एक डॉक्टर है. रघु कहता है कुछ दिन की बात है सब ठीक हो जायेगा. ‘पापा, चिंता मत करो, मैं आऊंगा लेने’'. कब आयेगा रघु? जरा खिड़की से देखूँ. हम्म , बाहर सड़क गीली है |पेड़ो की पत्तियाँ भी गीली ही दिख रही है. मालती होती तो वह भी देखती. उसे बारिश में पेड़ो को देखना बहुत पसंद था. हरे भरे पेड़ उसके आँखों के लिए दवाई का काम करते। कहती थी, ‘अजी सुनते हो, देखो कितना सुन्दर लग रहा है, बाहर की हरियाली. अंदर बहुत घुटन होती है. उमर हो चली है न. आजकल घर का काम सब बहु ने अपने हाथ में ले लिया है. मुझे कुछ करना नहीं पड़ता. आपके लिए पूरियाँ भी वही बनाती है. थोड़ा तेल ज्यादा रहता है. पर सीख जायेगी। आजकल के बच्चे काफी समझदार हो चुके है. जल्दी सीख जाते है और सिखा भी देते है. समझदार होते है. हम दोनों के तरह नहीं की जब नया-नया घर पे मोबाइल फ़ोन आया था तो कैसे उठाने के जगह काट देते थे गलती से. कभी डांट नहीं लगाई हमें हमारे बच्चों ने. नहीं ?’. 

मालती ठीक बोलती थी. हमारे बच्चे हमसे ज्यादा समझदार हो चुके है. रघु शादी के बाद बस एक बच्चा कर ले. मैं अपने इन हाथों से अपने प्यारे नाती को गोदी में लूंगा, पुचकारूंगा. उसका चेहरा रघु से मिलना चाहिए, सुन्दर नीली कांचली आंखें. बहू रानी से मिले तो भी चले. अपने नाती का नाम क्या रखना है क्या सोचा है किसी ने.? आज बात कर ही लेता हूँ. उफ़, यह व्हील-चेयर पीछा छोडती ही नहीं है. और यह सब नाक से क्या पाइप निकल रहा है पता नहीं. डॉक्टर साहब भी नजर नहीं आ रहे. क्या करूँ? थोड़ा जोर-जोर से ख़ास लेता हूँ . यह अकेलापन भी दूर हो जाएगा और डॉक्टर से बात भी हो जाएगी. अगर खासते खासते वाकई में कुछ हो गया तो? रघु किधर रह गया ? मालती होती तो रघु को दो-चार लगा देती। फिर मेरे पास भागा- भागा चला आता , ‘पापा देखो माँ मारती है’. ‘बेटे, माँ तुम्हें सबक सिखा रही है ताकि दोबारा तुम कुछ गलती ना करो’. पर क्या करें. जैसा बाप वैसा बेटा. कनाडा से लौटते ही मालती को जिंदगी का सबसे बड़ा झटका दे डाला. ‘यह लो माँ, तुम्हारी बहू रानी’. माँ ने सोचा हुआ था, ‘बेटा अच्छी नौकरी कर रहा है, पैसे भरपूर कमा रहा है. शादी के वक़्त अच्छा सा सिल्क की महेंगी साडी और सोने की लम्बी चैन पहनूंगी. अच्छा खासा रिश्ता आएगा और खूब दहेज़ मिलेगा’. पर मिला क्या? जाने दो. यह सब सोचकर मन खराब नहीं करते. थोड़ा आगे घूम के आता हूँ . कुछ मन हल्का होगा. रघु ने कहा था नया मोबाइल लेकर देगा. मेरे इस मोबाइल से मैं बात नहीं कर पाता हूँ . बहु रानी के लिए पहले ले लिया. अच्छा है. जरूरत है बहुरानी को. काफी समय तक फ़ोन पे ही लगी रहती है.

समय कितना हो गया? ओह...यह बिस्तर भी ठंडा है। थोड़ा गरम पानी चाहिए. यह हाथ भी उठ नहीं पा रहा है। शरीर भी आजकल साथ नहीं देता। समय कितना हो गया? अरे, अँधेरा होने आया. शाम के छः ही तो बजे है. आज तो मेरे बगल वाले को भी मुक्ति मिल गयी. सुबह शाम हरी कीर्तन करता था. आज उसकी भी आवाज़ नहीं आ रही। कल उसका शायद बेटा होगा जो आया था. खूब रो रहा था. बाद में बाकी घर वाले भी आये. और शाम को देखो 'राम नाम सत्य है' चालू हो गया. वह अपनी अंतिम यात्रा के लिए हरिद्वार निकल गया. दो दिन बाद वह सामने वाले कमरे में रहने वाला किशोर का लड़का भी आएगा. किशोर आजकल बोल नहीं पाता, कुछ खा नहीं पाता। बोलता है कुछ दिखता नहीं, पर सयाना सब देखता था चोरी चोरी. कितने ही नरसों के साथ गप्पें और गुल-छर्रे उड़ाता था. दाँत सारे गायब थे फिर भी गरमा गरम खाना खाता था , हँसता था. यहाँ सब हँसते है. शायद हँसना पड़ता है, जरूरी है. नहीं तो दिन कैसे कटे ? अपने-अपने घरों में लगता है वह ख़ुशी नहीं मिल पायी होगी किसी को. शायद यहाँ इसीलिए सब अपने हिस्से का हँस लेते है. घर की याद आती तो है पर आजकल वह घर जैसा मजा नहीं आता. उस घर में अपना कोई नहीं है. यहाँ पे सब अपने ही लगते है. सबके पास एक अपना दुःख है. एक अपनी हँसी है. एक अपनी जिंदगी है जो शायद ही किसी ने सोचा होगा - ऐसा दिन भी देखने को मिल सकता है. दीवाली में छोटे-छोटे बच्चे आते है. ‘दादा जी कैसे हो? एक कहानी सुनाओ न…. एक चुटकुला सुनाऊँ?’ बोलते जाते है. मन को अच्छा लगता है. वह पटाखों की आवाज़ आजकल कानों को चुभती है जो पहले कभी उल्लास दे जाती थी. वह होली के रंग आजकल शरीर को जलाती है जो पहले कभी बदन से ज्यादा मन को सुहाते थे. वह मिठाई आज जीभ को जमती नहीं जो पहले न जाने कितने खा जाते थे. मन करता है यही ठहर जाऊँ। यही मेरा घर है अब. रघु खुश होगा अपनी जिंदगी में. तरक्की करें. मैं इसी में खुश बेटे की खुशी में ही मेरी ख़ुशी है. आज आएगा तो बात करूँगा उससे. जी भर के.

अरे देखो, बरसात दोबारा से. दोबारा से वह खुशियाँ वह पल अगर मिल पाते तो कितना अच्छा होता. चलो यह वक़्त भी गुजर जाएगा. जरा बाहर निकल के देखते है वाकई हरियाली है या सिर्फ दिलासा। काश दिलासा भी कोई दे जाता. इंतजार करता हूँ, पिता हूँ , अपना दायित्व तो निभाना है न. रघु दिख नहीं रहा. आता ही होगा वह. बरसात हो रही है न. कही ठहर गया होगा... मेरी तरह. इंतजार करूँगा. बस इंतजार करूंगा.”

दि. 04.अगस्त . डायरी का यह पन्ना खाली ही रह गया.

डायरी के यह पन्ने रघु अपने उंगलियों से पलट रहा था. रघु के दिवंगत पिता ने वृद्धाश्रम में कैसे समय व्यतीत किया होगा यह रघु अपने सांसारिक जीवन से तुलना नहीं कर पाया. कल रघु को यह बात खटकेगी जरूर जब उसका बेटा उसकी उंगली पकड के वृद्धाश्रम ले जायेगा. क्या तब रघु अपने पिता समान अकेले जीवन गुजर बसर कर लेगा? हम इंसानों की फितरत शायद ऐसी ही है. जीवन हमारे लिये डायरी के वह पन्ने है जो हम किसी के इंतजार में भरते ही चले जाते है. हमारे विचार उस स्याही के जैसे है जो आशा रुपी कलम से पन्नों पे उतरते है. रघु शायद यह चीज समझ नहीं पाया. अपने पिता के लिखे हुए उन आखिरी पन्नों पे वह वाक्य उसे अभी काट रहे थे- ‘आजकल के बच्चे काफी समझदार हो चुके है.’ 



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